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सुंदरकांड की शुरुआत - श्लोक

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श्रीगणेशायनमःश्रीजानकीवल्लभो विजयतेश्रीरामचरितमानसपञ्चम सोपानश्री सुन्दर काण्डश्लोक :  शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदंब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।रामाख्यं जगदीश्वरं सुरग  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 01

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चौपाई :जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥1॥भावार्थ:-जाम्बवान्‌ के सुंदर वचन सुनकर हनुमान्‌जी के हृदय को बहुत ही भाए। (वे बोले-) हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द-मूल-फल ख  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 02

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चौपाई :जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥1॥भावार्थ:- देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान्‌जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए (परीक्षार्थ) उन्हों  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 03

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चौपाई : निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥1॥भावार्थ:- समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव-जं  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 04

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चौपाई :मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥1॥भावार्थ:- हनुमान्‌जी मच्छड़ के समान (छोटा सा) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके लंका को   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 05

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चौपाई :प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥1॥भावार्थ:- अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथजी को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जा  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 06

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चौपाई :लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥भावार्थ:- लंका तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान है। यहाँ सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहाँ? हनुमान्‌जी मन में इस प्रकार तर  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 07

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चौपाई :सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥1॥भावार्थ:- (विभीषणजी ने कहा-) हे पवनपुत्र! मेरी रहनी सुनो। मैं यहाँ वैसे ही रहता हूँ जैसे दाँतों के बीच में बेचारी   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 08

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चौपाई :जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥1॥भावार्थ:- जो जानते हुए भी ऐसे स्वामी (श्री रघुनाथजी) को भुलाकर (विषयों के पीछे) भटकते फिरते हैं, वे दुःखी क्यों   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 09

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चौपाई :तरु पल्लव महँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई॥तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा॥1॥भावार्थ:- हनुमान्‌जी वृक्ष के पत्तों में छिप रहे और विचार करने लगे कि हे भाई! क्या करूँ (इनका दुःख कैसे दूर करूँ)? उसी समय बहुत स  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 10

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चौपाई :सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना॥नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी॥1॥भावार्थ:- सीता! तूने मेरा अपनाम किया है। मैं तेरा सिर इस कठोर कृपाण से काट डालूँगा। नहीं तो (अब भी) जल्दी मेरी बात मान ले।   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 11

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चौपाई :त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका॥सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना॥1॥भावार्थ:- उनमें एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी। उसकी श्री रामचंद्रजी के चरणों में प्रीति थी और वह विवेक (ज्ञान) में निपुण थ  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 12

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चौपाई :त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी। मातु बिपति संगिनि तैं मोरी॥तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥1॥भावार्थ:- सीताजी हाथ जोड़कर त्रिजटा से बोलीं- हे माता! तू मेरी विपत्ति की संगिनी है। जल्दी कोई ऐसा उपाय कर जिससे मैं शर  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 13

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चौपाई :तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर॥चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥1॥भावार्थ:- तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर अँगूठी देखी। अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 14

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चौपाई :हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी। सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥बूड़त बिरह जलधि हनुमाना। भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥1॥भावार्थ:- भगवान का जन (सेवक) जानकर अत्यंत गाढ़ी प्रीति हो गई। नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुल  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 15

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चौपाई :कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू॥1॥भावार्थ:- (हनुमान्‌जी बोले-) श्री रामचंद्रजी ने कहा है कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए हैं  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 16

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चौपाई :जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलंबु रघुराई॥राम बान रबि उएँ जानकी। तम बरुथ कहँ जातुधान की॥1॥भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी ने यदि खबर पाई होती तो वे बिलंब न करते। हे जानकीजी! रामबाण रूपी सूर्य के उदय होने पर राक्षसों की सेन  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 17

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चौपाई :मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी॥आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना॥1॥भावार्थ:- भक्ति, प्रताप, तेज और बल से सनी हुई हनुमान्‌जी की वाणी सुनकर सीताजी के मन में संतोष हुआ। उन्होंने श्री रामजी के प्  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 18

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चौपाई :चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥1॥भावार्थ:- वे सीताजी को सिर नवाकर चले और बाग में घुस गए। फल खाए और वृक्षों को तोड़ने लगे। वहाँ बहुत से योद्धा रखवाले थे। उनम  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 19

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चौपाई :सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना॥मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥1॥भावार्थ:- पुत्र का वध सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और उसने (अपने जेठे पुत्र) बलवान्‌ मेघनाद को भेजा। (उससे कहा कि-) हे पुत्र! मार  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 20

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चौपाई :ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा॥तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥1॥भावार्थ:- उसने हनुमान्‌जी को ब्रह्मबाण मारा, (जिसके लगते ही वे वृक्ष से नीचे गिरपड़े), परंतु गिरते समय भी उन्होंने   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 21

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चौपाई :कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असंक सठ तोही॥1॥भावार्थ:- लंकापति रावण ने कहा- रे वानर! तू कौन है? किसके बल पर तूने वन को उजाड़कर नष्ट कर डाला? क्या तूने कभी मुझे (मेरा ना  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 22

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चौपाई :जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई॥समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥1॥भावार्थ:- मैं तुम्हारी प्रभुता को खूब जानता हूँ सहस्रबाहु से तुम्हारी लड़ाई हुई थी और बालि से युद्ध करके तुमने यश प्र  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 23

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चौपाई :राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥1॥भावार्थ:- तुम श्री रामजी के चरण कमलों को हृदय में धारण करो और लंका का अचल राज्य करो। ऋषि पुलस्त्यजी का यश निर्मल चंद्  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 24

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चौपाई :जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥1॥भावार्थ:- यद्यपि हनुमान्‌जी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीति से सनी हुई बहुत ही हित की वाणी कही, तो भी वह महान्‌ अभिमा  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 25

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चौपाई :पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई। देखउ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥1॥भावार्थ:- जब बिना पूँछ का यह बंदर वहाँ (अपने स्वामी के पास) जाएगा, तब यह मूर्ख अपने मालिक को साथ ले आएगा। जिनकी इसने बह  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 26

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चौपाई :देह बिसाल परम हरुआई। मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई॥जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला॥1॥भावार्थ:- देह बड़ी विशाल, परंतु बहुत ही हल्की (फुर्तीली) है। वे दौड़कर एक महल से दूसरे महल पर चढ़ जाते हैं। नगर जल रहा है लोग बेहाल हो   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 27

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चौपाई :मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥1॥भावार्थ:- (हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिए, जैसे श्रीरघुनाथजी ने मुझे दिया था। तब सीताजी ने चूड़ामणि   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 28

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चौपाई :चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥नाघि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥1॥भावार्थ:- चलते समय उन्होंने महाध्वनि से भारी गर्जन किया, जिसे सुनकर राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिरने लगे।  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 29

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चौपाई :जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि काई॥एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा॥1॥भावार्थ:- यदि सीताजी की खबर न पाई होती तो क्या वे मधुवन के फल खा सकते थे? इस प्रकार राजा सुग्रीव मन में विचार कर ही रहे थे कि समा  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 30

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चौपाई :जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥1॥भावार्थ:- जाम्बवान्‌ ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए। हे नाथ! जिस पर आप दया करते हैं, उसे सदा कल्याण और निरंतर कुशल है। देवता,   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 31

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चौपाई :चलत मोहि चूड़ामनि दीन्हीं। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥1॥भावार्थ:- चलते समय उन्होंने मुझे चूड़ामणि (उतारकर) दी। श्री रघुनाथजी ने उसे लेकर हृदय से लगा लिया। (हनुमान्‌जी ने फिर क  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 32

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चौपाई :सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना॥बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥1॥भावार्थ:- सीताजी का दुःख सुनकर सुख के धाम प्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया (और वे बोले-) मन, वचन और शरीर से जिसे मेरी ही ग  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 33

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चौपाई :बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥1॥भावार्थ:- प्रभु उनको बार-बार उठाना चाहते हैं, परंतु प्रेम में डूबे हुए हनुमान्‌जी को चरणों से उठना सुहाता नहीं। प्रभु   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 34

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चौपाई :नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥1॥भावार्थ:- हे नाथ! मुझे अत्यंत सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिए। हनुमान्‌जी की अत्यंत सरल वाणी सुनकर, हे भवानी!  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 35

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चौपाई :प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना॥1॥भावार्थ:- वे प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाते हैं। महान्‌ बलवान्‌ रीछ और वानर गरज रहे हैं। श्री रामजी ने वानरों की सारी से  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 36

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चौपाई :उहाँ निसाचर रहहिं ससंका। जब तें जारि गयउ कपि लंका॥निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा।1॥भावार्थ:- वहाँ (लंका में) जब से हनुमान्‌जी लंका को जलाकर गए, तब से राक्षस भयभीत रहने लगे। अपने-अपने घरों में सब विचार   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 37

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चौपाई :श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥सभय सुभाउ नारि कर साचा। मंगल महुँ भय मन अति काचा॥1॥भावार्थ:- मूर्ख और जगत प्रसिद्ध अभिमानी रावण कानों से उसकी वाणी सुनकर खूब हँसा (और बोला-) स्त्रियों का स्वभाव सचमुच ही बहुत  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 38

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चौपाई :सोइ रावन कहुँ बनी सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥1॥भावार्थ:- रावण के लिए भी वही सहायता (संयोग) आ बनी है। मंत्री उसे सुना-सुनाकर (मुँह पर) स्तुति करते हैं। (इसी समय) अवसर जानकर   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 39

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चौपाई :तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥1॥भावार्थ:- हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं। वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। वे (संपूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्र  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 40

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चौपाई :माल्यवंत अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना॥तात अनुज तव नीति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥1॥भावार्थ:- माल्यवान्‌ नाम का एक बहुत ही बुद्धिमान मंत्री था। उसने उन (विभीषण) के वचन सुनकर बहुत सुख माना (और कहा-) हे तात! आप  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 41

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चौपाई :बुध पुरान श्रुति संमत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी॥सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहिं निकट मृत्यु अब आई॥1॥भावार्थ:- विभीषण ने पंडितों, पुराणों और वेदों द्वारा सम्मत (अनुमोदित) वाणी से नीति बखानकर कही। पर उसे सुनते ही रावण क्रोधि  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 42

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चौपाई :अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयू हीन भए सब तबहीं॥साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥1॥भावार्थ:- ऐसा कहकर विभीषणजी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए। (उनकी मृत्यु निश्चित हो गई)। (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! स  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 43

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चौपाई :ऐहि बिधि करत सप्रेम बिचारा। आयउ सपदि सिंदु एहिं पारा॥कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥1॥भावार्थ:- इस प्रकार प्रेमसहित विचार करते हुए वे शीघ्र ही समुद्र के इस पार (जिधर श्री रामचंद्रजी की सेना थी) आ गए। वानर  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 44

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चौपाई :कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥1॥भावार्थ:- जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहींत्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 45

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चौपाई :सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानंद दान के दाता॥1॥भावार्थ:- विभीषणजी को आदर सहित आगे करके वानर फिर वहाँ चले, जहाँ करुणा की खान श्री रघुनाथजी थे। नेत्रों को आनंद का दान देने व  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 46

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चौपाई :अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥1॥भावार्थ:- प्रभु ने उन्हें ऐसा कहकर दंडवत्‌ करते देखा तो वे अत्यंत हर्षित होकर तुरंत उठे। विभीषणजी के दीन वचन सुनने पर   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 47

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चौपाई :तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना॥जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा॥1॥भावार्थ:- लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद और मान आदि अनेकों दुष्ट तभी तक हृदय में बसते हैं, जब तक कि धनुष-बाण और कमर में तरकस धारण किए हुए श्  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 48

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चौपाई :सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही॥1॥भावार्थ:- (श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूँ, जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती है  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 49

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चौपाई :सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥।राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥1॥भावार्थ:- हे लंकापति! सुनो, तुम्हारे अंदर उपर्युक्त सब गुण हैं। इससे तुम मुझे अत्यंत ही प्रिय हो। श्री रामजी के वचन   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 50

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चौपाई :अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना। ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥1॥भावार्थ:- ऐसे परम कृपालु प्रभु को छोड़कर जो मनुष्य दूसरे को भजते हैं, वे बिना सींग-पूँछ के पशु हैं। अपना सेवक जानक  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 51

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चौपाई :सखा कही तुम्ह नीति उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई।मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा॥1॥भावार्थ:- (श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया। यही किया जाए, यदि दैव सहायक हों। यह सलाह लक्ष्मणजी के मन को अच्छी  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 52

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चौपाई :प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥1॥भावार्थ:- फिर वे प्रकट रूप में भी अत्यंत प्रेम के साथ श्री रामजी के स्वभाव की बड़ाई करने लगे उन्हें दुराव (कपट वेश) भूल   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 53

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चौपाई :तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा॥कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥1॥भावार्थ:- लक्ष्मणजी के चरणों में मस्तक नवाकर, श्री रामजी के गुणों की कथा वर्णन करते हुए दूत तुरंत ही चल दिए। श्री रामजी का यश कहते हु  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 54

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चौपाई :नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥1॥भावार्थ:- (दूत ने कहा-) हे नाथ! आपने जैसे कृपा करके पूछा है, वैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिए (मेरी बात पर विश्वास  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 55

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चौपाई :ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥1॥भावार्थ:- ये सब वानर बल में सुग्रीव के समान हैं और इनके जैसे (एक-दो नहीं) करोड़ों हैं, उन बहुत सो को गिन ही कौन सकता ह  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 56

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चौपाई :राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई॥सक सर एक सोषि सत सागर। तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥1॥भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी के तेज (सामर्थ्य), बल और बुद्धि की अधिकता को लाखों शेष भी नहीं गा सकते। वे एक ही बाण से सैकड़ों समुद्र  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 57

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चौपाई :सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई॥भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा॥1॥भावार्थ:- पत्रिका सुनते ही रावण मन में भयभीत हो गया, परंतु मुख से (ऊपर से) मुस्कुराता हुआ वह सबको सुनाकर कहने लगा- जैसे कोई पृथ्वी पर  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 58

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चौपाई :लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥1॥भावार्थ:- हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंज  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 59

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चौपाई :सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥1॥भावार्थ:- समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 60

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चौपाई :नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं रिषि आसिष पाई॥तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥1॥भावार्थ:-  (समुद्र ने कहा)) हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आशीर्वाद पाया था। उनके स्प  ......

बालकाण्ड शुरुआत श्लोक

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श्रीगणेशायनमःश्रीजानकीवल्लभो विजयतेश्रीरामचरितमानसप्रथम  सोपानश्री बालकाण्डश्लोक :वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥भावार्थ:- अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों क  ......

बालकाण्ड शुरुआत सोरठा

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सोरठा :जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1॥भावार्थ:- जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणों के स्वामी और सुंदर हाथी के मुख वाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम (श  ......

बालकाण्ड दोहा 01

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चौपाई :बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥ भावार्थ:- मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है  ......

बालकाण्ड दोहा 02

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चौपाई :गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥ भावार्थ:- श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अं  ......

बालकाण्ड दोहा 03

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चौपाई :मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥1॥ भावार्थ:- इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न कर  ......

बालकाण्ड दोहा 04

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चौपाई :बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥1॥ भावार्थ:- अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण क  ......

बालकाण्ड दोहा 05

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चौपाई :मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥1॥ भावार्थ:- मैंने अपनी ओर से विनती की है, परन्तु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेंगे। कौओं को बड़े प्रेम से पालिए, परन्तु   ......

बालकाण्ड दोहा 06

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चौपाई :खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥1॥ भावार्थ:- दुष्टों के पापों और अवगुणों की और साधुओं के गुणों की कथाएँ- दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं। इसी से कुछ गुण औ  ......

बालकाण्ड दोहा 07

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चौपाई :अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥ भावार्थ:- विधाता जब इस प्रकार का (हंस का सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और   ......

बालकाण्ड दोहा 08

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चौपाई :आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥1॥ भावार्थ:- चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए   ......

बालकाण्ड दोहा 09

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चौपाई :खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥1॥ भावार्थ:- किन्तु दुष्टों के हँसने से मेरा हित ही होगा। मधुर कण्ठ वाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा करते हैं। जैसे बगुले हंस को औ  ......

बालकाण्ड दोहा 10

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चौपाई :एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥1॥ भावार्थ:- इसमें श्री रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों को हर  ......

बालकाण्ड दोहा 11

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चौपाई :मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥1॥ भावार्थ:- मणि, माणिक और मोती की जैसी सुंदर छबि है, वह साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती। राजा के मुकुट और   ......

बालकाण्ड दोहा 12

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चौपाई :जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़े॥1॥ भावार्थ:- जो कराल कलियुग में जन्मे हैं, जिनकी करनी कौए के समान है और वेष हंस का सा है, जो वेदमार्ग को छोड़कर कुमार्ग पर चलते हैं, जो क  ......

बालकाण्ड दोहा 13

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चौपाई :सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥1॥ भावार्थ:- यद्यपि प्रभु श्री रामचन्द्रजी की प्रभुता को सब ऐसी (अकथनीय) ही जानते हैं, तथापि कहे बिना कोई नहीं रहा। इसमें वे  ......

बालकाण्ड दोहा 14

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चौपाई :एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार मन को बल दिखलाकर मैं श्री रघुनाथजी की सुहावनी कथा की रचना करूँगा। व्यास आदि जो अनेकों श्रेष्ठ कवि  ......

बालकाण्ड दोहा 15

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चौपाई :पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥1॥ भावार्थ:- फिर मैं सरस्वती और देवनदी गंगाजी की वंदना करता हूँ। दोनों पवित्र और मनोहर चरित्र वाली हैं। एक (गंगाजी) स्नान करने और   ......

बालकाण्ड दोहा 16

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चौपाई :बंदउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥1॥ भावार्थ:- मैं अति पवित्र श्री अयोध्यापुरी और कलियुग के पापों का नाश करने वाली श्री सरयू नदी की वन्दना करता हूँ। फ  ......

बालकाण्ड दोहा 17

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चौपाई :प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥1॥ भावार्थ:- मैं परिवार सहित राजा जनकजी को प्रणाम करता हूँ, जिनका श्री रामजी के चरणों में गूढ़ प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भ  ......

बालकाण्ड दोहा 18

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चौपाई :कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥1॥ भावार्थ:- वानरों के राजा सुग्रीवजी, रीछों के राजा जाम्बवानजी, राक्षसों के राजा विभीषणजी और अंगदजी आदि जितना वानरों का समाज है, सब  ......

बालकाण्ड दोहा 19

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चौपाई :बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥1॥ भावार्थ:- मैं श्री रघुनाथजी के नाम ‘राम’ की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्  ......

बालकाण्ड दोहा 20

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चौपाई :आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥ससुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥1॥ भावार्थ:- दोनों अक्षर मधुर और मनोहर हैं, जो वर्णमाला रूपी शरीर के नेत्र हैं, भक्तों के जीवन हैं तथा स्मरण करने में सबके लिए सुलभ और   ......

बालकाण्ड दोहा 21

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चौपाई :समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥1॥भावार्थ:- समझने में नाम और नामी दोनों एक से हैं, किन्तु दोनों में परस्पर स्वामी और सेवक के समान प्रीति है (अर्थात्‌ नाम और न  ......

बालकांड दोहा 22

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चौपाई :नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥1॥भावार्थ:- ब्रह्मा के बनाए हुए इस प्रपंच (दृश्य जगत) से भलीभाँति छूटे हुए वैराग्यवान्‌ मुक्त योगी पुरुष इस नाम को ही ज  ......

बालकांड दोहा 23

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चौपाई :अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें॥1॥भावार्थ:- निर्गुण और सगुण ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। ये दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी सम्मति में ना  ......

बालकांड दोहा 24

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चौपाई :राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥1॥भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी ने भक्तों के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके स्वयं कष्ट सहकर साधुओं को सुखी किया, परन्तु भक्तगण  ......

बालकांड दोहा 25

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चौपाई :राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ ॥नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥1॥भावार्थ:- श्री रामजी ने सुग्रीव और विभीषण दोनों को ही अपनी शरण में रखा, यह सब कोई जानते हैं, परन्तु नाम ने अनेक गरीबों पर कृपा की है। न  ......

बालकांड दोहा 26

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चौपाई :नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥1॥भावार्थ:- नाम ही के प्रसाद से शिवजी अविनाशी हैं और अमंगल वेष वाले होने पर भी मंगल की राशि हैं। शुकदेवजी और सनकादि सिद्ध,   ......

बालकांड दोहा 27

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चौपाई :चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥1॥भावार्थ:- (केवल कलियुग की ही बात नहीं है,) चारों युगों में, तीनों काल में और तीनों लोकों में नाम को जपकर जीव शोकरहित हुए हैं। वेद,  ......

बालकांड दोहा 28

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चौपाई :भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥1॥॥भावार्थ:- अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (बैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होत  ......

बालकांड दोहा 29

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चौपाई :अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥1॥भावार्थ:- यह मेरी बहुत बड़ी ढिठाई और दोष है, मेरे पाप को सुनकर नरक ने भी नाक सिकोड़ ली है (अर्थात नरक में भी मेरे लिए  ......

बालकांड दोहा 30

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चौपाई :जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥1॥भावार्थ:- मुनि याज्ञवल्क्यजी ने जो सुहावनी कथा मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी को सुनाई थी, उसी संवाद को मैं बखानकर कहूँगा, सब सज्ज  ......

बालकांड दोहा 31

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चौपाई :तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥1॥भावार्थ:- तो भी गुरुजी ने जब बार-बार कथा कही, तब बुद्धि के अनुसार कुछ समझ में आई। वही अब मेरे द्वारा भाषा में रची जाएगी, जि  ......

बालकांड दोहा 32

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चौपाई :रामचरित चिंतामति चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥जग मंगल गुनग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥1॥भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी का चरित्र सुंदर चिन्तामणि है और संतों की सुबुद्धि रूपी स्त्री का सुंदर श्रंगार है। श्री रा  ......

बालकांड दोहा 33

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चौपाई :कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबंध बिचित्र बनाई॥1॥भावार्थ:- जिस प्रकार श्री पार्वतीजी ने श्री शिवजी से प्रश्न किया और जिस प्रकार से श्री शिवजी ने विस्तार से उसका उत्  ......

बालकांड दोहा 34

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चौपाई :एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥1॥भावार्थ:- इस प्रकार सब संदेहों को दूर करके और श्री गुरुजी के चरणकमलों की रज को सिर पर धारण करके मैं पुनः हाथ जोड़कर सबकी व  ......

बालकांड दोहा 35

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चौपाई : दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारदा बिमल मति॥1॥भावार्थ:- वेद-पुराण कहते हैं कि श्री सरयूजी का दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापों को हरता है। यह नदी बड़ी ही पवित्र है, इसकी म  ......

बालकांड दोहा 36

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चौपाई :संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥1॥भावार्थ:- श्री शिवजी की कृपा से उसके हृदय में सुंदर बुद्धि का विकास हुआ, जिससे यह तुलसीदास श्री रामचरित मानस का कवि   ......

बालकांड दोहा 37

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चौपाई :सप्त प्रबंध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥1॥भावार्थ:- सात काण्ड ही इस मानस सरोवर की सुंदर सात सीढ़ियाँ हैं, जिनको ज्ञान रूपी नेत्रों से देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है।   ......

बालकांड दोहा 38

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चौपाई :जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥1॥भावार्थ:- जो लोग इस चरित्र को सावधानी से गाते हैं, वे ही इस तालाब के चतुर रखवाले हैं और जो स्त्री-पुरुष सदा आदरपूर्वक इसे सुन  ......

बालकांड दोहा 39

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चौपाई :जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नीद जुड़ाई होई॥जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥1॥भावार्थ:- यदि कोई मनुष्य कष्ट उठाकर वहाँ तक पहुँच भी जाए, तो वहाँ जाते ही उसे नींद रूपी ज़ूडी आ जाती है। हृदय में मूर्खता रूप  ......

बालकांड दोहा 40

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चौपाई :रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥1॥भावार्थ:- सुंदर कीर्ति रूपी सुहावनी सरयूजी रामभक्ति रूपी गंगाजी में जा मिलीं। छोटे भाई लक्ष्मण सहित श्री रामजी के युद्ध का  ......

बालकांड दोहा 41

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चौपाई :सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥1॥भावार्थ:- श्री सीताजी के स्वयंवर की जो सुन्दर कथा है, वह इस नदी में सुहावनी छबि छा रही है। अनेकों सुंदर विचारपूर्ण प्रश्न ही इ  ......

बालकांड दोहा 42

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चौपाई :कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥1॥भावार्थ:- यह कीर्तिरूपिणी नदी छहों ऋतुओं में सुंदर है। सभी समय यह परम सुहावनी और अत्यंत पवित्र है। इसमें शिव-पार्व  ......

बालकांड दोहा 43

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चौपाई :आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥1॥भावार्थ:- मेरा आर्तभाव, विनय और दीनता इस सुंदर और निर्मल जल का कम हलकापन नहीं है (अर्थात्‌ अत्यंत हलकापन है)। यह जल बड़ा ही अनोखा है  ......

बालकांड दोहा 44

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चौपाई :भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥1॥भावार्थ:- भरद्वाज मुनि प्रयाग में बसते हैं, उनका श्री रामजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है। वे तपस्वी, निगृहीत चित्त, जितेन  ......

बालकांड दोहा 45

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चौपाई :एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥1॥भावार्थ:- इसी प्रकार माघ के महीनेभर स्नान करते हैं और फिर सब अपने-अपने आश्रमों को चले जाते हैं। हर साल वहाँ इसी त  ......

बालकांड दोहा 46

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चौपाई :अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥राम नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा॥1॥भावार्थ:- यही सोचकर मैं अपना अज्ञान प्रकट करता हूँ। हे नाथ! सेवक पर कृपा करके इस अज्ञान का नाश कीजिए। संतों, पुराणों और उपनि  ......

बालकांड दोहा 47

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चौपाई:जैसें मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥1॥भावार्थ:- हे नाथ! जिस प्रकार से मेरा यह भारी भ्रम मिट जाए, आप वही कथा विस्तारपूर्वक कहिए। इस पर याज्ञवल्क्यजी मुस्कु  ......

बालकांड दोहा 48

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चौपाई :एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥भावार्थ:- एक बार त्रेता युग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं। ऋषि ने संपूर्ण जगत्‌ के ई  ......

बालकांड दोहा 49

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चौपाई :रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥1॥भावार्थ:- रावण ने (ब्रह्माजी से) अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से माँगी थी। ब्रह्माजी के वचनों को प्रभु सत्य करना चाहते हैं  ......

बालकांड दोहा 50

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चौपाई :संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा ॥भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥1॥भावार्थ:- श्री शिवजी ने उसी अवसर पर श्री रामजी को देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न हुआ। उन शोभा के सम  ......

बालकांड दोहा 51

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चौपाई :बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥1॥भावार्थ:- देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो विष्णु भगवान्‌ हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ   ......

बालकांड दोहा 52

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चौपाई :जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥1॥भावार्थ:- जो तुम्हारे मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इस  ......

बालकांड दोहा 53

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चौपाई :लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥भावार्थ:- सतीजी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत गंभीर हो गए, कुछ कह  ......

बालकांड दोहा 54

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चौपाई :मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥1॥भावार्थ:- कि मैंने शंकरजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का श्री रामचन्द्रजी पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? (य  ......

बालकांड दोहा 55

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चौपाई :देखे जहँ जहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥1॥भावार्थ:- सतीजी ने जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा। संसार में जो चराचर जीव   ......

बालकांड दोहा 56

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चौपाई :सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥1॥भावार्थ:- सतीजी ने श्री रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामिन्‌! मैंने कु  ......

बालकांड दोहा 57

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चौपाई :तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥एहिं तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥1॥भावार्थ:- तब शिवजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाया और श्री रामजी का स्मरण करते ही उनके मन   ......

बालकांड दोहा 58

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चौपाई :हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहिं बरनी॥कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥1॥भावार्थ:- अपनी करनी को याद करके सतीजी के हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। (उन  ......

बालकांड दोहा 59

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चौपाई :नित नव सोचु सती उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥1॥भावार्थ:- सतीजी के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख समुद्र के पार कब जाऊँगी। मैंने जो श्री रघुनाथ  ......

बालकांड दोहा 60

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चौपाई :एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥1॥भावार्थ:- दक्षसुता सतीजी इस प्रकार बहुत दुःखित थीं, उनको इतना दारुण दुःख था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्तासी हजा  ......

बालकांड दोहा 61

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चौपाई :किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥1॥भावार्थ:- (दक्ष का निमन्त्रण पाकर) किन्नर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व और सब देवता अपनी-अपनी स्त्रियों सहित चले। विष्णु, ब्रह्मा औ  ......

बालकांड दोहा 62

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चौपाई :कहेहु नीक मोरेहूँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥दच्छ सकल निज सुता बोलाईं। हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं॥1॥भावार्थ:- शिवजी ने कहा- तुमने बात तो अच्छी कही, यह मेरे मन को भी पसंद आई पर उन्होंने न्योता नहीं भेजा, यह अनुचित है। दक  ......

बालकांड दोहा 63

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चौपाई :पिता भवन जब गईं भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥1॥भावार्थ:- भवानी जब पिता (दक्ष) के घर पहुँची, तब दक्ष के डर के मारे किसी ने उनकी आवभगत नहीं की, केवल एक माता भले ही आदर से मि  ......

बालकांड दोहा 64

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चौपाई :सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह संकर निंदा॥सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥1॥भावार्थ:- हे सभासदों और सब मुनीश्वरो! सुनो। जिन लोगों ने यहाँ शिवजी की निंदा की या सुनी है, उन सबको उसका फल तुरंत ही मिले  ......

बालकांड दोहा 65

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चौपाई :समाचार सब संकर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए॥जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥1॥भावार्थ:- ये सब समाचार शिवजी को मिले, तब उन्होंने क्रोध करके वीरभद्र को भेजा। उन्होंने वहाँ जाकर यज्ञ विध्वंस कर डाला औ  ......

बालकांड दोहा 66

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चौपाई :सरिता सब पुनीत जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं॥सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिं अनुरागा॥1॥भावार्थ:- सारी नदियों में पवित्र जल बहता है और पक्षी, पशु, भ्रमर सभी सुखी रहते हैं। सब जीवों ने अपना स्वाभाविक बैर छोड  ......

बालकांड दोहा 67

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चौपाई :कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥सुंदर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी॥1॥भावार्थ:- नारद मुनि ने हँसकर रहस्ययुक्त कोमल वाणी से कहा- तुम्हारी कन्या सब गुणों की खान है। यह स्वभाव से ही सुंदर, सुशी  ......

बालकांड दोहा 68

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चौपाई :सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥नारदहूँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥1॥भावार्थ:- नारद मुनि की वाणी सुनकर और उसको हृदय में सत्य जानकर पति-पत्नी (हिमवान्‌ और मैना) को दुःख हुआ और पार्वतीजी प्रसन्  ......

बालकांड दोहा 69

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चौपाई :तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलिहि उमहि तस संसय नाहीं॥1॥भावार्थ:- तो भी एक उपाय मैं बताता हूँ। यदि दैव सहायता करें तो वह सिद्ध हो सकता है। उमा को वर तो निःसंदेह वैसा ही मिलेगा, जैस  ......

बालकांड दोहा 70

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चौपाई :सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥1॥भावार्थ:- गंगा जल से भी बनाई हुई मदिरा को जानकर संत लोग कभी उसका पान नहीं करते। पर वही गंगाजी में मिल जाने पर जैसे पवि  ......

बालकांड दोहा 71

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चौपाई :कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥1॥भावार्थ:- यों कहकर नारद मुनि ब्रह्मलोक को चले गए। अब आगे जो चरित्र हुआ उसे सुनो। पति को एकान्त में पाकर मैना ने कहा- हे नाथ!  ......

बालकांड दोहा 72

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चौपाई :अब जौं तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावनु देहू॥करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटिहि कलेसू॥1॥भावार्थ:- अब यदि तुम्हें कन्या पर प्रेम है, तो जाकर उसे यह शिक्षा दो कि वह ऐसा तप करे, जिससे शिवजी मिल जाएँ। दूसरे उपा  ......

बालकांड दोहा 73

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चौपाई :करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा॥1॥भावार्थ:- हे पार्वती! नारदजी ने जो कहा है, उसे सत्य समझकर तू जाकर तप कर। फिर यह बात तेरे माता-पिता को भी अच्छी लगी है। तप स  ......

बालकांड दोहा 74

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चौपाई :उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥1॥भावार्थ:- प्राणपति (शिवजी) के चरणों को हृदय में धारण करके पार्वतीजी वन में जाकर तप करने लगीं। पार्वतीजी का अत्यन्त स  ......

बालकांड दोहा 75

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चौपाई :अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भए अनेक धीर मुनि ग्यानी॥अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत सुचि जानी॥1॥भावार्थ:- हे भवानी! धीर, मुनि और ज्ञानी बहुत हुए हैं, पर ऐसा (कठोर) तप किसी ने नहीं किया। अब तू इस श्रेष्ठ ब्रह्मा की वाणी क  ......

बालकांड दोहा 76

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चौपाई :कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥1॥भावार्थ:- वे कहीं मुनियों को ज्ञान का उपदेश करते और कहीं श्री रामचन्द्रजी के गुणों का वर्णन करते थे। यद्यपि सुजा  ......

बालकांड दोहा 77

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चौपाई :कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥1॥भावार्थ:- शिवजी ने कहा- यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परन्तु स्वामी की बात भी मेटी नहीं जा सकती। हे नाथ! मेरा यही परम धर्म है कि   ......

बालकांड दोहा 78

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चौपाई :रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमंत तपस्या जैसी॥बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी॥1॥भावार्थ:- ऋषियों ने (वहाँ जाकर) पार्वती को कैसी देखा, मानो मूर्तिमान्‌ तपस्या ही हो। मुनि बोले- हे शैलकुमारी! सुनो, तुम किस  ......

बालकांड दोहा 79

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चौपाई :दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥1॥भावार्थ:- उन्होंने जाकर दक्ष के पुत्रों को उपदेश दिया था, जिससे उन्होंने फिर लौटकर घर का मुँह भी नहीं देखा। चित्रके  ......

बालकांड दोहा 80

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चौपाई :अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥1॥भावार्थ:- अब भी हमारा कहा मानो, हमने तुम्हारे लिए अच्छा वर विचारा है। वह बहुत ही सुंदर, पवित्र, सुखदायक और सुशील है, जि  ......

बालकांड दोहा 81

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चौपाई :जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥अब मैं जन्मु संभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥1॥भावार्थ:- हे मुनीश्वरों! यदि आप पहले मिलते, तो मैं आपका उपदेश सिर-माथे रखकर सुनती, परन्तु अब तो मैं अपना जन्म   ......

बालकांड दोहा 82

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चौपाई :जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई॥1॥भावार्थ:- मुनियों ने जाकर हिमवान्‌ को पार्वतीजी के पास भेजा और वे विनती करके उनको घर ले आए, फिर सप्तर्षियों ने शिवजी   ......

बालकांड दोहा 83

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चौपाई :मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥1॥भावार्थ:- मेरी बात सुनकर उपाय करो। ईश्वर सहायता करेंगे और काम हो जाएगा। सतीजी ने जो दक्ष के यज्ञ में देह का त्याग किया था, उन्हों  ......

बालकांड दोहा 84

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चौपाई :तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥1॥भावार्थ:- तथापि मैं तुम्हारा काम तो करूँगा, क्योंकि वेद दूसरे के उपकार को परम धर्म कहते हैं। जो दूसरे के हित के लिए अपना   ......

बालकांड दोहा 85

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चौपाई :सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाईं। संगम करहिं तलाव तलाईं॥1॥भावार्थ:- सबके हृदय में काम की इच्छा हो गई। लताओं (बेलों) को देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने लगीं। नदियाँ उमड़-उमड़कर समु  ......

बालकांड दोहा 86

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चौपाई :उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ॥सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥1॥भावार्थ:- दो घड़ी तक ऐसा तमाशा हुआ, जब तक कामदेव शिवजी के पास पहुँच गया। शिवजी को देखकर कामदेव डर गया, तब सारा संसार फिर जैसा-क  ......

बालकांड दोहा 87

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चौपाई :देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा॥सुमन चाप निज सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने॥1॥भावार्थ:- आम के वृक्ष की एक सुंदर डाली देखकर मन में क्रोध से भरा हुआ कामदेव उस पर चढ़ गया। उसने पुष्प धनुष पर अपने (पाँचों  ......

बालकांड दोहा 88

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चौपाई :जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥1॥भावार्थ:- जब पृथ्वी के बड़े भारी भार को उतारने के लिए यदुवंश में श्री कृष्ण का अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) क  ......

बालकांड दोहा 89

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चौपाई :यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन॥कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिन्धु यह अति भल कीन्हा॥1॥भावार्थ:- हे कामदेव के मद को चूर करने वाले! आप ऐसा कुछ कीजिए, जिससे सब लोग इस उत्सव को नेत्र भरकर देखें। हे कृपा के   ......

बालकांड दोहा 90

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चौपाई :सुनि बोलीं मुसुकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा॥1॥भावार्थ:-यह सुनकर पार्वतीजी मुस्कुराकर बोलीं- हे विज्ञानी मुनिवरों! आपने उचित ही कहा। आपकी समझ में शिवजी ने कामदे  ......

बालकांड दोहा 91

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चौपाई :सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥1॥भावार्थ:- उन्होंने पर्वतराज हिमाचल को सब हाल सुनाया। कामदेव का भस्म होना सुनकर हिमाचल बहुत दुःखी हुए। फिर मु  ......

बालकांड दोहा 92

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चौपाई :सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥1॥भावार्थ:- शिवजी के गण शिवजी का श्रृंगार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया। शिवजी ने साँपो  ......

बालकांड दोहा 93

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चौपाई :बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥1॥भावार्थ:- हे भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है। क्या पराए नगर में जाकर हँसी कराओगे? विष्णु भगवान की बात सुनकर द  ......

बालकांड दोहा 94

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चौपाई :जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥1॥भावार्थ:- जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बारात बन गई है। मार्ग में चलते हुए भाँति-भाँति के कौतुक (तमाशे) होते जाते हैं। इधर ह  ......

बालकांड दोहा 95

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चौपाई :नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥1॥भावार्थ:- बारात को नगर के निकट आई सुनकर नगर में चहल-पहल मच गई, जिससे उसकी शोभा बढ़ गई। अगवानी करने वाले लोग बनाव-श्रृंगार करके तथा नान  ......

बालकांड दोहा 96

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चौपाई :लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥1॥भावार्थ:- अगवान लोग बारात को लिवा लाए, उन्होंने सबको सुंदर जनवासे ठहरने को दिए। मैना (पार्वतीजी की माता) ने शुभ आरती सजाई और उनके साथ क  ......

बालकांड दोहा 97

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चौपाई :नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा॥1॥भावार्थ:- मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया और जिन्होंने पार्वती को ऐसा उपदेश दिय  ......

बालकांड दोहा 98

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चौपाई :तब नारद सबही समुझावा। पूरुब कथा प्रसंगु सुनावा॥मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥1॥भावार्थ:- तब नारदजी ने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया (और कहा) कि हे मैना! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लड़की साक्षा  ......

बालकांड दोहा 99

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चौपाई :तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥1॥भावार्थ:- तब मैना और हिमवान आनंद में मग्न हो गए और उन्होंने बार-बार पार्वती के चरणों की वंदना की। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा औ  ......

बालकांड दोहा 100

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चौपाई :बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥1॥भावार्थ:- सब देवताओं को आदर सहित बुलवा लिया और सबको यथायोग्य आसन दिए। वेद की रीति से वेदी सजाई गई और स्त्रियाँ सुंदर श्रेष्  ......

बालकांड दोहा 101

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चौपाई :जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥1॥भावार्थ:- वेदों में विवाह की जैसी रीति कही गई है, महामुनियों ने वह सभी रीति करवाई। पर्वतराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर   ......

बालकांड दोहा 102

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चौपाई :बहु बिधि संभु सासु समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥1॥भावार्थ:- शिवजी ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। तब वे शिवजी के चरणों में सिर नवाकर घर गईं। फिर माता ने पार्वती को बुला ल  ......

बालकांड दोहा 103

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चौपाई :तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥1॥भावार्थ:- पर्वतराज हिमाचल तुरंत घर आए और उन्होंने सब पर्वतों और सरोवरों को बुलाया। हिमवान ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सबक  ......

बालकांड दोहा 104

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चौपाई :संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुखु पावा॥बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥1॥भावार्थ:- शिवजी के रसीले और सुहावने चरित्र को सुनकर मुनि भरद्वाजजी ने बहुत ही सुख पाया। कथा सुनने की उनकी लालसा बह  ......

बालकांड दोहा 105

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चौपाई :मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥1॥भावार्थ:- मैंने तुम्हारा गुण और शील जान लिया। अब मैं श्री रघुनाथजी की लीला कहता हूँ, सुनो। हे मुनि! सुनो, आज तुम्हार  ......

बालकांड दोहा 106

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चौपाई :हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥1॥भावार्थ:- जो भगवान विष्णु और महादेवजी से विमुख हैं और जिनकी धर्म में प्रीति नहीं है, वे लोग स्वप्न में भी वहाँ नह  ......

बालकांड दोहा 107

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चौपाई :बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥पारबती भल अवसरु जानी। गईं संभु पहिं मातु भवानी॥1॥भावार्थ:- कामदेव के शत्रु शिवजी वहाँ बैठे हुए ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो शांतरस ही शरीर धारण किए बैठा हो। अच्छा मौका जानकर शिव  ......

बालकांड दोहा 108

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चौपाई :जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥तौ प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥1॥भावार्थ:- हे सुख की राशि ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और सचमुच मुझे अपनी दासी (या अपनी सच्ची दासी) जानते हैं, तो हे प्रभो! आ  ......

बालकांड दोहा 109

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चौपाई :जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥1॥भावार्थ:- यदि इच्छारहित, व्यापक, समर्थ ब्रह्म कोई और हैं, तो हे नाथ! मुझे उसे समझाकर कहिए। मुझे नादान समझकर मन में क्रो  ......

बालकांड दोहा 110

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चौपाई :जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥1॥भावार्थ:- यद्यपि स्त्री होने के कारण मैं उसे सुनने की अधिकारिणी नहीं हूँ, तथापि मैं मन, वचन और कर्म से आपकी दासी हूँ।  ......

बालकांड दोहा 111

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चौपाई :पुनि प्रभु कहहु सो तत्त्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥1॥भावार्थ:- हे प्रभु! फिर आप उस तत्त्व को समझाकर कहिए, जिसकी अनुभूति में ज्ञानी मुनिगण सदा मग्न रहते हैं औ  ......

बालकांड दोहा 112

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चौपाई :झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥भावार्थ:- जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है और जिसके जान ल  ......

बालकांड दोहा 113

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चौपाई :तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥1॥भावार्थ:- फिर भी तुमने इसीलिए वही (पुरानी) शंका की है कि इस प्रसंग के कहने-सुनने से सबका कल्याण होगा। जिन्होंने अपने का  ......

बालकांड दोहा 114

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चौपाई :रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी॥रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥1॥भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी की कथा हाथ की सुंदर ताली है, जो संदेह रूपी पक्षियों को उड़ा देती है। फिर रामकथा कलियुग रूपी वृक्ष को क  ......

बालकांड दोहा 115

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चौपाई :अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकुर मन लागी॥लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥1॥भावार्थ:- जो अज्ञानी, मूर्ख, अंधे और भाग्यहीन हैं और जिनके मन रूपी दर्पण पर विषय रूपी काई जमी हुई है, जो व्यभिचारी, छली और बड़े क  ......

बालकांड दोहा 116

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चौपाई :सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥1॥भावार्थ:- सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है- मुनि, पुराण, पण्डित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अ  ......

बालकांड दोहा 117

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चौपाई :निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥1॥भावार्थ:- अज्ञानी मनुष्य अपने भ्रम को तो समझते नहीं और वे मूर्ख प्रभु श्री रामचन्द्रजी पर उसका आरोप करते हैं,   ......

बालकांड दोहा 118

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चौपाई :एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥1॥भावार्थ:- इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर क  ......

बालकांड दोहा 119

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चौपाई :कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥1॥भावार्थ:- (हे पार्वती !) जिनके नाम के बल से काशी में मरते हुए प्राणी को देखकर मैं उसे (राम मंत्र देकर) शोकरहित कर देता हूँ (मुक्त   ......

बालकांड दोहा 120

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चौपाई :ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ॥1॥भावार्थ:- आपकी चन्द्रमा की किरणों के समान शीतल वाणी सुनकर मेरा अज्ञान रूपी शरद-ऋतु (क्वार) की धूप का भारी ताप मिट गया।   ......

बालकांड दोहा 121

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चौपाई :सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥1॥भावार्थ:- हे पार्वती! सुनो, वेद-शास्त्रों ने श्री हरि के सुंदर, विस्तृत और निर्मल चरित्रों का गान किया है। हरि का अवतार जिस   ......

बालकांड दोहा 122

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चौपाई :सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥1॥भावार्थ:- उसी यश को गा-गाकर भक्तजन भवसागर से तर जाते हैं। कृपासागर भगवान भक्तों के हित के लिए शरीर धारण करते हैं। श्री रामचन्  ......

बालकांड दोहा 123

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चौपाई :मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥1॥भावार्थ:- भगवान के द्वारा मारे जाने पर भी वे (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) इसीलिए मुक्त नहीं हुए कि ब्राह्मण के वचन (शाप) का प्  ......

बालकांड दोहा 124

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चौपाई :तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥1॥भावार्थ:- लीलाओं के भंडार कृपालु हरि ने उस स्त्री के शाप को प्रामाण्य दिया (स्वीकार किया)। वही जलन्धर उस कल्प में रावण हुआ, जि  ......

बालकांड दोहा 125

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चौपाई :हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥1॥भावार्थ:- हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उसके समीप ही सुंदर गंगाजी बहती थीं। वह परम पवित्र सुंदर आश्रम देखने पर   ......

बालकांड दोहा 126

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चौपाई :तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा॥1॥भावार्थ:- जब कामदेव उस आश्रम में गया, तब उसने अपनी माया से वहाँ वसन्त ऋतु को उत्पन्न किया। तरह-तरह के वृक्षों पर रंग-ब  ......

बालकांड दोहा 127

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चौपाई :भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥1॥भावार्थ:- नारदजी के मन में कुछ भी क्रोध न आया। उन्होंने प्रिय वचन कहकर कामदेव का समाधान किया। तब मुनि के चरणों में सिर नवाकर और उन  ......

बालकांड दोहा 128

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चौपाई :राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥1॥भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी जो करना चाहते हैं, वही होता है, ऐसा कोई नहीं जो उसके विरुद्ध कर सके। श्री शिवजी के वचन नारदजी के म  ......

बालकांड दोहा 129

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चौपाई :सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥1॥भावार्थ:- हे मुनि! सुनिए, मोह तो उसके मन में होता है, जिसके हृदय में ज्ञान-वैराग्य नहीं है। आप तो ब्रह्मचर्यव्रत   ......

बालकांड दोहा 130

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चौपाई :बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥1॥भावार्थ:- उस नगर में ऐसे सुंदर नर-नारी बसते थे, मानो बहुत से कामदेव और (उसकी स्त्री) रति ही मनुष्य शरीर धारण किए हुए हों। उस  ......

बालकांड दोहा 131

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चौपाई :देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥1॥भावार्थ:- उसके रूप को देखकर मुनि वैराग्य भूल गए और बड़ी देर तक उसकी ओर देखते ही रह गए। उसके लक्षण देखकर मुनि अपने आपको   ......

बालकांड दोहा 132

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चौपाई :हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥1॥भावार्थ:- (एक काम करूँ कि) भगवान से सुंदरता माँगूँ, पर भाई! उनके पास जाने में तो बहुत देर हो जाएगी, किन्तु श्री हरि के समान मेरा हित  ......

बालकांड दोहा 133

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चौपाई :कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥1॥भावार्थ:- हे योगी मुनि! सुनिए, रोग से व्याकुल रोगी कुपथ्य माँगे तो वैद्य उसे नहीं देता। इसी प्रकार मैंने भी तुम्हा  ......

बालकांड दोहा 134

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चौपाई :जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥तहँ बैठे महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥1॥भावार्थ:- नारदजी अपने हृदय में रूप का बड़ा अभिमान लेकर जिस समाज (पंक्ति) में जाकर बैठे थे, ये शिवजी के दोनों गण भी वहीं बैठ गए। ब्र  ......

बालकांड दोहा 135

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चौपाई :जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेहिं न बिलोकी भूली॥पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसुकाहीं॥1॥भावार्थ:- जिस ओर नारदजी (रूप के गर्व में) फूले बैठे थे, उस ओर उसने भूलकर भी नहीं ताका। नारद मुनि बार-बार उचकते और   ......

बालकांड दोहा 136

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चौपाई :पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं॥1॥भावार्थ:- मुनि ने फिर जल में देखा, तो उन्हें अपना (असली) रूप प्राप्त हो गया, तब भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। उनके होठ फड़क रहे थे और मन   ......

बालकांड दोहा 137

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चौपाई :परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥1॥भावार्थ:- तुम परम स्वतंत्र हो, सिर पर तो कोई है नहीं, इससे जब जो मन को भाता है, (स्वच्छन्दता से) वही करते हो। भले को बुरा और   ......

बालकांड दोहा 138

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चौपाई :जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥1॥भावार्थ:- जब भगवान ने अपनी माया को हटा लिया, तब वहाँ न लक्ष्मी ही रह गईं, न राजकुमारी ही। तब मुनि ने अत्यन्त भयभीत होकर श्र  ......

बालकांड दोहा 139

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चौपाई :हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगत मोह मन हरष बिसेषी॥अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुहाए॥1॥भावार्थ:- शिवजी के गणों ने जब मुनि को मोहरहित और मन में बहुत प्रसन्न होकर मार्ग में जाते हुए देखा तब वे अत्यन्त भयभीत होकर नारदजी क  ......

बालकांड दोहा 140

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चौपाई :एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥1॥भावार्थ:- इस प्रकार भगवान के अनेक सुंदर, सुखदायक और अलौकिक जन्म और कर्म हैं। प्रत्येक कल्प में जब-जब भगवान अवतार ल  ......

बालकांड दोहा 141

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चौपाई :अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥1॥भावार्थ:- हे गिरिराजकुमारी! अब भगवान के अवतार का वह दूसरा कारण सुनो- मैं उसकी विचित्र कथा विस्तार करके कहता हूँ- जिस कार  ......

बालकांड दोहा 142

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चौपाई :स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥1॥भावार्थ:- स्वायम्भुव मनु और (उनकी पत्नी) शतरूपा, जिनसे मनुष्यों की यह अनुपम सृष्टि हुई, इन दोनों पति-पत्नी के धर्म औ  ......

बालकांड दोहा 143

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चौपाई :बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥1॥भावार्थ:- तब मनुजी ने अपने पुत्र को जबर्दस्ती राज्य देकर स्वयं स्त्री सहित वन को गमन किया। अत्यन्त पवित्र और साधकों को सि  ......

बालकांड दोहा 144

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चौपाई :करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥1॥भावार्थ:- वे साग, फल और कन्द का आहार करते थे और सच्चिदानंद ब्रह्म का स्मरण करते थे। फिर वे श्री हरि के लिए तप करने लगे औ  ......

बालकांड दोहा 145

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चौपाई :बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥1॥भावार्थ:- दस हजार वर्ष तक उन्होंने वायु का आधार भी छोड़ दिया। दोनों एक पैर से खड़े रहे। उनका अपार तप देखकर ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी कई ब  ......

बालकांड दोहा 146

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चौपाई :सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥सेवत सुलभ सकल सुखदायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥1॥भावार्थ:- हे प्रभो! सुनिए, आप सेवकों के लिए कल्पवृक्ष और कामधेनु हैं। आपके चरण रज की ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी भी वंदना करते ह  ......

बालकांड दोहा 147

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चौपाई :सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥1॥भावार्थ:- उनका मुख शरद (पूर्णिमा) के चन्द्रमा के समान छबि की सीमास्वरूप था। गाल और ठोड़ी बहुत सुंदर थे, गला शंख के समान (त्रि  ......

बालकांड दोहा 148

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चौपाई :पद राजीव बरनि नहिं जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥1॥भावार्थ:- जिनमें मुनियों के मन रूपी भौंरे बसते हैं, भगवान के उन चरणकमलों का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। भगवान के ब  ......

बालकांड दोहा 149

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चौपाई :सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥1॥भावार्थ:- प्रभु के वचन सुनकर, दोनों हाथ जोड़कर और धीरज धरकर राजा ने कोमल वाणी कही- हे नाथ! आपके चरणकमलों को देखकर अब हमारी स  ......

बालकांड दोहा 150

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चौपाई :देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥1॥भावार्थ:- राजा की प्रीति देखकर और उनके अमूल्य वचन सुनकर करुणानिधान भगवान बोले- ऐसा ही हो। हे राजन्‌! मैं अपने समान (दूसरा) कहा  ......

बालकांड दोहा 151

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चौपाई :सुनि मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥जो कछु रुचि तुम्हरे मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥1॥भावार्थ:- (रानी की) कोमल, गूढ़ और मनोहर श्रेष्ठ वाक्य रचना सुनकर कृपा के समुद्र भगवान कोमल वचन बोले- तुम्हारे मन   ......

बालकांड दोहा 152

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चौपाई :इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारें॥अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥1॥भावार्थ:- इच्छानिर्मित मनुष्य रूप सजकर मैं तुम्हारे घर प्रकट होऊँगा। हे तात! मैं अपने अंशों सहित देह धारण करके भक्त  ......

बालकांड दोहा 153

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चौपाई :सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी॥बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥1॥भावार्थ:- हे मुनि! वह पवित्र और प्राचीन कथा सुनो, जो शिवजी ने पार्वती से कही थी। संसार में प्रसिद्ध एक कैकय देश है। वह  ......

बालकांड दोहा 154

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चौपाई :नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥1॥भावार्थ:- राजा का हित करने वाला और शुक्राचार्य के समान बुद्धिमान धर्मरुचि नामक उसका मंत्री था। इस प्रकार बुद्धिमान मंत्री औ  ......

बालकांड दोहा 155

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चौपाई :भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी॥1॥भावार्थ:- राजा प्रतापभानु का बल पाकर भूमि सुंदर कामधेनु (मनचाही वस्तु देने वाली) हो गई। (उनके राज्य में) प्रजा सब (प्रकार के) दुःख  ......

बालकांड दोहा 156

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चौपाई :हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥1॥भावार्थ:- (राजा के) हृदय में किसी फल की टोह (कामना) न थी। राजा बड़ा ही बुद्धिमान और ज्ञानी था। वह ज्ञानी राजा कर्म, मन और वाणी से   ......

बालकांड दोहा 157

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चौपाई :आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥1॥भावार्थ:- अधिक शब्द करते हुए घोड़े को (अपनी तरफ) आता देखकर सूअर पवन वेग से भाग चला। राजा ने तुरंत ही बाण को धनुष पर चढ़ाया। सूअर   ......

बालकांड दोहा 158

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चौपाई :फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥1॥भावार्थ:- वन में फिरते-फिरते उसने एक आश्रम देखा, वहाँ कपट से मुनि का वेष बनाए एक राजा रहता था, जिसका देश राजा प्रतापभानु ने   ......

बालकांड दोहा 159

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चौपाई :गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥1॥भावार्थ:- सारी थकावट मिट गई, राजा सुखी हो गया। तब तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया और सूर्यास्त का समय जानकर उसने (राजा को बैठ  ......

बालकांड दोहा 160

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चौपाई :भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥1॥भावार्थ:- हे नाथ! बहुत अच्छा, ऐसा कहकर और उसकी आज्ञा सिर चढ़ाकर, घोड़े को वृक्ष से बाँधकर राजा बैठ गया। राजा ने उसकी बहु  ......

बालकांड दोहा 161

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चौपाई :कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥सदा रहहिं अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥1॥भावार्थ:- राजा ने कहा- जो आपके सदृश विज्ञान के निधान और सर्वथा अभिमानरहित होते हैं, वे अपने स्वरूप को सदा छिपाए रहते हैं  ......

बालकांड दोहा 162

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चौपाई :तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥प्रभु जानत सब बिनहिं जनाए। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥1॥भावार्थ:- (कपट-तपस्वी ने कहा-) इसी से मैं जगत में छिपकर रहता हूँ। श्री हरि को छोड़कर किसी से कुछ भी प्रयोजन नहीं रखत  ......

बालकांड दोहा 163

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चौपाई :जनि आचरजु करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥तप बल तें जग सृजइ बिधाता। तप बल बिष्नु भए परित्राता॥1॥भावार्थ:- हे पुत्र! मन में आश्चर्य मत करो, तप से कुछ भी दुर्लभ नहीं है, तप के बल से ब्रह्मा जगत को रचते हैं। तप के ही बल से   ......

बालकांड दोहा 164

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चौपाई :नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥1॥भावार्थ:- तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन्‌! गुरु की कृपा से मैं सब जानता हूँ, पर अपन  ......

बालकांड दोहा 165

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चौपाई :कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥1॥भावार्थ:- तपस्वी ने कहा- हे राजन्‌! ऐसा ही हो, पर एक बात कठिन है, उसे भी सुन लो। हे पृथ्वी के स्वामी! केवल ब्राह्मण कुल को छोड़ काल भी तुम  ......

बालकांड दोहा 166

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चौपाई :तातें मैं तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा॥छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥1॥भावार्थ:- हे राजन्‌! मैं तुमको इसलिए मना करता हूँ कि इस प्रसंग को कहने से तुम्हारी बड़ी हानि होगी। छठे कान में यह बात पड़ते ही   ......

बालकांड दोहा 167

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चौपाई :सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परन्तु एक कठिनाई॥1॥भावार्थ:- (तपस्वी ने कहा-) हे राजन्‌ !सुनो, संसार में उपाय तो बहुत हैं, पर वे कष्ट साध्य हैं (बड़ी कठिनता से बनने में आते हैं  ......

बालकांड दोहा 168

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चौपाई :जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥1॥भावार्थ:- राजा को अपने अधीन जानकर कपट में प्रवीण तपस्वी बोला- हे राजन्‌! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, जगत में मुझे कुछ भी दुर  ......

बालकांड दोहा 169

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चौपाई :एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥करिहहिं बिप्र होममख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥1॥भावार्थ:- हे राजन्‌! इस प्रकार बहुत ही थोड़े परिश्रम से सब ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जाएँगे। ब्राह्मण हवन, य  ......

बालकांड दोहा 170

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चौपाई :सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥1॥भावार्थ:- राजा ने आज्ञा मानकर शयन किया और वह कपट-ज्ञानी आसन पर जा बैठा। राजा थका था, (उसे) खूब (गहरी) नींद आ गई। पर वह कपटी कैसे सोत  ......

बालकांड दोहा 171

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चौपाई :तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥1॥भावार्थ:- तपस्वी राजा अपने मित्र को देख प्रसन्न हो उठकर मिला और सुखी हुआ। उसने मित्र को सब कथा कह सुनाई, तब राक्षस आनंदित ह  ......

बालकांड दोहा 172

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चौपाई :आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥1॥भावार्थ:- वह आप पुरोहित का रूप बनाकर उसकी सुंदर सेज पर जा लेटा। राजा सबेरा होने से पहले ही जागा और अपना घर देखकर उसने बड़ा ही आश  ......

बालकांड दोहा 173

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चौपाई :उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥मायामय तेहिं कीन्हि रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥1॥भावार्थ:- पुरोहित ने छह रस और चार प्रकार के भोजन, जैसा कि वेदों में वर्णन है, बनाए। उसने मायामयी रसोई तैयार की और इतने व्यं  ......

बालकांड दोहा 174

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चौपाई :छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥ईश्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥1॥भावार्थ:- रे नीच क्षत्रिय! तूने तो परिवार सहित ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें नष्ट करना चाहा था, ईश्वर ने हमारे धर्म की रक्षा की। अ  ......

बालकांड दोहा 175

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चौपाई :अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिरचत हंस काग किए जेहीं॥1॥भावार्थ:-ऐसा कहकर सब ब्राह्मण चले गए। नगरवासियों ने (जब) यह समाचार पाया, तो वे चिन्ता करने और विधाता को दोष देने लगे, जिसने हंस ब  ......

बालकांड दोहा 176

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चौपाई:काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥1॥भावार्थ:- हे मुनि! सुनो, समय पाकर वही राजा परिवार सहित रावण नामक राक्षस हुआ। उसके दस सिर और बीस भुजाएँ थीं और वह बड़ा ही प्रचण्ड   ......

बालकांड दोहा 177

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चौपाई :कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥1॥भावार्थ:- तीनों भाइयों ने अनेकों प्रकार की बड़ी ही कठिन तपस्या की, जिसका वर्णन नहीं हो सकता। (उनका उग्र) तप देखकर ब्रह्  ......

बालकांड दोहा 178

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चौपाई :तिन्हहि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥1॥भावार्थ:- उनको वर देकर ब्रह्माजी चले गए और वे (तीनों भाई) हर्षित हेकर अपने घर लौट आए। मय दानव की मंदोदरी नाम की कन्या परम सुंदरी  ......

बालकांड दोहा 179

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चौपाई :रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे॥अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥1॥भावार्थ:- (पहले) वहाँ बड़े-बड़े योद्धा राक्षस रहते थे। देवताओं ने उन सबको युद्द में मार डाला। अब इंद्र की प्रेरणा से वहाँ क  ......

बालकांड दोहा 180

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चौपाई :सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई॥नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥1॥भावार्थ:- सुख, सम्पत्ति, पुत्र, सेना, सहायक, जय, प्रताप, बल, बुद्धि और बड़ाई- ये सब उसके नित्य नए (वैसे ही) बढ़ते जाते थे, जैसे प्रत्ये  ......

बालकांड दोहा 181

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चौपाई :कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥1॥भावार्थ:- सभी राक्षस मनमाना रूप बना सकते थे और (आसुरी) माया जानते थे। उनके दया-धर्म स्वप्न में भी नहीं था। एक बार सभा में बैठ  ......

बालकांड दोहा 182

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चौपाई :मेघनाद कहूँ पुनि हँकरावा। दीन्हीं सिख बलु बयरु बढ़ावा॥जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥1॥भावार्थ:- फिर उसने मेघनाद को बुलवाया और सिखा-पढ़ाकर उसके बल और देवताओं के प्रति बैरभाव को उत्तेजना दी। (फिर कहा-) हे पुत  ......

बालकांड दोहा 183

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चौपाई :इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥1॥भावार्थ:- मेघनाद से उसने जो कुछ कहा, उसे उसने (मेघनाद ने) मानो पहले से ही कर रखा था (अर्थात्‌ रावण के कहने भर  ......

बालकांड दोहा 184

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चौपाई :बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥1॥भावार्थ:- पराए धन और पराई स्त्री पर मन चलाने वाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़ गए। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे और   ......

बालकांड दोहा 185

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चौपाई :बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥1॥भावार्थ:- सब देवता बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कहाँ पावें ताकि उनके सामने पुकार (फरियाद) करें। कोई बैकुंठपुरी जान  ......

बालकांड दोहा 186

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छन्द :जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता॥पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥1॥भावार्थ:- हे देवताओं के स्वामी, सेवकों को सुख देन  ......

बालकांड दोहा 187

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चौपाई :जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥1॥भावार्थ:- हे मुनि, सिद्ध और देवताओं के स्वामियों! डरो मत। तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का रूप धारण करूँगा और उदार (पवित्र)  ......

बालकांड दोहा 188

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चौपाई :गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा॥जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा॥1॥भावार्थ:- सब देवता अपने-अपने लोक को गए। पृथ्वी सहित सबके मन को शांति मिली। ब्रह्माजी ने जो कुछ आज्ञा दी, उससे देवता बहु  ......

बालकांड दोहा 189

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चौपाई :एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥1॥भावार्थ:- एक बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है। राजा तुरंत ही गुरु के घर गए और चरणों में प्रणाम कर बहुत   ......

बालकांड दोहा 190

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चौपाई :तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आईं॥अर्ध भाग कौसल्यहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥1॥भावार्थ:- उसी समय राजा ने अपनी प्यारी पत्नियों को बुलाया। कौसल्या आदि सब (रानियाँ) वहाँ चली आईं। राजा ने (पायस का) आधा भा  ......

बालकांड दोहा 191

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चौपाई :नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥1॥भावार्थ:- पवित्र चैत्र का महीना था, नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित्‌ मुहूर्त था। दोपहर का समय था। न बह  ......

बालकांड दोहा 192

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छन्द :भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥1॥भावार्थ:- दीनों पर दया करने वाले, कौसल्याजी के हि  ......

बालकांड दोहा 193

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चौपाई :सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आईं सब रानी॥हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥1॥भावार्थ:-बच्चे के रोने की बहुत ही प्यारी ध्वनि सुनकर सब रानियाँ उतावली होकर दौड़ी चली आईं। दासियाँ हर्षित होकर जहाँ-तहाँ   ......

बालकांड दोहा 194

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चौपाई :ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥1॥भावार्थ:- ध्वजा, पताका और तोरणों से नगर छा गया। जिस प्रकार से वह सजाया गया, उसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता। आकाश से फूलों की व  ......

बालकांड दोहा 195

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चौपाई :कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥1॥भावार्थ:-कैकेयी और सुमित्रा- इन दोनों ने भी सुंदर पुत्रों को जन्म दिया। उस सुख, सम्पत्ति, समय और समाज का वर्णन सरस्वती और सर्पों क  ......

बालकांड दोहा 196

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चौपाई :यह रहस्य काहूँ नहिं जाना। दिनमनि चले करत गुनगाना॥देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥1॥भावार्थ:- यह रहस्य किसी ने नहीं जाना। सूर्यदेव (भगवान श्री रामजी का) गुणगान करते हुए चले। यह महोत्सव देखकर देवता, मुनि और न  ......

बालकांड दोहा 197

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चौपाई :कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥1॥भावार्थ:-इस प्रकार कुछ दिन बीत गए। दिन और रात जाते हुए जान नहीं पड़ते। तब नामकरण संस्कार का समय जानकर राजा ने ज्ञानी मुनि श्र  ......

बालकांड दोहा 198

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चौपाई :धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥1॥भावार्थ:- गुरुजी ने हृदय में विचार कर ये नाम रखे (और कहा-) हे राजन्‌! तुम्हारे चारों पुत्र वेद के तत्त्व (साक्षात्‌ परा  ......

बालकांड दोहा 199

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चौपाई :काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा॥नअरुन चरन पंकज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥1॥भावार्थ:- उनके नीलकमल और गंभीर (जल से भरे हुए) मेघ के समान श्याम शरीर में करोड़ों कामदेवों की शोभा है। लाल-लाल चरण कमलों के नखों   ......

बालकांड दोहा 200

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चौपाई :एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥1॥भावार्थ:- इस प्रकार (सम्पूर्ण) जगत के माता-पिता श्री रामजी अवधपुर के निवासियों को सुख देते हैं, जिन्होंने श्री राम  ......

बालकांड दोहा 201

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चौपाई :एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए॥निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥1॥भावार्थ:- एक बार माता ने श्री रामचन्द्रजी को स्नान कराया और श्रृंगार करके पालने पर पौढ़ा दिया। फिर अपने कुल के इष्टदेव भगवान की  ......

बालकांड दोहा 202

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चौपाई :अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥1॥भावार्थ:- अगणित सूर्य, चन्द्रमा, शिव, ब्रह्मा, बहुत से पर्वत, नदियाँ, समुद्र, पृथ्वी, वन, काल, कर्म, गुण, ज्ञान और स्वभाव द  ......

बालकांड दोहा 203

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चौपाई :बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा॥कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥1॥भावार्थ:- भगवान ने बहुत प्रकार से बाललीलाएँ कीं और अपने सेवकों को अत्यन्त आनंद दिया। कुछ समय बीतने पर चारों भाई बड़े होकर क  ......

बालकांड दोहा 204

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चौपाई :बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥1॥भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी की बहुत ही सरल (भोली) और सुंदर (मनभावनी) बाललीलाओं का सरस्वती, शेषजी, शिवजी और वेदों ने गान किय  ......

बालकांड दोहा 205

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चौपाई :बंधु सखा सँग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥1॥भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी भाइयों और इष्ट मित्रों को बुलाकर साथ ले लेते हैं और नित्य वन में जाकर शिकार खेलते हैं।   ......

बालकांड दोहा 206

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चौपाई :यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥1॥भावार्थ:- यह सब चरित्र मैंने गाकर (बखानकर) कहा। अब आगे की कथा मन लगाकर सुनो। ज्ञानी महामुनि विश्वामित्रजी वन में शुभ आश  ......

बालकांड दोहा 207

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चौपाई :मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र समाजा॥करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥1॥भावार्थ:- राजा ने जब मुनि का आना सुना, तब वे ब्राह्मणों के समाज को साथ लेकर मिलने गए और दण्डवत्‌ करके मुनि का सम्मान करते हुए उ  ......

बालकांड दोहा 208

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चौपाई :सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥1॥भावार्थ:- इस अत्यन्त अप्रिय वाणी को सुनकर राजा का हृदय काँप उठा और उनके मुख की कांति फीकी पड़ गई। (उन्होंने कहा-) हे ब  ......

बालकांड दोहा 209

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चौपाई :अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥1॥भावार्थ:- भगवान के लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं, नील कमल और तमाल के वृक्ष की तरह श्याम शरीर है, कमर में पीताम  ......

बालकांड दोहा 210

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चौपाई :प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥1॥भावार्थ:- सबेरे श्री रघुनाथजी ने मुनि से कहा- आप जाकर निडर होकर यज्ञ कीजिए। यह सुनकर सब मुनि हवन करने लगे। आप (श्री रामजी) यज  ......

बालकांड दोहा 211

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छन्द :परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुंज सही।देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥1॥भावार्थ:- श्री रामजी के पवित्र और शोक क  ......

बालकांड दोहा 212

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चौपाई :चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा॥गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥1॥भावार्थ:- श्री रामजी और लक्ष्मणजी मुनि के साथ चले। वे वहाँ गए, जहाँ जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी थीं। महाराज गाधि के पुत्र व  ......

बालकांड दोहा 213

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चौपाई :बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥1॥भावार्थ:- नगर की सुंदरता का वर्णन करते नहीं बनता। मन जहाँ जाता है, वहीं लुभा जाता (रम जाता) है। सुंदर बाजार है, मणियों से ब  ......

बालकांड दोहा 214

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चौपाई :सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रख संकुल सब काला॥1॥भावार्थ:- राजमहल के सब दरवाजे (फाटक) सुंदर हैं, जिनमें वज्र के (मजबूत अथवा हीरों के चमकते हुए) किवाड़ लगे हैं। वहाँ (मातहत) राजाओं, न  ......

बालकांड दोहा 215

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चौपाई :कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥1॥भावार्थ:- राजा ने मुनि के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी ने प्रसन्न होकर आशीर्वा  ......

बालकांड दोहा 216

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चौपाई :कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥1॥भावार्थ:- हे नाथ! कहिए, ये दोनों सुंदर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? अथवा जिसका वेदों ने ‘नेति’ कह  ......

बालकांड दोहा 217

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चौपाई :मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ॥सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥1॥भावार्थ:- राजा ने कहा- हे मुनि! आपके चरणों के दर्शन कर मैं अपना पुण्य प्रभाव कह नहीं सकता। ये सुंदर श्याम और गौर वर्ण के दोन  ......

बालकांड दोहा 218

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चौपाई :लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥1॥भावार्थ:- लक्ष्मणजी के हृदय में विशेष लालसा है कि जाकर जनकपुर देख आवें, परन्तु प्रभु श्री रामचन्द्रजी का डर है और  ......

बालकांड दोहा 219

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चौपाई :मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता॥बालक बृंद देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा॥1॥भावार्थ:- सब लोकों के नेत्रों को सुख देने वाले दोनों भाई मुनि के चरणकमलों की वंदना करके चले। बालकों के झुंड इन (के सौंदर्य) की   ......

बालकांड दोहा 220

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चौपाई :देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥धाए धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रंक निधि लूटन लागी॥1॥भावार्थ:- जब पुरवासियों ने यह समाचार पाया कि दोनों राजकुमार नगर देखने के लिए आए हैं, तब वे सब घर-बार और सब काम-काज छोड़कर ऐसे दौड़े मा  ......

बालकांड दोहा 221

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चौपाई :कहहु सखी अस को तनु धारी। जो न मोह यह रूप निहारी॥कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥1॥भावार्थ:- हे सखी! (भला) कहो तो ऐसा कौन शरीरधारी होगा, जो इस रूप को देखकर मोहित न हो जाए (अर्थात यह रूप जड़-चेतन सबको मोहित करने   ......

बालकांड दोहा 222

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चौपाई :देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥जौं सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥1॥भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर कोई एक (दूसरी सखी) कहने लगी- यह वर जानकी के योग्य है। हे सखी! यदि कहीं राजा इन्हें दे  ......

बालकांड दोहा 223

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चौपाई :बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबही का।कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदु गात किसोरा॥1॥भावार्थ:- दूसरी ने कहा- हे सखी! तुमने बहुत अच्छा कहा। इस विवाह से सभी का परम हित है। किसी ने कहा- शंकरजी का धनुष कठोर है और ये स  ......

बालकांड दोहा 224

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चौपाई :पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥1॥भावार्थ:- दोनों भाई नगर के पूरब ओर गए, जहाँ धनुषयज्ञ के लिए (रंग) भूमि बनाई गई थी। बहुत लंबा-चौड़ा सुंदर ढाला हुआ पक्का आँगन   ......

बालकांड दोहा 225

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चौपाई :सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने॥निज निज रुचि सब लेहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥1॥भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी ने सब बालकों को प्रेम के वश जानकर (यज्ञभूमि के) स्थानों की प्रेमपूर्वक प्रशंसा की। (इससे बा  ......

बालकांड दोहा 226

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चौपाई :निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा॥कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥1॥भावार्थ:- रात्रि का प्रवेश होते ही (संध्या के समय) मुनि ने आज्ञा दी, तब सबने संध्यावंदन किया। फिर प्राचीन कथाएँ तथा   ......

बालकांड दोहा 227

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चौपाई :सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥1॥भावार्थ:- सब शौचक्रिया करके वे जाकर नहाए। फिर (संध्या-अग्निहोत्रादि) नित्यकर्म समाप्त करके उन्होंने मुनि को मस्तक नवाया। (पू  ......

बालकांड दोहा 228

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चौपाई :चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालीगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥1॥भावार्थ:- चारों ओर दृष्टि डालकर और मालियों से पूछकर वे प्रसन्न मन से पत्र-पुष्प लेने लगे। उसी समय सीताजी वहाँ आईं। माता ने उ  ......

बालकांड दोहा 229

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चौपाई :देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए॥स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥1॥भावार्थ:- (उसने कहा-) दो राजकुमार बाग देखने आए हैं। किशोर अवस्था के हैं और सब प्रकार से सुंदर हैं। वे साँवले और गोरे (रंग के) ह  ......

बालकांड दोहा 230

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चौपाई :कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥1॥भावार्थ:- कंकण (हाथों के कड़े), करधनी और पायजेब के शब्द सुनकर श्री रामचन्द्रजी हृदय में विचार कर लक्ष्मण से कहत  ......

बालकांड दोहा 231

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चौपाई :तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥1॥भावार्थ:- हे तात! यह वही जनकजी की कन्या है, जिसके लिए धनुषयज्ञ हो रहा है। सखियाँ इसे गौरी पूजन के लिए ले आई हैं। यह फुलवाड़ी में प्रक  ......

बालकांड दोहा 232

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चौपाई :चितवति चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृप किसोर मनु चिंता॥जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥1॥भावार्थ:- सीताजी चकित होकर चारों ओर देख रही हैं। मन इस बात की चिन्ता कर रहा है कि राजकुमार कहाँ चले गए। बाल मृगनयनी  ......

बालकांड दोहा 233

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चौपाई :सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥1॥भावार्थ:- दोनों सुंदर भाई शोभा की सीमा हैं। उनके शरीर की आभा नीले और पीले कमल की सी है। सिर पर सुंदर मोरपंख सुशोभित हैं। उनके बीच  ......

बालकांड दोहा 234

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चौपाई :धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥1॥भावार्थ:- एक चतुर सखी धीरज धरकर, हाथ पकड़कर सीताजी से बोली- गिरिजाजी का ध्यान फिर कर लेना, इस समय राजकुमार को क्यों नहीं देख लेत  ......

बालकांड दोहा 235

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चौपाई :जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥1॥भावार्थ:- शिवजी के धनुष को कठोर जानकर वे विसूरती (मन में विलाप करती) हुई हृदय में श्री रामजी की साँवली मूर्ति को रखकर चलीं।   ......

बालकांड दोहा 236

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चौपाई :सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥1॥भावार्थ:- हे (भक्तों को मुँहमाँगा) वर देने वाली! हे त्रिपुर के शत्रु शिवजी की प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ   ......

बालकांड दोहा 237

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चौपाई :हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥1॥भावार्थ:- हृदय में सीताजी के सौंदर्य की सराहना करते हुए दोनों भाई गुरुजी के पास गए। श्री रामचन्द्रजी ने विश्वामित्र से सब कुछ क  ......

बालकांड दोहा 238

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चौपाई :घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥कोक सोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥1॥भावार्थ:- फिर यह घटता-बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियों को दुःख देने वाला है, राहु अपनी संधि में पाकर इसे ग्रस लेता है। चकवे क  ......

बालकांड दोहा 239

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चौपाई :नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥1॥भावार्थ:- सब राजा रूपी तारे उजाला (मंद प्रकाश) करते हैं, पर वे धनुष रूपी महान अंधकार को हटा नहीं सकते। रात्रि का अंत होने से जैसे क  ......

बालकांड दोहा 240

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चौपाई :सीय स्वयंबरू देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥1॥भावार्थ:- चलकर सीताजी के स्वयंवर को देखना चाहिए। देखें ईश्वर किसको बड़ाई देते हैं। लक्ष्मणजी ने कहा- हे नाथ! जिस पर आपकी कृपा होगी, वही   ......

बालकांड दोहा 241

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चौपाई :राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥1॥भावार्थ:- उसी समय राजकुमार (राम और लक्ष्मण) वहाँ आए। (वे ऐसे सुंदर हैं) मानो साक्षात मनोहरता ही उनके शरीरों पर छा रही हो। सुंदर साँवल  ......

बालकांड दोहा 242

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चौपाई :बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥जनक जाति अवलोकहिं कैसें। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥1॥भावार्थ:- विद्वानों को प्रभु विराट रूप में दिखाई दिए, जिसके बहुत से मुँह, हाथ, पैर, नेत्र और सिर हैं। जनकजी के सजातीय   ......

बालकांड दोहा 243

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चौपाई :सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥1॥भावार्थ:- दोनों मूर्तियाँ स्वभाव से ही (बिना किसी बनाव-श्रृंगार के) मन को हरने वाली हैं। करोड़ों कामदेवों की उपमा भी उनके लिए तुच्छ है।   ......

बालकांड दोहा 244

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चौपाई :कटि तूनीर पीत पट बाँधें। कर सर धनुष बाम बर काँधें॥पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥1॥भावार्थ:- कमर में तरकस और पीताम्बर बाँधे हैं। (दाहिने) हाथों में बाण और बाएँ सुंदर कंधों पर धनुष तथा पीले यज्ञोपवीत (जनेऊ) सुशोभ  ......

बालकांड दोहा 245

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चौपाई :प्रभुहि देखि सब नृप हियँ हारे। जनु राकेश उदय भएँ तारे॥असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥1॥भावार्थ:- प्रभु को देखकर सब राजा हृदय में ऐसे हार गए (निराश एवं उत्साहहीन हो गए) जैसे पूर्ण चन्द्रमा के उदय होने पर ता  ......

बालकांड दोहा 246

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चौपाई :ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता॥1॥भावार्थ:- गाल बजाकर व्यर्थ ही मत मरो। मन के लड्डुओं से भी कहीं भूख बुझती है? हमारी परम पवित्र (निष्कपट) सीख को सुनकर सीताज  ......

बालकांड दोहा 247

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चौपाई :सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥1॥भावार्थ:- रूप और गुणों की खान जगज्जननी जानकीजी की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता। उनके लिए मुझे (काव्य की) सब उपमाएँ तुच्छ लगती   ......

बालकांड दोहा 248

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चौपाई :चलीं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥1॥भावार्थ:- सयानी सखियाँ सीताजी को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गाती हुई चलीं। सीताजी के नवल शरीर पर सुंदर साड़ी सुशोभित है। जगज्जननी  ......

बालकांड दोहा 249

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चौपाई :राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥1॥भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी का रूप और सीताजी की छबि देखकर स्त्री-पुरुषों ने पलक मारना छोड़ दिया (सब एकटक उन्हीं को   ......

बालकांड दोहा 250

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चौपाई :नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥1॥भावार्थ:- राजाओं की भुजाओं का बल चन्द्रमा है, शिवजी का धनुष राहु है, वह भारी है, कठोर है, यह सबको विदित है। बड़े भारी योद्धा   ......

बालकांड दोहा 251

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चौपाई :भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥डगइ न संभु सरासनु कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥1॥भावार्थ:- तब दस हजार राजा एक ही बार धनुष को उठाने लगे, तो भी वह उनके टाले नहीं टलता। शिवजी का वह धनुष कैसे नहीं डिगता था, जैसे कामी पुरु  ......

बालकांड दोहा 252

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चौपाई :कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा॥रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई॥1॥भावार्थ:- कहिए, यह लाभ किसको अच्छा नहीं लगता, परन्तु किसी ने भी शंकरजी का धनुष नहीं चढ़ाया। अरे भाई! चढ़ाना और तोड़ना तो दूर रहा, कोई त  ......

बालकांड दोहा 253

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चौपाई :रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी॥1॥भावार्थ:- रघुवंशियों में कोई भी जहाँ होता है, उस समाज में ऐसे वचन कोई नहीं कहता, जैसे अनुचित वचन रघुकुल शिरोमणि श्री रा  ......

बालकांड दोहा 254

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चौपाई :लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥सकल लोग सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥1॥भावार्थ:- ज्यों ही लक्ष्मणजी क्रोध भरे वचन बोले कि पृथ्वी डगमगा उठी और दिशाओं के हाथी काँप गए। सभी लोग और सब राजा डर गए। सीताज  ......

बालकांड दोहा 255

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चौपाई :नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥1॥भावार्थ:- राजाओं की आशा रूपी रात्रि नष्ट हो गई। उनके वचन रूपी तारों के समूह का चमकना बंद हो गया। (वे मौन हो गए)। अभिमानी राजा र  ......

बालकांड दोहा 256

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चौपाई :सखि सब कौतुक देख निहारे। जेउ कहावत हितू हमारे॥कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥1॥भावार्थ:- हे सखी! ये जो हमारे हितू कहलाते हैं, वे भी सब तमाशा देखने वाले हैं। कोई भी (इनके) गुरु विश्वामित्रजी को समझाकर नहीं कह  ......

बालकांड दोहा 257

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चौपाई :काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपनें बस कीन्हे॥देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुषु राम सुनु रानी॥1॥भावार्थ:- कामदेव ने फूलों का ही धनुष-बाण लेकर समस्त लोकों को अपने वश में कर रखा है। हे देवी! ऐसा जानकर संदेह त्याग दीजिए।   ......

बालकांड दोहा 258

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चौपाई :नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी॥1॥ भावार्थ:- अच्छी तरह नेत्र भरकर श्री रामजी की शोभा देखकर, फिर पिता के प्रण का स्मरण करके सीताजी का मन क्षुब्ध हो उठ  ......

बालकांड दोहा 259

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चौपाई :गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसें परम कृपन कर सोना॥1॥ भावार्थ:- सीताजी की वाणी रूपी भ्रमरी को उनके मुख रूपी कमल ने रोक रखा है। लाज रूपी रात्रि को देखकर वह प्रकट नहीं हो रही है। नेत्  ......

बालकांड दोहा 260

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चौपाई :दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥1॥ भावार्थ:- हे दिग्गजो! हे कच्छप! हे शेष! हे वाराह! धीरज धरकर पृथ्वी को थामे रहो, जिससे यह हिलने न पावे। श्री रामचन्द्रजी शि  ......

बालकांड दोहा 261

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चौपाई :देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही।तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा॥1॥ भावार्थ:- उन्होंने जानकीजी को बहुत ही विकल देखा। उनका एक-एक क्षण कल्प के समान बीत रहा था। यदि प्यासा आदमी पानी के बिना   ......

बालकांड दोहा 262

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चौपाई :प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे॥कौसिकरूप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन॥1॥ भावार्थ:- प्रभु ने धनुष के दोनों टुकड़े पृथ्वी पर डाल दिए। यह देखकर सब लोग सुखी हुए। विश्वामित्र रूपी पवित्र समुद्र में, जि  ......

बालकांड दोहा 263

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चौपाई :झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई॥बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए॥1॥ भावार्थ:- झाँझ, मृदंग, शंख, शहनाई, भेरी, ढोल और सुहावने नगाड़े आदि बहुत प्रकार के सुंदर बाजे बज रहे हैं। जहाँ-तहाँ युवतियाँ मं  ......

बालकांड दोहा 264

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चौपाई :सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसें। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥1॥ भावार्थ:- सखियों के बीच में सीताजी कैसी शोभित हो रही हैं, जैसे बहुत सी छवियों के बीच में महाछवि हो। करकमल में सुंदर जयमा  ......

बालकांड दोहा 265

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चौपाई :पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥सुर किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा॥1॥ भावार्थ:- नगर और आकाश में बाजे बजने लगे। दुष्ट लोग उदास हो गए और सज्जन लोग सब प्रसन्न हो गए। देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग और मु  ......

बालकांड दोहा 266

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चौपाई :तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे॥उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥1॥ भावार्थ:- उस समय सीताजी को देखकर कुछ राजा लोग ललचा उठे। वे दुष्ट, कुपूत और मूढ़ राजा मन में बहुत तमतमाए। वे अभागे उठ-उठकर, कवच पहन  ......

बालकांड दोहा 267

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चौपाई :बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही॥1॥ भावार्थ:- जैसे गरुड़ का भाग कौआ चाहे, सिंह का भाग खरगोश चाहे, बिना कारण ही क्रोध करने वाला अपनी कुशल चाहे, शिवजी से विरोध करन  ......

बालकांड दोहा 268

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चौपाई :खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥तेहिं अवसर सुनि सिवधनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥1॥ भावार्थ:- खलबली देखकर जनकपुरी की स्त्रियाँ व्याकुल हो गईं और सब मिलकर राजाओं को गालियाँ देने लगीं। उसी मौके पर श  ......

बालकांड दोहा 269

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चौपाई :देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा॥1॥ भावार्थ:- परशुरामजी का भयानक वेष देखकर सब राजा भय से व्याकुल हो उठ खड़े हुए और पिता सहित अपना नाम कह-कहकर सब दंडवत प्रणाम करन  ......

बालकांड दोहा 270

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चौपाई :समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए॥सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे॥1॥ भावार्थ:- जिस कारण सब राजा आए थे, राजा जनक ने वे सब समाचार कह सुनाए। जनक के वचन सुनकर परशुरामजी ने फिरकर दूसरी ओर देखा तो धनुष के टुक  ......

बालकांड दोहा 271

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चौपाई :नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥1॥ भावार्थ:- हे नाथ! शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर क्रोध  ......

बालकांड दोहा 272

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चौपाई :लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें॥1॥ भावार्थ:- लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे देव! सुनिए, हमारे जान में तो सभी धनुष एक से ही हैं। पुराने धनुष के तोड़ने में क्या हानि-ल  ......

बालकांड दोहा 273

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चौपाई :बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥1॥ भावार्थ:- लक्ष्मणजी हँसकर कोमल वाणी से बोले- अहो, मुनीश्वर तो अपने को बड़ा भारी योद्धा समझते हैं। बार-बार मुझे कुल्हाड़  ......

बालकांड दोहा 274

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चौपाई :कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु॥भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू॥1॥ भावार्थ:- हे विश्वामित्र! सुनो, यह बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है, काल के वश होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवं  ......

बालकांड दोहा 275

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चौपाई :तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥1॥ भावार्थ:- आप तो मानो काल को हाँक लगाकर बार-बार उसे मेरे लिए बुलाते हैं। लक्ष्मणजी के कठोर वचन सुनते ही परशुरामजी ने अप  ......

बालकांड दोहा 276

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चौपाई :कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा॥माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें॥1॥ भावार्थ:- लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपके शील को कौन नहीं जानता? वह संसार भर में प्रसिद्ध है। आप माता-पिता से तो   ......

बालकांड दोहा 277

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चौपाई :नाथ करहु बालक पर छोहु। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना॥1॥ भावार्थ:- हे नाथ ! बालक पर कृपा कीजिए। इस सीधे और दूधमुँहे बच्चे पर क्रोध न कीजिए। यदि यह प्रभु का (आपका) कुछ भी प्रभाव जानत  ......

बालकांड दोहा 278

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चौपाई :मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥टूट चाप नहिं जुरिहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥1॥ भावार्थ:- हे मुनिराज! मैं आपका दास हूँ। अब क्रोध त्यागकर दया कीजिए। टूटा हुआ धनुष क्रोध करने से जुड़ नहीं जाएगा।   ......

बालकांड दोहा 279

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चौपाई :अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त विनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले- हे नाथ! सुनिए, आप तो स्वभाव से   ......

बालकांड दोहा 280

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चौपाई :बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती॥भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ॥1॥ भावार्थ:- हाथ चलता नहीं, क्रोध से छाती जली जाती है। (हाय!) राजाओं का घातक यह कुठार भी कुण्ठित हो गया। विधाता विपरीत हो गया,  ......

बालकांड दोहा 281

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चौपाई :बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा॥1॥ भावार्थ:- तेरा यह भाई तेरी ही सम्मति से कटु वचन बोलता है और तू छल से हाथ जोड़कर विनय करता है। या तो युद्ध में मेरा संतोष कर,   ......

बालकांड दोहा 282

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चौपाई :देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेहिं दीन्हा॥1॥ भावार्थ:- आपको कुठार, बाण और धनुष धारण किए देखकर और वीर समझकर बालक को क्रोध आ गया। वह आपका नाम तो जानता था, पर उ  ......

बालकांड दोहा 283

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चौपाई:निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥चाप सुवा सर आहुति जानू। कोपु मोर अति घोर कृसानू॥1॥ भावार्थ:- तू मुझे निरा ब्राह्मण ही समझता है? मैं जैसा विप्र हूँ, तुझे सुनाता हूँ। धनुष को सु्रवा, बाण को आहुति और मेर  ......

बालकांड दोहा 284

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चौपाई :देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ ॥1॥ भावार्थ:- देवता, दैत्य, राजा या और बहुत से योद्धा, वे चाहे बल में हमारे बराबर हों चाहे अधिक बलवान हों, यदि रण में हमें कोई भी ललका  ......

बालकांड दोहा 285

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चौपाई :जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानू॥जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥1॥ भावार्थ:- हे रघुकुल रूपी कमल वन के सूर्य! हे राक्षसों के कुल रूपी घने जंगल को जलाने वाले अग्नि! आपकी जय हो! हे देवता, ब्राह्म  ......

बालकांड दोहा 286

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चौपाई :अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे॥जूथ जूथ मिलि सुमुखि सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनीं॥1॥ भावार्थ:- खूब जोर से बाजे बजने लगे। सभी ने मनोहर मंगल साज साजे। सुंदर मुख और सुंदर नेत्रों वाली तथा कोयल के समान मधुर बोल  ......

बालकांड दोहा 287

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चौपाई :दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहिं बोलाई॥मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥1॥ भावार्थ:- जाकर अयोध्या को दूत भेजो, जो राजा दशरथ को बुला लावें। राजा ने प्रसन्न होकर कहा- हे कृपालु! बहुत अच्छा! और उसी समय  ......

बालकांड दोहा 288

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चौपाई :बेनु हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे॥कनक कलित अहिबेलि बनाई। लखि नहिं परइ सपरन सुहाई॥1॥ भावार्थ:- बाँस सब हरी-हरी मणियों (पन्ने) के सीधे और गाँठों से युक्त ऐसे बनाए जो पहचाने नहीं जाते थे (कि मणियों के हैं या   ......

बालकांड दोहा 289

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चौपाई :रचे रुचिर बर बंदनिवारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे॥मंगल कलश अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥1॥ भावार्थ:- ऐसे सुंदर और उत्तम बंदनवार बनाए मानो कामदेव ने फंदे सजाए हों। अनेकों मंगल कलश और सुंदर ध्वजा, पताका, परदे और चँवर बनाए  ......

बालकांड दोहा 290

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चौपाई :पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई॥1॥ भावार्थ:- जनकजी के दूत श्री रामचन्द्रजी की पवित्र पुरी अयोध्या में पहुँचे। सुंदर नगर देखकर वे हर्षित हुए। राजद्वार पर   ......

बालकांड दोहा 291

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चौपाई :सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिन सनेहु समात न गाता॥प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी॥1॥ भावार्थ:- चिट्ठी सुनकर दोनों भाई पुलकित हो गए। स्नेह इतना अधिक हो गया कि वह शरीर में समाता नहीं। भरतजी का पवित्र प्र  ......

बालकांड दोहा 292

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चौपाई :पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे॥जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे॥1॥ भावार्थ:- आपके पुत्र पूछने योग्य नहीं हैं। वे पुरुषसिंह तीनों लोकों के प्रकाश स्वरूप हैं। जिनके यश के आगे चन्द्रमा  ......

बालकांड दोहा 293

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चौपाई :सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करिबहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥1॥ भावार्थ:- धनुष टूटने की बात सुनकर परशुरामजी क्रोध में भरे आए और उन्होंने बहुत प्रकार से आँखें दिखलाईं। अंत मे  ......

बालकांड दोहा 294

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चौपाई :सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥1॥ भावार्थ:- सब समाचार सुनकर और अत्यन्त सुख पाकर गुरु बोले- पुण्यात्मा पुरुष के लिए पृथ्वी सुखों से छाई हुई है। ज  ......

बालकांड दोहा 295

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चौपाई :राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥1॥ भावार्थ:- राजा ने सारे रनिवास को बुलाकर जनकजी की पत्रिका बाँचकर सुनाई। समाचार सुनकर सब रानियाँ हर्ष से भर गईं। राजा ने फिर द  ......

बालकांड दोहा 296

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चौपाई :कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर-घर होन बधाए॥1॥ भावार्थ:- यों कहते हुए वे अनेक प्रकार के सुंदर वस्त्र पहन-पहनकर चले। आनंदित होकर नगाड़े वालों ने बड़े जोर से नगाड़ों पर चोट लगाई। सब लो  ......

बालकांड दोहा 297

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चौपाई :जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरूप रति मानु बिमोचनि॥1॥ भावार्थ:- बिजली की सी कांति वाली चन्द्रमुखी, हरिन के बच्चे के से नेत्र वाली और अपने सुंदर रूप से कामदेव की स्त  ......

बालकांड दोहा 298

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चौपाई :भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गयस्यंदन साजहु जाई॥चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥1॥ भावार्थ:- फिर राजा ने भरतजी को बुला लिया और कहा कि जाकर घोड़े, हाथी और रथ सजाओ, जल्दी रामचन्द्रजी की बारात में चलो। यह सुनते ह  ......

बालकांड दोहा 299

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चौपाई :बाँधें बिरद बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े॥फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पनव निसाना॥1॥ भावार्थ:- शूरता का बाना धारण किए हुए रणधीर वीर सब निकलकर नगर के बाहर आ खड़े हुए। वे चतुर अपने घोड़ों को तरह-तरह की चालो  ......

बालकांड दोहा 300

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चौपाई :कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं॥चले मत्त गज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥1। भावार्थ:- श्रेष्ठ हाथियों पर सुंदर अंबारियाँ पड़ी हैं। वे जिस प्रकार सजाई गई थीं, सो कहा नहीं जा सकता। मतवाले ह  ......

बालकांड दोहा 301

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चौपाई :गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा॥निदरि घनहि घुर्म्मरहिं निसाना। निज पराइ कछु सुनिअ न काना॥1॥ भावार्थ:- हाथी गरज रहे हैं, उनके घंटों की भीषण ध्वनि हो रही है। चारों ओर रथों की घरघराहट और घोड़ों की हिनहिनाहट हो   ......

बालकांड दोहा 302

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चौपाई :सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें। सुर गुर संग पुरंदर जैसें॥करि कुल रीति बेद बिधि राऊ। देखि सबहि सब भाँति बनाऊ॥1॥ भावार्थ:- वशिष्ठजी के साथ (जाते हुए) राजा दशरथजी कैसे शोभित हो रहे हैं, जैसे देव गुरु बृहस्पतिजी के साथ इन्द्र हों। वे  ......

बालकांड दोहा 303

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चौपाई :बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुभदाता॥चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई॥1॥ भावार्थ:- बारात ऐसी बनी है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता। सुंदर शुभदायक शकुन हो रहे हैं। नीलकंठ पक्षी बाईं ओर चारा ले रहा है, मा  ......

बालकांड दोहा 304

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चौपाई :मंगल सगुन सुगम सब ताकें। सगुन ब्रह्म सुंदर सुत जाकें॥राम सरिस बरु दुलहिनि सीता। समधी दसरथु जनकु पुनीता॥1॥ भावार्थ:-स्वयं सगुण ब्रह्म जिसके सुंदर पुत्र हैं, उसके लिए सब मंगल शकुन सुलभ हैं। जहाँ श्री रामचन्द्रजी सरीखे दूल  ......

बालकांड दोहा 305

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चौपाई :कनक कलस भरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा॥भरे सुधा सम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने॥1॥ भावार्थ:- (दूध, शर्बत, ठंडाई, जल आदि से) भरकर सोने के कलश तथा जिनका वर्णन नहीं हो सकता ऐसे अमृत के समान भाँति-भाँति के सब पकवानों   ......

बालकांड दोहा 306

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चौपाई :बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं। मुदित देव दुंदुभीं बजावहिं॥बस्तु सकल राखीं नृप आगें। बिनय कीन्हि तिन्ह अति अनुरागें॥1॥ भावार्थ:- देवसुंदरियाँ फूल बरसाकर गीत गा रही हैं और देवता आनंदित होकर नगाड़े बजा रहे हैं। (अगवानी में आए   ......

बालकांड दोहा 307

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चौपाई :निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती॥बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना॥1॥ भावार्थ:- बारातियों ने अपने-अपने ठहरने के स्थान देखे तो वहाँ देवताओं के सब सुखों को सब प्रकार से सुलभ पाया। इस ऐश्वर्य का  ......

बालकांड दोहा 308

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चौपाई :मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा॥कौसिक राउ लिए उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई॥1॥ भावार्थ:- पृथ्वीपति दशरथजी ने मुनि की चरणधूलि को बारंबार सिर पर चढ़ाकर उनको दण्डवत्‌ प्रणाम किया। विश्वामित्रजी ने राजा को उठा  ......

बालकांड दोहा 309

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चौपाई :रामहि देखि बरात जुड़ानी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी॥नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी को देखकर बारात शीतल हुई (राम के वियोग में सबके हृदय में जो आग जल रही थी, वह शांत हो गई)। प्र  ......

बालकांड दोहा 310

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चौपाई :जनक सुकृत मूरति बैदेही। दसरथ सुकृत रामु धरें देही॥इन्ह सम काहुँ न सिव अवराधे। काहुँ न इन्ह समान फल लाधे॥1॥ भावार्थ:- जनकजी के सुकृत (पुण्य) की मूर्ति जानकीजी हैं और दशरथजी के सुकृत देह धारण किए हुए श्री रामजी हैं। इन (दोनों   ......

बालकांड दोहा 311

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चौपाई :बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई॥तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी॥1॥ भावार्थ:- तब उनकी अनेकों प्रकार से पहुनाई होगी। सखी! ऐसी ससुराल किसे प्यारी न होगी! तब-तब हम सब नगर निवासी श्री राम-लक्  ......

बालकांड दोहा 312

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चौपाई :एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीं॥जे नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार सब मनोरथ कर रही हैं और हृदय को उमंग-उमंगकर (उत्साहपूर्वक) आनंद से भर रही हैं। सीताजी के स्वयंवर में ज  ......

बालकांड दोहा 313

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चौपाई :उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलंब कर कारनु काहा॥सतानंद तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए॥1॥ भावार्थ:- तब राजा जनक ने पुरोहित शतानंदजी से कहा कि अब देरी का क्या कारण है। तब शतानंदजी ने मंत्रियों को बुलाया। वे सब मंगल का स  ......

बालकांड दोहा 314

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चौपाई :सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना॥सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा॥1॥ भावार्थ:- देवगण सुंदर मंगल का अवसर जानकर, नगाड़े बजा-बजाकर फूल बरसाते हैं। शिवजी, ब्रह्माजी आदि देववृन्द यूथ (टोलि  ......

बालकांड दोहा 315

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चौपाई :जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं॥करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी॥1॥ भावार्थ:- जिनका नाम लेते ही जगत में सारे अमंगलों की जड़ कट जाती है और चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) मुट्ठी में आ जाते ह  ......

बालकांड दोहा 316

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चौपाई :केकि कंठ दुति स्यामल अंगा। तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा॥ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मंगल सब सब भाँति सुहाए॥1॥ भावार्थ:- रामजी का मोर के कंठ की सी कांतिवाला (हरिताभ) श्याम शरीर है। बिजली का अत्यन्त निरादर करने वाले प्रकाशमय सुंदर (  ......

बालकांड दोहा 317

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चौपाई :जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा॥संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे॥1॥ भावार्थ:- जिस श्रेष्ठ घोड़े पर श्री रामचन्द्रजी सवार हैं, उसका वर्णन सरस्वतीजी भी नहीं कर सकतीं। शंकरजी श्री रामचन्द्रज  ......

बालकांड दोहा 318

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चौपाई :बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि॥पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा॥1॥ भावार्थ:- सभी स्त्रियाँ चन्द्रमुखी (चन्द्रमा के समान मुख वाली) और सभी मृगलोचनी (हरिण की सी आँखों वाली) हैं और सभी अपने शर  ......

बालकांड दोहा 319

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चौपाई :नयन नीरु हटि मंगल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी॥बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू॥1॥ भावार्थ:- मंगल अवसर जानकर नेत्रों के जल को रोके हुए रानी प्रसन्न मन से परछन कर रही हैं। वेदों में कहे हुए तथा कुलाचा  ......

बालकांड दोहा 320

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चौपाई :मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं॥मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे॥1॥ भावार्थ:- वैदिक और लौकिक सब रीतियाँ करके जनकजी और दशरथजी बड़े प्रेम से मिले। दोनों महाराज मिलते हुए बड़े ही शोभित हुए,  ......

बालकांड दोहा 321

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चौपाई :बहुरि कीन्हि कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा॥कीन्हि जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई॥1॥ भावार्थ:- फिर उन्होंने कोसलाधीश राजा दशरथजी की पूजा उन्हें ईश (महादेवजी) के समान जानकर की, कोई दूसरा भाव न था। तदन्तर (उ  ......

बालकांड दोहा 322

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चौपाई :समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानंदु सुनि आए॥बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित मुनि आयसु पाई॥1॥ भावार्थ:- समय देखकर वशिष्ठजी ने शतानंदजी को आदरपूर्वक बुलाया। वे सुनकर आदर के साथ आए। वशिष्ठजी ने कहा- अब जाकर राजकुमारी क  ......

बालकांड दोहा 323

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चौपाई :सिय सुंदरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई॥आवत दीखि बरातिन्ह सीता। रूप रासि सब भाँति पुनीता॥1॥ भावार्थ:- सीताजी की सुंदरता का वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धि बहुत छोटी है और मनोहरता बहुत बड़ी है। रूप की राशि और सब प्र  ......

बालकांड दोहा 324

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चौपाई :जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी॥॥सुजसु सुकृत सुख सुंदरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई॥1॥ भावार्थ:- जनकजी की जगविख्यात पटरानी और सीताजी की माता का बखान तो हो ही कैसे सकता है। सुयश, सुकृत (पुण्य), सुख और सुंदरता सबको  ......

बालकांड दोहा 325

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चौपाई :कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं। नयन लाभु सब सादर लेहीं॥जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी॥1॥ भावार्थ:- वर और कन्या सुंदर भाँवरें दे रहे हैं। सब लोग आदरपूर्वक (उन्हें देखकर) नेत्रों का परम लाभ ले रहे हैं। मनोहर जो  ......

बालकांड दोहा 326

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चौपाई :जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी॥कहि न जा कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मंडपु पूरी॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी के विवाह की जैसी विधि वर्णन की गई, उसी रीति से सब राजकुमार विवाहे गए। दहेज की अधिकता कुछ क  ......

बालकांड दोहा 327

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चौपाई :स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन॥जावक जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी का साँवला शरीर स्वभाव से ही सुंदर है। उसकी शोभा करोड़ों कामदेवों को लजाने वाली है। महावर से य  ......

बालकांड दोहा 328

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चौपाई :पुनि जेवनार भई बहु भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती॥परत पाँवड़े बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा॥1॥ भावार्थ:- फिर बहुत प्रकार की रसोई बनी। जनकजी ने बारातियों को बुला भेजा। राजा दशरथजी ने पुत्रों सहित गमन किया। अनुपम वस्त्रो  ......

बालकांड दोहा 329

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चौपाई :पंच कवल करि जेवन लागे। गारि गान सुनि अति अनुरागे।भाँति अनेक परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने॥1॥ भावार्थ:- सब लोग पंचकौर करके (अर्थात ‘प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा और समानाय स्वाहा’ इ  ......

बालकांड दोहा 330

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चौपाई :नित नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं॥बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे॥1॥ भावार्थ:- जनकपुर में नित्य नए मंगल हो रहे हैं। दिन और रात पल के समान बीत जाते हैं। बड़े सबेरे राजाओं के मुकुटमणि दशरथजी जा  ......

बालकांड दोहा 331

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चौपाई :दंड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे॥चारि लच्छ बर धेनु मगाईं। काम सुरभि सम सील सुहाईं॥1॥ भावार्थ:- राजा ने सबको दण्डवत्‌ प्रणाम किया और प्रेम सहित पूजन करके उन्हें उत्तम आसन दिए। चार लाख उत्तम गायें मँगवा  ......

बालकांड दोहा 332

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चौपाई :जनक सनेहु सीलु करतूती। नृपु सब भाँति सराह बिभूती॥दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा॥1॥ भावार्थ:- राजा दशरथजी जनकजी के स्नेह, शील, करनी और ऐश्वर्य की सब प्रकार से सराहना करते हैं। प्रतिदिन (सबेरे) उठकर अयोध्  ......

बालकांड दोहा 333

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चौपाई :पुरबासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता॥सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने॥1॥ भावार्थ:- जनकपुरवासियों ने सुना कि बारात जाएगी, तब वे व्याकुल होकर एक-दूसरे से बात पूछने लगे। जाना सत्य है, यह सुनकर स  ......

बालकांड दोहा 334

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चौपाई :सबु समाजु एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई॥चलिहि बरात सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन जनु लघु पानीं॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार सब सामान सजाकर राजा जनक ने अयोध्यापुरी को भेज दिया। बारात चलेगी, यह सुनते ही सब रानियाँ ऐसी विकल हो   ......

बालकांड दोहा 335

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चौपाई :चारिउ भाइ सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए॥कोउ कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू॥1॥ भावार्थ:- स्वभाव से ही सुंदर चारों भाइयों को देखने के लिए नगर के स्त्री-पुरुष दौड़े। कोई कहता है- आज ये जाना चाहते हैं। विदेह न  ......

बालकांड दोहा 336

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चौपाई :देखि राम छबि अति अनुरागीं। प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं॥रही न लाज प्रीति उर छाई। सहज सनेहु बरनि किमि जाई॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर वे प्रेम में अत्यन्त मग्न हो गईं और प्रेम के विशेष वश होकर बार-बार चरणों ल  ......

बालकांड दोहा 337

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चौपाई :अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पंक जनु गिरा समानी॥सुनि सनेहसानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर रानी चरणों को पकड़कर (चुप) रह गईं। मानो उनकी वाणी प्रेम रूपी दलदल में समा गई हो। स्नेह से सनी हुई श्रेष्ठ   ......

बालकांड दोहा 338

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चौपाई :सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए॥ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही॥1॥ भावार्थ:- जानकी ने जिन तोता और मैना को पाल-पोसकर बड़ा किया था और सोने के पिंजड़ों में रखकर पढ़ाया था, वे व्याकुल होकर कह र  ......

बालकांड दोहा 339

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चौपाई :बहुबिधि भूप सुता समुझाईं। नारिधरमु कुलरीति सिखाईं॥दासीं दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे॥1॥ भावार्थ:- राजा ने पुत्रियों को बहुत प्रकार से समझाया और उन्हें स्त्रियों का धर्म और कुल की रीति सिखाई। बहुत से दासी-  ......

बालकांड दोहा 340

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चौपाई :नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे॥भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे॥1॥ भावार्थ:- राजा दशरथजी ने विनती करके प्रतिष्ठित जनों को लौटाया और आदर के साथ सब मँगनों को बुलवाया। उनको गहने-कपड़े, घोड़े-हाथी  ......

बालकांड दोहा 341

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चौपाई :मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा॥सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता॥1॥ भावार्थ:- जनकजी ने मुनि मंडली को सिर नवाया और सभी से आशीर्वाद पाया। फिर आदर के साथ वे रूप, शील और गुणों के निधान सब भाइय  ......

बालकांड दोहा 342

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चौपाई :सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई॥होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा॥1॥ भावार्थ:- आपने मुझे सभी प्रकार से बड़ाई दी और अपना जन जानकर अपना लिया। यदि दस हजार सरस्वती और शेष हों और करोड़ों कल्पो  ......

बालकांड दोहा 343

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चौपाई :बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई॥जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई॥1॥ भावार्थ:- जनकजी की बार-बार विनती और बड़ाई करके श्री रघुनाथजी सब भाइयों के साथ चले। जनकजी ने जाकर विश्वामित्रजी के चरण पकड़ लिए और   ......

बालकांड दोहा 344

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चौपाई :हने निसान पनव बर बाजे। भेरि संख धुनि हय गय गाजे॥झाँझि बिरव डिंडिमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई॥1॥ भावार्थ:- नगाड़ों पर चोटें पड़ने लगीं, सुंदर ढोल बजने लगे। भेरी और शंख की बड़ी आवाज हो रही है, हाथी-घोड़े गरज रहे हैं। विशेष शब्द   ......

बालकांड दोहा 345

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चौपाई :भूप भवनु तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा॥मंगल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई॥1॥ भावार्थ:- उस समय राजमहल (अत्यन्त) शोभित हो रहा था। उसकी रचना देखकर कामदेव भी मन मोहित हो जाता था। मंगल शकुन, मनोहरता, ऋद्धि-सिद  ......

बालकांड दोहा 346

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चौपाई :मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता॥राम दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीं॥1॥ भावार्थ:- सुख और महान आनंद से विवश होने के कारण सब माताओं के शरीर शिथिल हो गए हैं, उनके चरण चलते नहीं हैं। श्री रामचन्द  ......

बालकांड दोहा 347

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चौपाई :धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ॥सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं॥1॥ भावार्थ:- धूप के धुएँ से आकाश ऐसा काला हो गया है मानो सावन के बादल घुमड़-घुमड़कर छा गए हों। देवता कल्पवृक्ष के फूलों की माला  ......

बालकांड दोहा 348

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चौपाई :मागध सूत बंदि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर॥जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी॥1॥ भावार्थ:- मागध, सूत, भाट और चतुर नट तीनों लोकों के उजागर (सबको प्रकाश देने वाले परम प्रकाश स्वरूप) श्री रामचन्द्रजी का य  ......

बालकांड दोहा 349

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चौपाई :करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा॥भूषन मनि पट नाना जाती। करहिं निछावरि अगनित भाँती॥1॥ भावार्थ:- वे बार-बार आरती कर रही हैं। उस प्रेम और महान आनंद को कौन कह सकता है! अनेकों प्रकार के आभूषण, रत्न और वस्त्र तथा  ......

बालकांड दोहा 350

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चौपाई :चारि सिंघासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए॥तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनीत पखारे॥1॥ भावार्थ:- स्वाभाविक ही सुंदर चार सिंहासन थे, जो मानो कामदेव ने ही अपने हाथ से बनाए थे। उन पर माताओं ने राजकुमारियों और राज  ......

बालकांड दोहा 351

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चौपाई :देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की॥सबहि बंदि माँगहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना॥1॥ भावार्थ:- मन की सभी वासनाएँ पूरी हुई जानकर देवता और पितरों का भलीभाँति पूजन किया। सबकी वंदना करके माताएँ यही वरदान माँगत  ......

बालकांड दोहा 352

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चौपाई :जो बसिष्ट अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही॥भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड़ जानी॥1॥ भावार्थ:- वशिष्ठजी ने जो आज्ञा दी, उसे लोक और वेद की विधि के अनुसार राजा ने आदरपूर्वक किया। ब्राह्मणों की भीड़ देखकर अप  ......

बालकांड दोहा 353

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चौपाई :बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें। सुत संपदा राखि सब आगें॥नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा॥1॥ भावार्थ:- राजा ने अत्यन्त प्रेमपूर्ण हृदय से पुत्रों को और सारी सम्पत्ति को सामने रखकर (उन्हें स्वीकार करने के   ......

बालकांड दोहा 354

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चौपाई :सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू॥जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे॥1॥ भावार्थ:- सब प्रकार से सबका प्रेमपूर्वक भली-भाँति आदर-सत्कार कर लेने पर राजा दशरथजी के हृदय में पूर्ण उत्साह (आन  ......

बालकांड दोहा 355

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चौपाई :मंगलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि॥अँचइ पान सब काहूँ पाए। स्रग सुगंध भूषित छबि छाए॥1॥ भावार्थ:- सुंदर स्त्रियाँ मंगलगान कर रही हैं। वह रात्रि सुख की मूल और मनोहारिणी हो गई। सबने आचमन करके पान खाए और फूलों की म  ......

बालकांड दोहा 356

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चौपाई :भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए॥सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना॥1॥ भावार्थ:- राजा के स्वाभव से ही सुंदर वचन सुनकर (रानियों ने) मणियों से जड़े सुवर्ण के पलँग बिछवाए। (गद्दों पर) गो के फेन के समान स  ......

बालकांड दोहा 357

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चौपाई :मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी॥मख रखवारी करि दुहुँ भाईं। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाईं॥1॥ भावार्थ:- हे तात! मैं बलैया लेती हूँ, मुनि की कृपा से ही ईश्वर ने तुम्हारी बहुत सी बलाओं को टाल दिया। दोनों भाइयों ने   ......

बालकांड दोहा 358

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चौपाई :नीदउँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना॥घर घर करहिं जागरन नारीं। देहिं परसपर मंगल गारीं॥1॥ भावार्थ:- नींद में भी उनका अत्यन्त सलोना मुखड़ा ऐसा सोह रहा था, मानो संध्या के समय का लाल कमल सोह रहा हो। स्त्रियाँ घर-घर जा  ......

बालकांड दोहा 359

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चौपाई :भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठे हरषि रजायसु पाई॥देखि रामु सब सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी॥1॥ भावार्थ:- राजा ने देखते ही उन्हें हृदय से लगा लिया। तदनन्तर वे आज्ञा पाकर हर्षित होकर बैठ गए। श्री रामचन्द्रजी के दर्शन कर और ने  ......

बालकांड दोहा 360

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चौपाई :सुदिन सोधि कल कंकन छोरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे॥नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं॥1॥ भावार्थ:- अच्छा दिन (शुभ मुहूर्त) शोधकर सुंदर कंकण खोले गए। मंगल, आनंद और विनोद कुछ कम नहीं हुए (अर्थात बहुत हुए)। इस प  ......

बालकांड दोहा 361

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चौपाई :बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी॥सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ॥1॥ भावार्थ:- वामदेवजी और रघुकुल के गुरु ज्ञानी वशिष्ठजी ने फिर विश्वामित्रजी की कथा बखानकर कही। मुनि का सुंदर यश सुन  ......

अयोध्या काण्ड शुरुआत - श्लोक

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श्रीगणेशायनमःश्रीजानकीवल्लभो विजयतेश्रीरामचरितमानसद्वितीय सोपानश्री अयोध्या काण्ड श्लोक :यस्यांके च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तकेभाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्व  ......

अयोध्याकांड दोहा 01

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चौपाई :जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥1॥ भावार्थ:- जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आए, तब से (अयोध्या में) नित्य नए मंगल हो रहे हैं और आनंद के बधावे बज रहे हैं। चौ  ......

अयोध्याकांड दोहा 02

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चौपाई :एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥1॥ भावार्थ:- एक समय रघुकुल के राजा दशरथजी अपने सारे समाज सहित राजसभा में विराजमान थे। महाराज समस्त पुण्यों की मूर्ति हैं, उन  ......

अयोध्याकांड दोहा 03

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चौपाई :कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक॥सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमार अरि मित्र उदासी॥1॥ भावार्थ:- राजा ने कहा- हे मुनिराज! (कृपया यह निवेदन) सुनिए। श्री रामचन्द्रजी अब सब प्रकार से सब योग्य हो गए हैं। सेवक, मंत्री,   ......

अयोध्याकांड दोहा 04

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चौपाई :सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी॥नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू॥1॥ भावार्थ:- अपने जी में गुरुजी को सब प्रकार से प्रसन्न जानकर, हर्षित होकर राजा कोमल वाणी से बोले- हे नाथ! श्री रा  ......

अयोध्याकांड दोहा 05

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चौपाई :मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए॥कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए॥1॥ भावार्थ:- राजा आनंदित होकर महल में आए और उन्होंने सेवकों को तथा मंत्री सुमंत्र को बुलवाया। उन लोगों ने ‘जय-जीव’ कहकर सिर नव  ......

अयोध्याकांड दोहा 06

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चौपाई :हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी॥औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना॥1॥ भावार्थ:- मुनिराज ने हर्षित होकर कोमल वाणी से कहा कि सम्पूर्ण श्रेष्ठ तीर्थों का जल ले आओ। फिर उन्होंने औषधि, मूल, फूल, फल और पत्र   ......

अयोध्याकांड दोहा 07

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चौपाई :जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा॥बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा॥1॥ भावार्थ:- मुनीश्वर ने जिसको जिस काम के लिए आज्ञा दी, उसने वह काम (इतनी शीघ्रता से कर डाला कि) मानो पहले से ही कर रखा   ......

अयोध्याकांड दोहा 08

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चौपाई :प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए॥प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं॥1॥ भावार्थ:- सबसे पहले (रनिवास में) जाकर जिन्होंने ये वचन (समाचार) सुनाए, उन्होंने बहुत से आभूषण और वस्त्र पाए। रानियों का   ......

अयोध्याकांड दोहा 09

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चौपाई :तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए॥गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा॥1॥ भावार्थ:- तब राजा ने वशिष्ठजी को बुलाया और शिक्षा (समयोचित उपदेश) देने के लिए श्री रामचन्द्रजी के महल में भेजा। गुरु का आगमन सुन  ......

अयोध्याकांड दोहा 10

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चौपाई :बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥1॥ भावार्थ:-  श्री रामचन्द्रजी के गुण, शील और स्वभाव का बखान कर, मुनिराज प्रेम से पुलकित होकर बोले- (हे रामचन्द्रजी!) राजा (  ......

अयोध्याकांड दोहा 11

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चौपाई :बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना॥भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं॥1॥ भावार्थ:- बहुत प्रकार के बाजे बज रहे हैं। नगर के अतिशय आनंद का वर्णन नहीं हो सकता। सब लोग भरतजी का आगमन मना रहे हैं   ......

अयोध्याकांड दोहा 12

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चौपाई :सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती॥देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी॥1॥ भावार्थ:- देवताओं की विनती सुनकर सरस्वतीजी खड़ी-खड़ी पछता रही हैं कि (हाय!) मैं कमलवन के लिए हेमंत ऋतु की रात हुई। उ  ......

अयोध्याकांड दोहा 13

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चौपाई :दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा॥पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू॥1॥ भावार्थ:- मंथरा ने देखा कि नगर सजाया हुआ है। सुंदर मंगलमय बधावे बज रहे हैं। उसने लोगों से पूछा कि कैसा उत्सव है? (उनसे) श्री रा  ......

अयोध्याकांड दोहा 14

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चौपाई :कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई॥रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू॥1॥ भावार्थ:- (वह कहने लगी-) हे माई! हमें कोई क्यों सीख देगा और मैं किसका बल पाकर गाल करूँगी (बढ़-बढ़कर बोलूँगी)। रामचन्द्र को छोड़क  ......

अयोध्याकांड दोहा 15

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चौपाई :प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही॥सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई॥1॥ भावार्थ:- (और फिर बोलीं-) हे प्रिय वचन कहने वाली मंथरा! मैंने तुझको यह सीख दी है (शिक्षा के लिए इतनी बात कही है)। मु  ......

अयोध्याकांड दोहा 16

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चौपाई :एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी॥फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा॥1॥ भावार्थ:- (मंथरा ने कहा-) सारी आशाएँ तो एक ही बार कहने में पूरी हो गईं। अब तो दूसरी जीभ लगाकर कुछ कहूँगी। मेरा अभागा कपाल तो फोड़न  ......

अयोध्याकांड दोहा 17

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चौपाई :सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही॥तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी॥1॥ भावार्थ:- बार-बार रानी उससे आदर के साथ पूछ रही है, मानो भीलनी के गान से हिरनी मोहित हो गई हो। जैसी भावी (होनहार) है, वैसी ही   ......

अयोध्याकांड दोहा 18

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चौपाई :चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी॥पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानब रउरें॥1॥ भावार्थ:- राम की माता (कौसल्या) बड़ी चतुर और गंभीर है (उसकी थाह कोई नहीं पाता)। उसने मौका पाकर अपनी बात बना ली। राजा ने जो भरत को न  ......

अयोध्याकांड दोहा 19

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चौपाई :भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई॥का पूँछहु तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना॥1॥ भावार्थ:- होनहार वश कैकेयी के मन में विश्वास हो गया। रानी फिर सौगंध दिलाकर पूछने लगी। (मंथरा बोली-) क्या पूछती हो? अर  ......

अयोध्याकांड दोहा 20

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चौपाई :कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी॥तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी॥1॥ भावार्थ:- कैकेयी मन्थरा की कड़वी वाणी सुनते ही डरकर सूख गई, कुछ बोल नहीं सकती। शरीर में पसीना हो आया और वह केले की तरह काँप  ......

अयोध्याकांड दोहा 21

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चौपाई :नैहर जनमु भरब बरु जाई। जिअत न करबि सवति सेवकाई॥अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही॥1॥ भावार्थ:- मैं भले ही नैहर जाकर वहीं जीवन बिता दूँगी, पर जीते जी सौत की चाकरी नहीं करूँगी। दैव जिसको शत्रु के वश में रखकर जिलाता   ......

अयोध्याकांड दोहा 22

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चौपाई :कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई॥लखइ ना रानि निकट दुखु कैसें। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें॥1॥ भावार्थ:- कुबरी ने कैकेयी को (सब तरह से) कबूल करवाकर (अर्थात बलि पशु बनाकर) कपट रूप छुरी को अपने (कठोर) हृदय रूपी पत्थर पर ट  ......

अयोध्याकांड दोहा 23

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चौपाई :कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बुद्धि बखानी॥तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कई भइसि अधारा॥1॥ भावार्थ:- कुबरी को रानी ने प्राणों के समान प्रिय समझकर बार-बार उसकी बड़ी बुद्धि का बखान किया और बोली- संसार में मेरा तेरे   ......

अयोध्याकांड दोहा 24

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चौपाई :बाल सखा सुनि हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं॥प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी के बाल सखा राजतिलक का समाचार सुनकर हृदय में हर्षित होते हैं। वे दस-पाँच मिलकर श  ......

अयोध्याकांड दोहा 25

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चौपाई :कोपभवन सुनि सकुचेउ राऊ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ॥सुरपति बसइ बाहँबल जाकें। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥1॥ भावार्थ:- कोप भवन का नाम सुनकर राजा सहम गए। डर के मारे उनका पाँव आगे को नहीं पड़ता। स्वयं देवराज इन्द्र जिनकी भुजाओं के बल प  ......

अयोध्याकांड दोहा 26

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चौपाई :अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा॥कहु केहि रंकहि करौं नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥1॥ भावार्थ:- हे प्रिये! किसने तेरा अनिष्ट किया? किसके दो सिर हैं? यमराज किसको लेना (अपने लोक को ले जाना) चा  ......

अयोध्याकांड दोहा 27

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चौपाई :पुनि कह राउ सुहृद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥1॥ भावार्थ:- अपने जी में कैकेयी को सुहृद् जानकर राजा दशरथजी प्रेम से पुलकित होकर कोमल और सुंदर वाणी से फिर बोले- हे भामिन  ......

अयोध्याकांड दोहा 28

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चौपाई :जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥थाती राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥1॥ भावार्थ:- राजा ने हँसकर कहा कि अब मैं तुम्हारा मर्म (मतलब) समझा। मान करना तुम्हें परम प्रिय है। तुमने उन वरों को थाती   ......

अयोध्याकांड दोहा 29

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चौपाई :सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥1॥ भावार्थ:- (वह बोली-) हे प्राण प्यारे! सुनिए, मेरे मन को भाने वाला एक वर तो दीजिए, भरत को राजतिलक और हे नाथ! दूसरा वर भी मैं हाथ जो  ......

अयोध्याकांड दोहा 30

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चौपाई :एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥भरतु कि राउर पूत न होंही। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार राजा मन ही मन झींख रहे हैं। राजा का ऐसा बुरा हाल देखकर दुर्बुद्धि कैकेयी मन में बुरी तरह से क्  ......

अयोध्याकांड दोहा 31

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चौपाई :आगें दीखि जरत सिर भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई॥1॥ भावार्थ:- प्रचंड क्रोध से जलती हुई कैकेयी सामने इस प्रकार दिखाई पड़ी, मानो क्रोध रूपी तलवार नंगी (म्यान से बाहर) खड़ी हो। कुब  ......

अयोध्याकांड दोहा 32

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चौपाई :राम सपथ सत कहउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥1॥ भावार्थ:- राम की सौ बार सौगंध खाकर मैं स्वभाव से ही कहता हूँ कि राम की माता (कौसल्या) ने (इस विषय में) मुझसे कभी कुछ नह  ......

अयोध्याकांड दोहा 33

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चौपाई :जिऐ मीन बरु बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥1॥ भावार्थ:- मछली चाहे बिना पानी के जीती रहे और साँप भी चाहे बिना मणि के दीन-दुःखी होकर जीता रहे, परन्तु मैं स्वभाव से ह  ......

अयोध्याकांड दोहा 34

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चौपाई :अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी॥पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर कुटिल कैकेयी उठ खड़ी हुई, मानो क्रोध की नदी उमड़ी हो। वह नदी पाप रूपी पहाड़ से प्रकट हुई है और क्रोध रूपी   ......

अयोध्याकांड दोहा 35

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चौपाई :ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥1॥ भावार्थ:- राजा व्याकुल हो गए, उनका सारा शरीर शिथिल पड़ गया, मानो हथिनी ने कल्पवृक्ष को उखाड़ फेंका हो। कंठ सूख गया, मुख  ......

अयोध्याकांड दोहा 36

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चौपाई :चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें॥सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥ भावार्थ:- भरत तो भूलकर भी राजपद नहीं चाहते। होनहारवश तेरे ही जी में कुमति आ बसी। यह सब मेरे पापों का परिणाम है, जिससे कु  ......

अयोध्याकांड दोहा 37

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चौपाई :राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू॥हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई॥1॥ भावार्थ:- राजा ‘राम-राम’ रट रहे हैं और ऐसे व्याकुल हैं, जैसे कोई पक्षी पंख के बिना बेहाल हो। वे अपने हृदय में मनाते हैं कि सबे  ......

अयोध्याकांड दोहा 38

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चौपाई :पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा॥जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥1॥ भावार्थ:- राजा नित्य ही रात के पिछले पहर जाग जाया करते हैं, किन्तु आज हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा है। हे सुमंत्र! जाओ, जाकर राजा  ......

अयोध्याकांड दोहा 39

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चौपाई :आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥चलेउ सुमंत्रु राय रुख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥1॥ भावार्थ:- तुम जल्दी राम को बुला लाओ। तब आकर समाचार पूछना। राजा का रुख जानकर सुमंत्रजी चले, समझ गए कि रानी ने कुछ कुचाल क  ......

अयोध्याकांड दोहा 40

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चौपाई :सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू॥सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरीं गनि लेई॥1॥ भावार्थ:- राजा के होठ सूख रहे हैं और सारा शरीर जल रहा है, मानो मणि के बिना साँप दुःखी हो रहा हो। पास ही क्रोध से भरी कैकेयी को   ......

अयोध्याकांड दोहा 41

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चौपाई :निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी॥जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥1॥ भावार्थ:- कैकेयी बेधड़क बैठी ऐसी कड़वी वाणी कह रही है, जिसे सुनकर स्वयं कठोरता भी अत्यन्त व्याकुल हो उठी। जीभ धनुष है, वचन ब  ......

अयोध्याकांड दोहा 42

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चौपाई :भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू॥जौं न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥1॥ भावार्थ:- और प्राण प्रिय भरत राज्य पावेंगे। (इन सभी बातों को देखकर यह प्रतीत होता है कि) आज विधाता सब प्रकार से   ......

अयोध्याकांड दोहा 43

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चौपाई :रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मैं कछु जाना॥1॥ भावार्थ:- रानी कैकेयी श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर हर्षित हो गई और कपटपूर्ण स्नेह दिखाकर बोली- तुम्हारी शपथ और भरत की सौगंध है, म  ......

अयोध्याकांड दोहा 44

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चौपाई :अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे॥सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे॥1॥ भावार्थ:- जब राजा ने सुना कि श्री रामचन्द्र पधारे हैं तो उन्होंने धीरज धरके नेत्र खोले। मंत्री ने संभालकर राजा को बैठाय  ......

अयोध्याकांड दोहा 45

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चौपाई :अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौं बरु सुरपुरु जाऊ॥सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही॥1॥ भावार्थ:- जगत में चाहे अपयश हो और सुयश नष्ट हो जाए। चाहे (नया पाप होने से) मैं नरक में गिरूँ, अथवा स्वर्ग चला जाए (पूर्व पुण्य  ......

अयोध्याकांड दोहा 46

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चौपाई :धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥1॥ भावार्थ:- (उन्होंने फिर कहा-) इस पृथ्वीतल पर उसका जन्म धन्य है, जिसके चरित्र सुनकर पिता को परम आनंद हो, जिसको माता-  ......

अयोध्याकांड दोहा 47

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चौपाई :मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकइहि गारी॥एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥1॥ भावार्थ:- सब मेल मिल गए थे (सब संयोग ठीक हो गए थे), इतने में ही विधाता ने बात बिगाड़ दी! जहाँ-तहाँ लोग कैकेयी को गाली दे रह  ......

अयोध्याकांड दोहा 48

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चौपाई :का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा॥एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा॥1॥ भावार्थ:- विधाता ने क्या सुनाकर क्या सुना दिया और क्या दिखाकर अब वह क्या दिखाना चाहता है! एक कहते हैं कि राजा ने अच  ......

अयोध्याकांड दोहा 49

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चौपाई :एक बिधातहि दूषनु देहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं॥खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू॥1॥ भावार्थ:- कोई एक विधाता को दोष देते हैं, जिसने अमृत दिखाकर विष दे दिया। नगर भर में खलबली मच गई, सब किसी को सोच हो गया। हृद  ......

अयोध्याकांड दोहा 50

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चौपाई :अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू॥भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥1॥ भावार्थ:- हृदय में ऐसा विचार कर क्रोध छोड़ दो, शोक और कलंक की कोठी मत बनो। भरत को अवश्य युवराजपद दो, पर श्री रामचंद्रजी का वन में   ......

अयोध्याकांड दोहा 51

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चौपाई :उतरु न देइ दुसह रिस रूखी। मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी॥ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी। चलीं कहत मतिमंद अभागी॥1॥ भावार्थ:- कैकेयी कोई उत्तर नहीं देती, वह दुःसह क्रोध के मारे रूखी (बेमुरव्वत) हो रही है। ऐसे देखती है मानो भूख  ......

अयोध्याकांड दोहा 52

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चौपाई :रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा॥दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे॥1॥ भावार्थ:- रघुकुल तिलक श्री रामचंद्रजी ने दोनों हाथ जोड़कर आनंद के साथ माता के चरणों में सिर नवाया। माता ने आशीर्वाद द  ......

अयोध्याकांड दोहा 53

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चौपाई :तात जाउँ बलि बेगि नाहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू॥पितु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ॥1॥ भावार्थ:- हे तात! मैं बलैया लेती हूँ, तुम जल्दी नहा लो और जो मन भावे, कुछ मिठाई खा लो। भैया! तब पिता के पास जाना। बहुत देर हो गई ह  ......

अयोध्याकांड दोहा 54

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चौपाई :बचन बिनीत मधुर रघुबर के। सर सम लगे मातु उर करके॥सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी। जिमि जवास परें पावस पानी॥1॥ भावार्थ:- रघुकुल में श्रेष्ठ श्री रामजी के ये बहुत ही नम्र और मीठे वचन माता के हृदय में बाण के समान लगे और कसकने लगे। उस श  ......

अयोध्याकांड दोहा 55

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चौपाई :राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू॥लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू॥1॥ भावार्थ:- न रख ही सकती हैं, न यह कह सकती हैं कि वन चले जाओ। दोनों ही प्रकार से हृदय में बड़ा भारी संताप हो रहा है। (मन में सो  ......

अयोध्याकांड दोहा 56

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चौपाई :जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता॥जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना॥1॥ भावार्थ:- हे तात! यदि केवल पिताजी की ही आज्ञा, हो तो माता को (पिता से) बड़ी जानकर वन को मत जाओ, किन्तु यदि पिता-माता दोनों ने वन  ......

अयोध्याकांड दोहा 57

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चौपाई :देव पितर सब तुम्हहि गोसाईं। राखहुँ पलक नयन की नाईं॥अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना॥1॥ भावार्थ:- हे गोसाईं! सब देव और पितर तुम्हारी वैसी ही रक्षा करें, जैसे पलकें आँखों की रक्षा करती हैं। तुम्हारे वनवा  ......

अयोध्याकांड दोहा 58

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चौपाई :दीन्हि असीस सासु मृदु बानी। अति सुकुमारि देखि अकुलानी॥बैठि नमित मुख सोचति सीता। रूप रासि पति प्रेम पुनीता॥1॥ भावार्थ:- सास ने कोमल वाणी से आशीर्वाद दिया। वे सीताजी को अत्यन्त सुकुमारी देखकर व्याकुल हो उठीं। रूप की राशि औ  ......

अयोध्याकांड दोहा 59

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चौपाई:मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई॥नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई॥1॥ भावार्थ:- फिर मैंने रूप की राशि, सुंदर गुण और शीलवाली प्यारी पुत्रवधू पाई है। मैंने इन (जानकी) को आँखों की पुतली बन  ......

अयोध्याकांड दोहा 60

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चौपाई :बन हित कोल किरात किसोरी। रचीं बिरंचि बिषय सुख भोरी॥पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ॥1॥ भावार्थ:- वन के लिए तो ब्रह्माजी ने विषय सुख को न जानने वाली कोल और भीलों की लड़कियों को रचा है, जिनका पत्थर के कीड़े जै  ......

अयोध्याकांड दोहा 61

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चौपाई :मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन माहीं॥राजकुमारि सिखावनु सुनहू। आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू॥1॥ भावार्थ:- माता के सामने सीताजी से कुछ कहने में सकुचाते हैं। पर मन में यह समझकर कि यह समय ऐसा ही है, वे बोले- हे राजकुमार  ......

अयोध्याकांड दोहा 62

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चौपाई :मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी॥दिवस जात नहिं लागिहि बारा। सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा॥1॥ भावार्थ:- हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो, मैं भी पिता के वचन को सत्य करके शीघ्र ही लौटूँगा। दिन जाते देर नहीं लगे  ......

अयोध्याकांड दोहा 63

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चौपाई :नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट बेष बिधि कोटिक करहीं॥लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी॥1॥ भावार्थ:- मनुष्यों को खाने वाले निशाचर (राक्षस) फिरते रहते हैं। वे करोड़ों प्रकार के कपट रूप धारण कर लेते हैं। पहाड़ का पानी   ......

अयोध्याकांड दोहा 64

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चौपाई :सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के। लोचन ललित भरे जल सिय के॥सीतल सिख दाहक भइ कैसें। चकइहि सरद चंद निसि जैसें॥1॥ भावार्थ:- प्रियतम के कोमल तथा मनोहर वचन सुनकर सीताजी के सुंदर नेत्र जल से भर गए। श्री रामजी की यह शीतल सीख उनको कैसी जला  ......

अयोध्याकांड दोहा 65

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चौपाई :मातु पिता भगिनी प्रिय भाई। प्रिय परिवारु सुहृदय समुदाई॥सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर सुसील सुखदाई॥1॥ भावार्थ:- माता, पिता, बहिन, प्यारा भाई, प्यारा परिवार, मित्रों का समुदाय, सास, ससुर, गुरु, स्वजन (बन्धु-बांधव), सहायक और   ......

अयोध्याकांड दोहा 66

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चौपाई :बनदेबीं बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम सारा॥कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई॥1॥ भावार्थ:- उदार हृदय के वनदेवी और वनदेवता ही सास-ससुर के समान मेरी सार-संभार करेंगे और कुशा और पत्तों की सुंदर साथरी (बिछौन  ......

अयोध्याकांड दोहा 67

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चौपाई :मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी॥सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं॥1॥ भावार्थ:- क्षण-क्षण में आपके चरण कमलों को देखते रहने से मुझे मार्ग चलने में थकावट न होगी। हे प्रियतम! मैं सभी प्रक  ......

अयोध्याकांड दोहा 68

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चौपाई :अस कहि सीय बिकल भइ भारी। बचन बियोगु न सकी सँभारी॥देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें नहिं राखिहि प्राना॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर सीताजी बहुत ही व्याकुल हो गईं। वे वचन के वियोग को भी न सम्हाल सकीं। (अर्थात शरीर से वियोग की बात   ......

अयोध्याकांड दोहा 69

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चौपाई :लखि सनेह कातरि महतारी। बचनु न आव बिकल भइ भारी॥राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना। समउ सनेहु न जाइ बखाना॥1॥ भावार्थ:- यह देखकर कि माता स्नेह के मारे अधीर हो गई हैं और इतनी अधिक व्याकुल हैं कि मुँह से वचन नहीं निकलता। श्री रामचन्द्र  ......

अयोध्याकांड दोहा 70

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चौपाई :समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए॥कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा॥1॥ भावार्थ:- जब लक्ष्मणजी ने समाचार पाए, तब वे व्याकुल होकर उदास मुँह उठ दौड़े। शरीर काँप रहा है, रोमांच हो रहा है, नेत्र आँसुओं से भ  ......

अयोध्याकांड दोहा 71

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चौपाई :अस जियँ जानि सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद सेवकाई॥भवन भरतु रिपुसूदनु नाहीं। राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीं॥1॥ भावार्थ:- हे भाई! हृदय में ऐसा जानकर मेरी सीख सुनो और माता-पिता के चरणों की सेवा करो। भरत और शत्रुघ्न घर पर नहीं है  ......

अयोध्याकांड दोहा 72

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चौपाई :दीन्हि मोहि सिख नीकि गोसाईं। लागि अगम अपनी कदराईं॥नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुँ ते अधिकारी॥1॥ भावार्थ:- हे स्वामी! आपने मुझे सीख तो बड़ी अच्छी दी है, पर मुझे अपनी कायरता से वह मेरे लिए अगम (पहुँच के बाहर) लगी। शास्त्र औ  ......

अयोध्याकांड दोहा 73

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चौपाई :मागहु बिदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन भाई॥मुदित भए सुनि रघुबर बानी। भयउ लाभ बड़ गइ बड़ि हानी॥1॥ भावार्थ:- (और कहा-) हे भाई! जाकर माता से विदा माँग आओ और जल्दी वन को चलो! रघुकुल में श्रेष्ठ श्री रामजी की वाणी सुनकर लक्ष्मणजी आन  ......

अयोध्याकांड दोहा 74

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चौपाई :धीरजु धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुहृद बोली मृदु बानी॥तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥1॥ भावार्थ:- परन्तु कुसमय जानकर धैर्य धारण किया और स्वभाव से ही हित चाहने वाली सुमित्राजी कोमल वाणी से बोलीं- हे तात! जान  ......

अयोध्याकांड दोहा 75

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चौपाई :पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी॥1॥ भावार्थ:- संसार में वही युवती स्त्री पुत्रवती है, जिसका पुत्र श्री रघुनाथजी का भक्त हो। नहीं तो जो राम से विमुख पुत्र  ......

अयोध्याकांड दोहा 76

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चौपाई :गए लखनु जहँ जानकिनाथू। भे मन मुदित पाइ प्रिय साथू॥बंदि राम सिय चरन सुहाए। चले संग नृपमंदिर आए॥1॥ भावार्थ:- लक्ष्मणजी वहाँ गए जहाँ श्री जानकीनाथजी थे और प्रिय का साथ पाकर मन में बड़े ही प्रसन्न हुए। श्री रामजी और सीताजी के   ......

अयोध्याकांड दोहा 77

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चौपाई :सकइ न बोलि बिकल नरनाहू। सोक जनित उर दारुन दाहू॥नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा॥1॥ भावार्थ:- राजा व्याकुल हैं, बोल नहीं सकते। हृदय में शोक से उत्पन्न हुआ भयानक सन्ताप है। तब रघुकुल के वीर श्री रामचन्द्रजी न  ......

अयोध्याकांड दोहा 78

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चौपाई :रायँ राम राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छलु त्यागी॥लखी राम रुख रहत न जाने। धरम धुरंधर धीर सयाने॥1॥ भावार्थ:- राजा ने इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी को रखने के लिए छल छोड़कर बहुत से उपाय किए, पर जब उन्होंने धर्मधुरंधर, धीर और बुद्ध  ......

अयोध्याकांड दोहा 79

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चौपाई :सीय सकुच बस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई॥मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु बानी॥1॥ भावार्थ:- सीताजी संकोचवश उत्तर नहीं देतीं। इन बातों को सुनकर कैकेयी तमककर उठी। उसने मुनियों के वस्त्र, आभूषण (माला, मेखला आदि)   ......

अयोध्याकांड दोहा 80

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चौपाई :निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव दाढ़े॥कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए॥1॥ भावार्थ:- राजमहल से निकलकर श्री रामचन्द्रजी वशिष्ठजी के दरवाजे पर जा खड़े हुए और देखा कि सब लोग विरह की अग्नि में जल   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 81

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चौपाई :एहि बिधि राम सबहि समुझावा। गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा॥गनपति गौरि गिरीसु मनाई। चले असीस पाइ रघुराई॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार श्री रामजी ने सबको समझाया और हर्षित होकर गुरुजी के चरणकमलों में सिर नवाया। फिर गणेशजी, पार्वतीजी और   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 82

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चौपाई :जौं नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई॥तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी॥1॥॥ भावार्थ:- यदि धैर्यवान दोनों भाई न लौटें- क्योंकि श्री रघुनाथजी प्रण के सच्चे और दृढ़ता से नियम का पालन करन  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 83

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चौपाई :तब सुमंत्र नृप बचन सुनाए। करि बिनती रथ रामु चढ़ाए॥चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई॥1॥ भावार्थ:- तब (वहाँ पहुँचकर) सुमंत्र ने राजा के वचन श्री रामचन्द्रजी को सुनाए और विनती करके उनको रथ पर चढ़ाया। सीताजी सह  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 84

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चौपाई :राम बियोग बिकल सब ठाढ़े। जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढ़े॥नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर नारी॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी के वियोग में सभी व्याकुल हुए जहाँ-तहाँ (ऐसे चुपचाप स्थिर होकर) खड़े हैं, मानो तसवीरों में लिखकर  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 85

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चौपाई :रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी। सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी॥करुनामय रघुनाथ गोसाँई। बेगि पाइअहिं पीर पराई॥1॥ भावार्थ:- प्रजा को प्रेमवश देखकर श्री रघुनाथजी के दयालु हृदय में बड़ा दुःख हुआ। प्रभु श्री रघुनाथजी करुणामय हैं। परा  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 86

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चौपाई :जागे सकल लोग भएँ भोरू। गे रघुनाथ भयउ अति सोरू॥रथ कर खोज कतहुँ नहिं पावहिं। राम राम कहि चहुँ दिसि धावहिं॥1॥ भावार्थ:- सबेरा होते ही सब लोग जागे, तो बड़ा शोर मचा कि रघुनाथजी चले गए। कहीं रथ का खोज नहीं पाते, सब ‘हा राम! हा राम!’ प  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 87

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चौपाई :सीता सचिव सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुँचे जाई॥उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी॥1॥ भावार्थ:- सीताजी और मंत्री सहित दोनों भाई श्रृंगवेरपुर जा पहुँचे। वहाँ गंगाजी को देखकर श्री रामजी रथ से उतर पड़े और बड़े हर्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 88

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चौपाई :यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई॥लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हियँ हरषु अपारा॥1॥ भावार्थ:- जब निषादराज गुह ने यह खबर पाई, तब आनंदित होकर उसने अपने प्रियजनों और भाई-बंधुओं को बुला लिया और भेंट देने  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 89

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चौपाई :राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी॥ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को देखकर गाँव के स्त्री-पुरुष प्रेम के साथ चर्चा करते हैं। (कोई कहती है  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 90

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चौपाई :उठे लखनु प्रभु सोवत जानी। कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी॥कछुक दूरि सजि बान सरासन। जागन लगे बैठि बीरासन॥1॥ भावार्थ:- फिर प्रभु श्री रामचन्द्रजी को सोते जानकर लक्ष्मणजी उठे और कोमल वाणी से मंत्री सुमंत्रजी को सोने के लिए कहकर व  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 91

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चौपाई :बिबिध बसन उपधान तुराईं। छीर फेन मृदु बिसद सुहाईं॥तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं। निज छबि रति मनोज मदु हरहीं॥1॥ भावार्थ:- जहाँ (ओढ़ने-बिछाने के) अनेकों वस्त्र, तकिए और गद्दे हैं, जो दूध के फेन के समान कोमल, निर्मल (उज्ज्वल) और सुंद  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 92

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चौपाई :भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी। कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी॥भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी॥1॥ भावार्थ:- वह सूर्यकुल रूपी वृक्ष के लिए कुल्हाड़ी हो गई। उस कुबुद्धि ने सम्पूर्ण विश्व को दुःखी कर दिया। श्री राम-सी  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 93

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चौपाई :अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू॥मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥1॥ भावार्थ:- ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिए और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए। सब लोग मोह रूपी रात्रि में सोने वाले ह  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 94

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चौपाई :सखा समुझि अस परिहरि मोहू। सिय रघुबीर चरन रत होहू॥कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मंगल सुखदारा॥1॥ भावार्थ:- हे सखा! ऐसा समझ, मोह को त्यागकर श्री सीतारामजी के चरणों में प्रेम करो। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी के गुण कहते-कहते   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 95

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चौपाई :तात कृपा करि कीजिअ सोई। जातें अवध अनाथ न होई॥मंत्रिहि राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा॥1॥ भावार्थ:- (और कहा -) हे तात ! कृपा करके वही कीजिए जिससे अयोध्या अनाथ न हो श्री रामजी ने मंत्री को उठाकर धैर्य बँधाते हुए समझ  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 96

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चौपाई :तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें। बिनती करउँ तात कर जोरें॥सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारें॥1॥ भावार्थ:- आप भी पिता के समान ही मेरे बड़े हितैषी हैं। हे तात! मैं हाथ जोड़कर आप से विनती करता हूँ कि आपका भी   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 97

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चौपाई :बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती। आरति प्रीति न सो कहि जाती॥पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना॥1॥ भावार्थ:- राजा ने जिस तरह (जिस दीनता और प्रेम से) विनती की है, वह दीनता और प्रेम कहा नहीं जा सकता। कृपानिधान श  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 98

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चौपाई :पितु बैभव बिलास मैं डीठा। नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा॥सुखनिधान अस पितु गृह मोरें। पिय बिहीन मन भाव न भोरें॥1॥ भावार्थ:- मैंने पिताजी के ऐश्वर्य की छटा देखी है, जिनके चरण रखने की चौकी से सर्वशिरोमणि राजाओं के मुकुट मिलते है  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 99

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चौपाई :प्राननाथ प्रिय देवर साथा। बीर धुरीन धरें धनु भाथा॥नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें। मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें॥1॥ भावार्थ:- वीरों में अग्रगण्य तथा धनुष और (बाणों से भरे) तरकश धारण किए मेरे प्राणनाथ और प्यारे देवर साथ हैं  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 100

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चौपाई :जासु बियोग बिकल पसु ऐसें। प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें॥बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥1॥ भावार्थ:- जिनके वियोग में पशु इस प्रकार व्याकुल हैं, उनके वियोग में प्रजा, माता और पिता कैसे जीते रहेंगे? श्री रामचन्द  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 101

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चौपाई :कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥बेगि आनु जलपाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥1॥ भावार्थ:- कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी केवट से मुस्कुराकर बोले भाई! तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाए। जल्दी पानी ला और पैर  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 102

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चौपाई :उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामुगुह लखन समेता॥केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥1॥ भावार्थ:- निषादराज और लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी (नाव से) उतरकर गंगाजी की रेत (बालू) में खड़े हो  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 103

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चौपाई :तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा। पूजि पारथिव नायउ माथा॥सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी॥1॥ भावार्थ:- फिर रघुकुल के स्वामी श्री रामचन्द्रजी ने स्नान करके पार्थिव पूजा की और शिवजी को सिर नवाया। सीताजी ने हाथ जो  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 104

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चौपाई :गंग बचन सुनि मंगल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकूला॥तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू॥1॥ भावार्थ:- मंगल के मूल गंगाजी के वचन सुनकर और देवनदी को अनुकूल देखकर सीताजी आनंदित हुईं। तब प्रभु श्री रामचन्द्रजी न  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 105

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चौपाई :तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू। लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू॥प्रात प्रातकृत करि रघुराई। तीरथराजु दीख प्रभु जाई॥1॥ भावार्थ:- उस दिन पेड़ के नीचे निवास हुआ। लक्ष्मणजी और सखा गुह ने (विश्राम की) सब सुव्यवस्था कर दी। प्रभु श्री रामचन्द्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 106

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चौपाई :को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥1॥ भावार्थ:- पापों के समूह रूपी हाथी के मारने के लिए सिंह रूप प्रयागराज का प्रभाव (महत्व-माहात्म्य) कौन कह सकता है। ऐसे सुहा  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 107

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चौपाई :कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे। पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे॥कंद मूल फल अंकुर नीके। दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के॥1॥ भावार्थ:- कुशल पूछकर मुनिराज ने उनको आसन दिए और प्रेम सहित पूजन करके उन्हें संतुष्ट कर दिया। फिर मानो अमृत के ही बने  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 108

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चौपाई :सुनि मुनि बचन रामु सकुचाने। भाव भगति आनंद अघाने॥तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा। कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा॥1॥ भावार्थ:- मुनि के वचन सुनकर, उनकी भाव-भक्ति के कारण आनंद से तृप्त हुए भगवान श्री रामचन्द्रजी (लीला की दृष्टि से) सकु  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 109

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चौपाई :राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं॥मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं। सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं॥1॥ भावार्थ:- (चलते समय) बड़े प्रेम से श्री रामजी ने मुनि से कहा- हे नाथ! बताइए हम किस मार्ग से जाएँ। मुनि मन में हँसक  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 110

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चौपाई :सुनत तीरबासी नर नारी। धाए निज निज काज बिसारी॥लखन राम सिय सुंदरताई। देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई॥1॥ भावार्थ:- यमुनाजी के किनारे पर रहने वाले स्त्री-पुरुष (यह सुनकर कि निषाद के साथ दो परम सुंदर सुकुमार नवयुवक और एक परम सुंदरी स  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 111

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चौपाई :राम सप्रेम पुलकि उर लावा। परम रंक जनु पारसु पावा॥मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ। मिलत धरें तन कह सबु कोऊ॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी ने प्रेमपूर्वक पुलकित होकर उसको हृदय से लगा लिया। (उसे इतना आनंद हुआ) मानो कोई महादरिद्री मनुष्य पा  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 112

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चौपाई :पुनि सियँ राम लखन कर जोरी। जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी॥चले ससीय मुदित दोउ भाई। रबितनुजा कइ करत बड़ाई॥1॥ भावार्थ:- फिर सीताजी, श्री रामजी और लक्ष्मणजी ने हाथ जोड़कर यमुनाजी को पुनः प्रणाम किया और सूर्यकन्या यमुनाजी की बड़ाई क  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 113

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चौपाई :जे पुर गाँव बसहिं मग माहीं। तिन्हहि नाग सुर नगर सिहाहीं॥केहि सुकृतीं केहि घरीं बसाए। धन्य पुन्यमय परम सुहाए॥1॥ भावार्थ:- जो गाँव और पुरवे रास्ते में बसे हैं, नागों और देवताओं के नगर उनको देखकर प्रशंसा पूर्वक ईर्षा करते और   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 114

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चौपाई :सीता लखन सहित रघुराई। गाँव निकट जब निकसहिं जाई॥सुनि सब बाल बृद्ध नर नारी। चलहिं तुरत गृह काजु बिसारी॥1॥ भावार्थ:- सीताजी और लक्ष्मणजी सहित श्री रघुनाथजी जब किसी गाँव के पास जा निकलते हैं, तब उनका आना सुनते ही बालक-बूढ़े, स्त  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 115

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चौपाई :एक कलस भरि आनहिं पानी। अँचइअ नाथ कहहिं मृदु बानी॥सुनि प्रिय बचन प्रीति अति देखी। राम कृपाल सुसील बिसेषी॥1॥ भावार्थ:- कोई घड़ा भरकर पानी ले आते हैं और कोमल वाणी से कहते हैं- नाथ! आचमन तो कर लीजिए। उनके प्यारे वचन सुनकर और उनका   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 116

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चौपाई :बरनि न जाइ मनोहर जोरी। सोभा बहुत थोरि मति मोरी॥राम लखन सिय सुंदरताई। सब चितवहिं चित मन मति लाई॥1॥ भावार्थ:- उस मनोहर जोड़ी का वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योंकि शोभा बहुत अधिक है और मेरी बुद्धि थोड़ी है। श्री राम, लक्ष्मण और सीत  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 117

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चौपाई :कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे॥सुनि सनेहमय मंजुल बानी। सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी॥1॥ भावार्थ:- हे सुमुखि! कहो तो अपनी सुंदरता से करोड़ों कामदेवों को लजाने वाले ये तुम्हारे कौन हैं? उनकी ऐसी प्रेममयी सु  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 118

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चौपाई :पारबती सम पतिप्रिय होहू। देबि न हम पर छाड़ब छोहू॥पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी। जौं एहि मारग फिरिअ बहोरी॥1॥ भावार्थ:- और पार्वतीजी के समान अपने पति की प्यारी होओ। हे देवी! हम पर कृपा न छोड़ना (बनाए रखना)। हम बार-बार हाथ जोड़कर विनत  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 119

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चौपाई :फिरत नारि नर अति पछिताहीं। दैअहि दोषु देहिं मन माहीं॥सहित बिषाद परसपर कहहीं। बिधि करतब उलटे सब अहहीं॥1॥ भावार्थ:- लौटते हुए वे स्त्री-पुरुष बहुत ही पछताते हैं और मन ही मन दैव को दोष देते हैं। परस्पर (बड़े ही) विषाद के साथ कहत  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 120

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चौपाई :जौं ए कंदमूल फल खाहीं। बादि सुधादि असन जग माहीं॥एक कहहिं ए सहज सुहाए। आपु प्रगट भए बिधि न बनाए॥1॥ भावार्थ:- जो ये कन्द, मूल, फल खाते हैं, तो जगत में अमृत आदि भोजन व्यर्थ ही हैं। कोई एक कहते हैं- ये स्वभाव से ही सुंदर हैं (इनका सौं  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 121

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चौपाई :नारि सनेह बिकल बस होहीं। चकईं साँझ समय जनु सोहीं॥मृदु पद कमल कठिन मगु जानी। गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी॥1॥ भावार्थ:- स्त्रियाँ स्नेहवश विकल हो जाती हैं। मानो संध्या के समय चकवी (भावी वियोग की पीड़ा से) सोह रही हो। (दुःखी हो रही   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 122

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चौपाई :गाँव गाँव अस होइ अनंदू। देखि भानुकुल कैरव चंदू॥जे कछु समाचार सुनि पावहिं। ते नृप रानिहि दोसु लगावहिं॥1॥ भावार्थ:- सूर्यकुल रूपी कुमुदिनी को प्रफुल्लित करने वाले चन्द्रमा स्वरूप श्री रामचन्द्रजी के दर्शन कर गाँव-गाँव मे  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 123

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चौपाई :आगें रामु लखनु बने पाछें। तापस बेष बिराजत काछें॥उभय बीच सिय सोहति कैसें। ब्रह्म जीव बिच माया जैसें॥1॥ भावार्थ:- आगे श्री रामजी हैं, पीछे लक्ष्मणजी सुशोभित हैं। तपस्वियों के वेष बनाए दोनों बड़ी ही शोभा पा रहे हैं। दोनों के ब  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 124

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चौपाई :अजहुँ जासु उर सपनेहुँ काऊ। बसहुँ लखनु सिय रामु बटाऊ॥राम धाम पथ पाइहि सोई। जो पथ पाव कबहु मुनि कोई॥1॥ भावार्थ:- आज भी जिसके हृदय में स्वप्न में भी कभी लक्ष्मण, सीता, राम तीनों बटोही आ बसें, तो वह भी श्री रामजी के परमधाम के उस मा  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 125

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चौपाई :मुनि कहुँ राम दंडवत कीन्हा। आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा॥देखि राम छबि नयन जुड़ाने। करि सनमानु आश्रमहिं आने॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी ने मुनि को दण्डवत किया। विप्र श्रेष्ठ मुनि ने उन्हें आशीर्वाद दिया। श्री रामचन्द्रजी   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 126

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चौपाई :देखि पाय मुनिराय तुम्हारे। भए सुकृत सब सुफल हमारे॥॥अब जहँ राउर आयसु होई। मुनि उदबेगु न पावै कोई॥1॥ भावार्थ:- हे मुनिराज! आपके चरणों का दर्शन करने से आज हमारे सब पुण्य सफल हो गए (हमें सारे पुण्यों का फल मिल गया)। अब जहाँ आपकी आ  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 127

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चौपाई :जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे॥तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥1॥ भावार्थ:- हे राम! जगत दृश्य है, आप उसके देखने वाले हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को भी नचाने वाले हैं। जब वे भी आप  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 128

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चौपाई :सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने। सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने॥बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिअ रस बोरी॥1॥ भावार्थ:- मुनि के प्रेमरस से सने हुए वचन सुनकर श्री रामचन्द्रजी रहस्य खुल जाने के डर से सकुचाकर मन में मुस्कुराए  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 129

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चौपाई :प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा॥तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं॥1॥ भावार्थ:- जिसकी नासिका प्रभु (आप) के पवित्र और सुगंधित (पुष्पादि) सुंदर प्रसाद को नित्य आदर के साथ ग्रहण करती   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 130

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चौपाई :काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥1॥ भावार्थ:- जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह हैं, न लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है और न कपट, दम्भ और माया ही है-  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 131

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चौपाई :अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं॥नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका॥1॥ भावार्थ:- जो अवगुणों को छोड़कर सबके गुणों को ग्रहण करते हैं, ब्राह्मण और गो के लिए संकट सहते हैं, नीति-निपुणता   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 132

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चौपाई :एहि बिधि मुनिबर भवन देखाए। बचन सप्रेम राम मन भाए॥कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहउँ समय सुखदायक॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार मुनि श्रेष्ठ वाल्मीकिजी ने श्री रामचन्द्रजी को घर दिखाए। उनके प्रेमपूर्ण वचन श्री रामजी के मन को   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 133

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चौपाई :रघुबर कहेउ लखन भल घाटू। करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू॥लखन दीख पय उतर करारा। चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी ने कहा- लक्ष्मण! बड़ा अच्छा घाट है। अब यहीं कहीं ठहरने की व्यवस्था करो। तब लक्ष्मणजी ने पयस्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 134

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चौपाई :अमर नाग किंनर दिसिपाला। चित्रकूट आए तेहि काला॥राम प्रनामु कीन्ह सब काहू। मुदित देव लहि लोचन लाहू॥1॥ भावार्थ:- उस समय देवता, नाग, किन्नर और दिक्पाल चित्रकूट में आए और श्री रामचन्द्रजी ने सब किसी को प्रणाम किया। देवता नेत्र  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 135

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चौपाई :यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई॥कंद मूल फल भरि भरि दोना। चले रंक जनु लूटन सोना॥1॥ भावार्थ:- यह (श्री रामजी के आगमन का) समाचार जब कोल-भीलों ने पाया, तो वे ऐसे हर्षित हुए मानो नवों निधियाँ उनके घर ही पर आ गई हों। व  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 136

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चौपाई :धन्य भूमि बन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाउ तुम्ह धारा॥धन्य बिहग मृग काननचारी। सफल जनम भए तुम्हहि निहारी॥1॥ भावार्थ:- हे नाथ! जहाँ-जहाँ आपने अपने चरण रखे हैं, वे पृथ्वी, वन, मार्ग और पहाड़ धन्य हैं, वे वन में विचरने वाले पक्षी और पश  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 137

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चौपाई :रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी को केवल प्रेम प्यारा है, जो जानने वाला हो (जानना चाहता हो), वह जान ले। तब श्री रामचन्द्रजी ने प्र  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 138

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चौपाई :करि केहरि कपि कोल कुरंगा। बिगतबैर बिचरहिं सब संगा॥फिरत अहेर राम छबि देखी। होहिं मुदित मृग बृंद बिसेषी॥1॥ भावार्थ:- हाथी, सिंह, बंदर, सूअर और हिरन, ये सब वैर छोड़कर साथ-साथ विचरते हैं। शिकार के लिए फिरते हुए श्री रामचन्द्रजी क  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 139

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चौपाई :नयनवंत रघुबरहि बिलोकी। पाइ जनम फल होहिं बिसोकी॥परसि चरन रज अचर सुखारी। भए परम पद के अधिकारी॥1॥ भावार्थ:- आँखों वाले जीव श्री रामचन्द्रजी को देखकर जन्म का फल पाकर शोकरहित हो जाते हैं और अचर (पर्वत, वृक्ष, भूमि, नदी आदि) भगवान   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 140

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चौपाई :राम संग सिय रहति सुखारी। पुर परिजन गृह सुरति बिसारी॥छिनु छिनु पिय बिधु बदनु निहारी। प्रमुदित मनहुँ चकोर कुमारी॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी के साथ सीताजी अयोध्यापुरी, कुटुम्ब के लोग और घर की याद भूलकर बहुत ही सुखी रहती   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 141

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चौपाई :सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं। सोइ रघुनाथ करहिं सोइ कहहीं॥कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी॥1॥ भावार्थ:- सीताजी और लक्ष्मणजी को जिस प्रकार सुख मिले, श्री रघुनाथजी वही करते और वही कहते हैं। भगवान प्राची  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 142

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चौपाई :जोगवहिं प्रभुसिय लखनहि कैसें। पलक बिलोचन गोलक जैसें॥सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि॥1॥ भावार्थ:- प्रभु श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी की कैसी सँभाल रखते हैं, जैसे पलकें नेत्रों के गोलकों की।   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 143

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चौपाई :धरि धीरजु तब कहइ निषादू। अब सुमंत्र परिहरहु बिषादू॥तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता॥1॥ भावार्थ:- तब धीरज धरकर निषादराज कहने लगा- हे सुमंत्रजी! अब विषाद को छोड़िए। आप पंडित और परमार्थ के जानने वाले हैं।   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 144

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चौपाई :गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई। बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई॥चले अवध लेइ रथहि निषादा। होहिं छनहिं छन मगन बिषादा॥1॥ भावार्थ:- निषादराज गुह सारथी (सुमंत्रजी) को पहुँचाकर (विदा करके) लौटा। उसके विरह और दुःख का वर्णन नहीं किया जा सकत  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 145

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चौपाई :जिमि कुलीन तिय साधु सयानी। पतिदेवता करम मन बानी॥रहै करम बस परिहरि नाहू। सचिव हृदयँ तिमि दारुन दाहू॥1॥ भावार्थ:- जैसे किसी उत्तम कुलवाली, साधु स्वाभाव की, समझदार और मन, वचन, कर्म से पति को ही देवता मानने वाली पतिव्रता स्त्री   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 146

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चौपाई :पुछिहहिं दीन दुखित सब माता। कहब काह मैं तिन्हहि बिधाता।पूछिहि जबहिं लखन महतारी। कहिहउँ कवन सँदेस सुखारी॥1॥ भावार्थ:- जब दीन-दुःखी सब माताएँ पूछेंगी, तब हे विधाता! मैं उन्हें क्या कहूँगा? जब लक्ष्मणजी की माता मुझसे पूछेंग  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 147

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चौपाई :एहि बिधि करत पंथ पछितावा। तमसा तीर तुरत रथु आवा॥बिदा किए करि बिनय निषादा। फिरे पायँ परि बिकल बिषादा॥1॥ भावार्थ:- सुमंत्र इस प्रकार मार्ग में पछतावा कर रहे थे, इतने में ही रथ तुरंत तमसा नदी के तट पर आ पहुँचा। मंत्री ने विनय क  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 148

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चौपाई :अति आरति सब पूँछहिं रानी। उतरु न आव बिकल भइ बानी॥सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा। कहहु कहाँ नृपु तेहि तेहि बूझा॥1॥ भावार्थ:- अत्यन्त आर्त होकर सब रानियाँ पूछती हैं, पर सुमंत्र को कुछ उत्तर नहीं आता, उनकी वाणी विकल हो गई (रुक गई) है  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 149

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चौपाई :भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई॥सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी॥1॥ भावार्थ:- राजा ने सुमंत्र को हृदय से लगा लिया। मानो डूबते हुए आदमी को कुछ सहारा मिल गया हो। मंत्री को स्नेह के साथ पास बैठाकर   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 150

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चौपाई :पुनि पुनि पूँछत मंत्रिहि राऊ। प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ॥करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ। रामु लखनु सिय नयन देखाऊ॥1॥ भावार्थ:- राजा बार-बार मंत्री से पूछते हैं- मेरे प्रियतम पुत्रों का संदेसा सुनाओ। हे सखा! तुम तुरंत वही उपाय करो जिस  ......

अयोध्याकांड दोहा 151

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चौपाई :केवट कीन्हि बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिंगरौर गवाँई॥होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा॥1॥ भावार्थ:- केवट (निषादराज) ने बहुत सेवा की। वह रात सिंगरौर (श्रृंगवेरपुर) में ही बिताई। दूसरे दिन सबेरा होते ही बड़ का दूध म  ......

अयोध्याकांड दोहा 152

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चौपाई :पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी॥सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी॥1॥ भावार्थ:- हे तात! सब पुरवासियों और कुटुम्बियों से निहोरा (अनुरोध) करके मेरी विनती सुनाना कि वही मनुष्य मेरा सब प्रकार से ह  ......

अयोध्याकांड दोहा 153

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चौपाई :तेहि अवसर रघुबर रुख पाई। केवट पारहि नाव चलाई॥रघुकुलतिलक चले एहि भाँती। देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती॥1॥ भावार्थ:- उसी समय श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर केवट ने पार जाने के लिए नाव चला दी। इस प्रकार रघुवंश तिलक श्री रामचन्द्रजी   ......

अयोध्याकांड दोहा 154

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चौपाई :प्रान कंठगत भयउ भुआलू। मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू॥इंद्रीं सकल बिकल भइँ भारी। जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी॥1॥ भावार्थ:- राजा के प्राण कंठ में आ गए। मानो मणि के बिना साँप व्याकुल (मरणासन्न) हो गया हो। इन्द्रियाँ सब बहुत ही वि  ......

अयोध्याकांड दोहा 155

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चौपाई :धरि धीरजु उठि बैठ भुआलू। कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू॥कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही॥1॥ भावार्थ:- धीरज धरकर राजा उठ बैठे और बोले- सुमंत्र! कहो, कृपालु श्री राम कहाँ हैं? लक्ष्मण कहाँ हैं? स्नेही राम कहाँ ह  ......

अयोध्याकांड दोहा 156

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चौपाई :जिअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा॥जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा॥1॥ भावार्थ:- जीने और मरने का फल तो दशरथजी ने ही पाया, जिनका निर्मल यश अनेकों ब्रह्मांडों में छा गया। जीते जी तो श्री रामचन्द्  ......

अयोध्याकांड दोहा 157

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चौपाई :तेल नावँ भरि नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा॥धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू॥1॥ भावार्थ:- वशिष्ठजी ने नाव में तेल भरवाकर राजा के शरीर को उसमें रखवा दिया। फिर दूतों को बुलवाकर उनसे ऐसा कहा- तुम लो  ......

अयोध्याकांड दोहा 158

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चौपाई :चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित सैल बन बाँके॥हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई॥1॥ भावार्थ:- हवा के समान वेग वाले घोड़ों को हाँकते हुए वे विकट नदी, पहाड़ तथा जंगलों को लाँघते हुए चले। उनके हृदय में बड़ा स  ......

अयोध्याकांड दोहा 159

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श्री भरत-शत्रुघ्न का आगमन और शोक चौपाई:हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी॥आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि॥1॥ भावार्थ:- बाजार और रास्ते देखे नहीं जाते। मानो नगर में दसों दिशाओं में दावाग्नि   ......

अयोध्याकांड दोहा 160

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चौपाई :तात बात मैं सकल सँवारी। भै मंथरा सहाय बिचारी॥कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ॥1॥ भावार्थ:- हे तात! मैंने सारी बात बना ली थी। बेचारी मंथरा सहायक हुई। पर विधाता ने बीच में जरा सा काम बिगाड़ दिया। वह यह कि र  ......

अयोध्याकांड दोहा 161

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चौपाई:बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुँ जरे पर लोनु लगावति॥तात राउ नहिं सोचै जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू॥1॥ भावार्थ:- पुत्र को व्याकुल देखकर कैकेयी समझाने लगी। मानो जले पर नमक लगा रही हो। (वह बोली-) हे तात! राजा सोच करने योग  ......

अयोध्याकांड दोहा 162

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चौपाई :जब मैं कुमति कुमत जियँ ठयऊ। खंड खंड होइ हृदउ न गयऊ॥बर मागत मन भइ नहिं पीरा। गरि न जीह मुँह परेउ न कीरा॥1॥ भावार्थ:- अरी कुमति! जब तूने हृदय में यह बुरा विचार (निश्चय) ठाना, उसी समय तेरे हृदय के टुकड़े-टुकड़े (क्यों) न हो गए? वरदान मा  ......

अयोध्याकांड दोहा 163

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चौपाई :सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई। जरहिं गात रिस कछु न बसाई॥तेहि अवसर कुबरी तहँ आई। बसन बिभूषन बिबिध बनाई॥1॥ भावार्थ:- माता की कुटिलता सुनकर शत्रुघ्नजी के सब अंग क्रोध से जल रहे हैं, पर कुछ वश नहीं चलता। उसी समय भाँति-भाँति के कपड़  ......

अयोध्याकांड दोहा 164

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चौपाई :भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुचित अवनि परी झइँ आई॥देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी॥1॥ भावार्थ:- भरत को देखते ही माता कौसल्याजी उठ दौड़ीं। पर चक्कर आ जाने से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। यह देखते ही भरतजी बड़  ......

अयोध्याकांड दोहा 165

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चौपाई :सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥1॥ भावार्थ:- सरल स्वभाव वाली माता ने बड़े प्रेम से भरतजी को छाती से लगा लिया, मानो श्री रामजी ही लौटकर आ गए हों। फिर लक्ष्मण  ......

अयोध्याकांड दोहा 166

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चौपाई :मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू। सब कर सब बिधि करि परितोषू॥चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनुरागी॥1॥ भावार्थ:- उनका मुख प्रसन्न था, मन में न आसक्ति थी, न रोष (द्वेष)। सबका सब तरह से संतोष कराकर वे वन को चले। यह सुनकर सीता भ  ......

अयोध्याकांड दोहा 167

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चौपाई :बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई। कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई॥भाँति अनेक भरतु समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए॥1॥ भावार्थ:- भरत, शत्रुघ्न दोनों भाई विकल होकर विलाप करने लगे। तब कौसल्याजी ने उनको हृदय से लगा लिया। अनेकों प्रकार से भरतजी  ......

अयोध्याकांड दोहा 168

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चौपाई :बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं। पिसुन पराय पाप कहि देहीं॥कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी॥1॥ भावार्थ:- जो लोग वेदों को बेचते हैं, धर्म को दुह लेते हैं, चुगलखोर हैं, दूसरों के पापों को कह देते हैं, जो कपटी, कु  ......

अयोध्याकांड दोहा 169

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चौपाई :राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे॥बिधु बिष चवै स्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी॥1॥ भावार्थ:- श्री राम तुम्हारे प्राणों से भी बढ़कर प्राण (प्रिय) हैं और तुम भी श्री रघुनाथ को प्राणों स  ......

अयोध्याकांड दोहा 170

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चौपाई :नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमानु बनावा॥गाहि पदभरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी॥1॥ भावार्थ:- वेदों में बताई हुई विधि से राजा की देह को स्नान कराया गया और परम विचित्र विमान बनाया गया। भरतजी ने सब माताओ  ......

अयोध्याकांड दोहा 171

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चौपाई :पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी। सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी॥सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए॥1॥ भावार्थ:- पिताजी के लिए भरतजी ने जैसी करनी की वह लाखों मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती। तब शुभ दिन शोधकर श्रेष्ठ मुनि  ......

अयोध्याकांड दोहा 172

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चौपाई :अस बिचारि केहि देइअ दोसू। ब्यरथ काहि पर कीजिअ रोसू॥तात बिचारु करहु मन माहीं। सोच जोगु दसरथु नृपु नाहीं॥1॥ भावार्थ:- ऐसा विचार कर किसे दोष दिया जाए? और व्यर्थ किस पर क्रोध किया जाए? हे तात! मन में विचार करो। राजा दशरथ सोच करने   ......

अयोध्याकांड दोहा 173

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चौपाई :बैखानस सोइ सोचै जोगू। तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू॥सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बंधु बिरोधी॥1॥ भावार्थ:- वानप्रस्थ वही सोच करने योग्य है, जिसको तपस्या छोड़कर भोग अच्छे लगते हैं। सोच उसका करना चाहिए जो चुगलखोर है, बिन  ......

अयोध्याकांड दोहा 174

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चौपाई :सब प्रकार भूपति बड़भागी। बादि बिषादु करिअ तेहि लागी॥यह सुनि समुझि सोचु परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू॥1॥ भावार्थ:- राजा सब प्रकार से बड़भागी थे। उनके लिए विषाद करना व्यर्थ है। यह सुन और समझकर सोच त्याग दो और राजा की आज्ञा   ......

अयोध्याकांड दोहा 175

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चौपाई :अवसि नरेस बचन फुर करहू। पालहु प्रजा सोकु परिहरहू॥सुरपुर नृपु पाइहि परितोषू। तुम्ह कहुँ सुकृतु सुजसु नहिं दोषू॥1॥ भावार्थ:- राजा का वचन अवश्य सत्य करो। शोक त्याग दो और प्रजा का पालन करो। ऐसा करने से स्वर्ग में राजा संतोष प  ......

अयोध्याकांड दोहा 176

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चौपाई :कौसल्या धरि धीरजु कहई। पूत पथ्य गुर आयसु अहई॥सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी॥1॥ भावार्थ:- कौसल्याजी भी धीरज धरकर कह रही हैं- हे पुत्र! गुरुजी की आज्ञा पथ्य रूप है। उसका आदर करना चाहिए और हित मानकर उसका पालन   ......

अयोध्याकांड दोहा 177

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चौपाई :मोहि उपदेसु दीन्ह गुरु नीका। प्रजा सचिव संमत सबही का॥मातु उचित धरि आयसु दीन्हा। अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा॥1॥ भावार्थ:- गुरुजी ने मुझे सुंदर उपदेश दिया। (फिर) प्रजा, मंत्री आदि सभी को यही सम्मत है। माता ने भी उचित समझकर ही आज  ......

अयोध्याकांड दोहा 178

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चौपाई :हित हमार सियपति सेवकाईं। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाईं॥मैं अनुमानि दीख मन माहीं। आन उपायँ मोर हित नाहीं॥1॥ भावार्थ:- मेरा कल्याण तो सीतापति श्री रामजी की चाकरी में है, सो उसे माता की कुटिलता ने छीन लिया। मैंने अपने मन में अनु  ......

अयोध्याकांड दोहा 179

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चौपाई :कहउँ साँचु सब सुनि पतिआहू। चाहिअ धरमसील नरनाहू॥मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं। रसा रसातल जाइहि तबहीं॥1॥ भावार्थ:- मैं सत्य कहता हूँ, आप सब सुनकर विश्वास करें, धर्मशील को ही राजा होना चाहिए। आप मुझे हठ करके ज्यों ही राज्य देंगे  ......

अयोध्याकांड दोहा 180

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चौपाई :कैकेई भव तनु अनुरागे। पावँर प्रान अघाइ अभागे॥जौं प्रिय बिरहँ प्रान प्रिय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे॥1॥ भावार्थ:- कैकेयी से उत्पन्न देह में प्रेम करने वाले ये पामर प्राण भरपेट (पूरी तरह से) अभागे हैं। जब प्रिय के वियोग में   ......

अयोध्याकांड दोहा 181

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चौपाई :कैकइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई॥दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई॥1॥ भावार्थ:- कैकेयी के लड़के के लिए संसार में जो कुछ योग्य था, चतुर विधाता ने मुझे वही दिया। पर ‘दशरथजी का पुत्र’ और ‘राम का छ  ......

अयोध्याकांड दोहा 182

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चौपाई :गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना॥मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ॥1॥ भावार्थ:- गुरुजी ज्ञान के समुद्र हैं, इस बात को सारा जगत्‌ जानता है, जिसके लिए विश्व हथेली पर रखे हुए बेर के समान है,   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 183

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चौपाई :आन उपाउ मोहि नहिं सूझा। को जिय कै रघुबर बिनु बूझा॥एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं॥1॥ भावार्थ:- मुझे दूसरा कोई उपाय नहीं सूझता। श्री राम के बिना मेरे हृदय की बात कौन जान सकता है? मन में एक ही आँक (निश्चयपू  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 184

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चौपाई :भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे॥लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे॥1॥ भावार्थ:- भरतजी के वचन सबको प्यारे लगे। मानो वे श्री रामजी के प्रेमरूपी अमृत में पगे हुए थे। श्री रामवियोग रूपी भीषण व  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 185

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चौपाई :भा सब कें मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा॥चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के॥1॥ भावार्थ:- सबके मन में कम आनंद नहीं हुआ (अर्थात बहुत ही आनंद हुआ)! मानो मेघों की गर्जना सुनकर चातक और मोर आनंदित हो रह  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 186

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चौपाई :घर घर साजहिं बाहन नाना। हरषु हृदयँ परभात पयाना॥भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू॥1॥ भावार्थ:- घर-घर लोग अनेकों प्रकार की सवारियाँ सजा रहे हैं। हृदय में (बड़ा) हर्ष है कि सबेरे चलना है। भरतजी ने घर जाकर विचार कि  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 187

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चौपाई :चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी। चहत प्रात उर आरत भारी॥जागत सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना॥1॥ भावार्थ:- नगर के नर-नारी चकवे-चकवी की भाँति हृदय में अत्यन्त आर्त होकर प्रातःकाल का होना चाहते हैं। सारी रात जागते-जागते   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 188

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चौपाई :राम दरस बस सब नर नारी। जनु करि करिनि चले तकि बारी॥बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी के दर्शन के वश में हुए (दर्शन की अनन्य लालसा से) सब नर-नारी ऐसे चले मानो प्यासे हाथी-हथिनी ज  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 189

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चौपाई :सई तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब निअराने॥समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा॥1॥ भावार्थ:- रात भर सई नदी के तीर पर निवास करके सबेरे वहाँ से चल दिए और सब श्रृंगवेरपुर के समीप जा पहुँचे। निषादराज ने सब समाचार स  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 190

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चौपाई :होहु सँजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा॥सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ॥1॥ भावार्थ:- सुसज्जित होकर घाटों को रोक लो और सब लोग मरने के साज सजा लो (अर्थात भरत से युद्ध में लड़कर मरने के लिए तैयार हो जाओ)। मैं   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 191

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चौपाई :बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ। सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ॥भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढ़ावइ करषा॥1॥ भावार्थ:- (उसने कहा-) हे भाइयों! जल्दी करो और सब सामान सजाओ। मेरी आज्ञा सुनकर कोई मन में कायरता न लावे। सब हर्ष के साथ बोल उठे- हे   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 192

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चौपाई :राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे॥जीवन पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं॥1॥ भावार्थ:- हे नाथ! श्री रामचन्द्रजी के प्रताप से और आपके बल से हम लोग भरत की सेना को बिना वीर और बिना घोड़े की कर देंगे (एक  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 193

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चौपाई :लखब सनेहु सुभायँ सुहाएँ। बैरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ॥अस कहि भेंट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे॥1॥ भावार्थ:- उनके सुंदर स्वभाव से मैं उनके स्नेह को पहचान लूँगा। वैर और प्रेम छिपाने से नहीं छिपते। ऐसा कहकर वह भेंट का  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 194

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चौपाई :भेंटत भरतु ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती॥धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला॥1॥ भावार्थ:- भरतजी गुह को अत्यन्त प्रेम से गले लगा रहे हैं। प्रेम की रीति को सब लोग सिहा रहे हैं (ईर्षापूर्वक प्रश  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 195

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चौपाई :नहिं अचिरिजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई॥राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवध लोग सुखु लहहीं॥1॥ भावार्थ:- इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, युग-युगान्तर से यही रीति चली आ रही है। श्री रघुनाथजी ने किसको बड़ाई नहीं दी?  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 196

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चौपाई :कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती॥राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें॥1॥ भावार्थ:- मैं कपटी, कायर, कुबुद्धि और कुजाति हूँ और लोक-वेद दोनों से सब प्रकार से बाहर हूँ। पर जब से श्री रामचन्द्रजी ने मुझे   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 197

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चौपाई :सृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अंग सिथिल तब॥सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू॥1॥ भावार्थ:- भरतजी ने जब श्रृंगवेरपुर को देखा, तब उनके सब अंग प्रेम के कारण शिथिल हो गए। वे निषाद को लाग दिए (अर्थात उसके कंधे  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 198

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चौपाई :जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा। भरत सोधु सबही कर लीन्हा॥सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गे दोउ भाई॥1॥ भावार्थ:- लोगों ने जहाँ-तहाँ डेरा डाल दिया। भरतजी ने सभी का पता लगाया (कि सब लोग आकर आराम से टिक गए हैं या नहीं)। फिर देव पू  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 199

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चौपाई :कुस साँथरी निहारि सुहाई। कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई॥चरन देख रज आँखिन्ह लाई। बनइ न कहत प्रीति अधिकाई॥1॥ भावार्थ:- कुशों की सुंदर साथरी देखकर उसकी प्रदक्षिणा करके प्रणाम किया। श्री रामचन्द्रजी के चरण चिह्नों की रज आँखों  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 200

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चौपाई :लालन जोगु लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहहिं न होने॥पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुबीरहि प्रानपिआरे॥1॥ भावार्थ:- मेरे छोटे भाई लक्ष्मण बहुत ही सुंदर और प्यार करने योग्य हैं। ऐसे भाई न तो किसी के हुए, न हैं, न होने के ही हैं  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 201

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चौपाई :राम सुना दुखु कान न काऊ। जीवनतरु जिमि जोगवइ राउ॥पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी ने कानों से भी कभी दुःख का नाम नहीं सुना। महाराज स्वयं जीवन वृक्ष की तरह उनकी सार-सँभाल किय  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 202

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चौपाई :सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा॥यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी॥1॥ भावार्थ:- सखा के वचन सुनकर, हृदय में धीरज धरकर श्री रामचंद्रजी का स्मरण करते हुए भरतजी डेरे को चले। नगर के सारे स्त्री-पुरुष यह  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 203

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चौपाई :कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं॥साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा॥1॥ भावार्थ:- निषादराज को आगे करके पीछे सब माताओं की पालकियाँ चलाईं। छोटे भाई शत्रुघ्नजी को बुलाकर उनके साथ कर दिया। फ  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 204

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चौपाई :झलका झलकत पायन्ह कैसें। पंकज कोस ओस कन जैसें॥भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू॥1॥ भावार्थ:- उनके चरणों में छाले कैसे चमकते हैं, जैसे कमल की कली पर ओस की बूँदें चमकती हों। भरतजी आज पैदल ही चलकर आए हैं, यह समाचार सु  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 205

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चौपाई :जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही॥सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें॥1॥ भावार्थ:- स्वयं श्री रामचंद्रजी भी भले ही मुझे कुटिल समझें और लोग मुझे गुरुद्रोही तथा स्वामी द्रोही भले ही कहें, पर   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 206

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चौपाई :प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी॥कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेहु सीलु सुचि साँचा॥1॥ भावार्थ:- तीर्थराज प्रयाग में रहने वाले वनप्रस्थ, ब्रह्मचारी, गृहस्थ और उदासीन (संन्यासी) सब बहुत ही आनंदित हैं और दस  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 207

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चौपाई :यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ। लोकु बेदु बुध संमत दोऊ॥तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई॥1॥ भावार्थ:- यह कहते भी कोई भला न कहेगा, क्योंकि लोक और वेद दोनों ही विद्वानों को मान्य है, किन्तु हे तात! तुम्हारा निर्मल यश गाकर त  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 208

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चौपाई :सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना। भूरिभाग को तुम्हहि समाना॥यह तुम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता॥1॥ भावार्थ:- सो वह (श्री रामचन्द्रजी के चरणों का प्रेम) तो तुम्हारा धन, जीवन और प्राण ही है, तुम्हारे समान बड़भागी कौ  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 209

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चौपाई :नव बिधु बिमल तात जसु तोरा। रघुबर किंकर कुमुद चकोरा॥उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना॥1॥ भावार्थ:- हे तात! तुम्हारा यश निर्मल नवीन चन्द्रमा है और श्री रामचन्द्रजी के दास कुमुद और चकोर हैं (वह चन्द्रमा तो प्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 210

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चौपाई :कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहँ बस राम पेम मृगरूपा॥तात गलानि करहु जियँ जाएँ। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ॥1॥ भावार्थ:- (परन्तु उनसे भी बढ़कर) तुमने कीर्ति रूपी अनुपम चंद्रमा को उत्पन्न किया, जिसमें श्री राम प्रेम ही हिरन के (  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 211

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चौपाई :मुनि समाजु अरु तीरथराजू। साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू॥एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई॥1॥ भावार्थ:- मुनियों का समाज है और फिर तीर्थराज है। यहाँ सच्ची सौगंध खाने से भी भरपूर हानि होती है। इस स्थान में यदि कुछ बन  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 212

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चौपाई :एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती। भूख न बासर नीद न राती॥एहि कुरोग कर औषधु नाहीं। सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं॥1॥ भावार्थ:- इसी दुःख की जलन से निरंतर मेरी छाती जलती रहती है। मुझे न दिन में भूख लगती है, न रात को नींद आती है। मैंने मन ही मन   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 213

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चौपाई :सुनि मुनि बचन भरत हियँ सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू॥जानि गुरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी॥1॥ भावार्थ:- मुनि के वचन सुनकर भरत के हृदय में सोच हुआ कि यह बेमौके बड़ा बेढब संकोच आ पड़ा! फिर गुरुजनों की वाणी को महत्वपूर्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 214

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चौपाई :रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी। बड़भागिनि आपुहि अनुमानी॥कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई॥1॥ भावार्थ:- ऋद्धि-सिद्धि ने मुनिराज की आज्ञा को सिर चढ़ाकर अपने को बड़भागिनी समझा। सब सिद्धियाँ आपस में कहने लगीं- श्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 215

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चौपाई :मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका॥सुख समाजु नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहिं ग्यानी॥1॥ भावार्थ:- जब भरतजी ने मुनि के प्रभाव को देखा, तो उसके सामने उन्हें (इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर आदि) सभी लोकपालों के लोक तु  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 216

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चौपाई :कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाई मुनिहि सिरु सहित समाजा।रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दंडवत बिनय बहु भाषी॥1॥ भावार्थ:- (प्रातःकाल) भरतजी ने तीर्थराज में स्नान किया और समाज सहित मुनि को सिर नवाकर और ऋषि की आज्ञा तथा आशीर्वाद को   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 217

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चौपाई :जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे॥ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू॥1॥ भावार्थ:- रास्ते में असंख्य जड़-चेतन जीव थे। उनमें से जिनको प्रभु श्री रामचंद्रजी ने देखा, अथवा जिन्होंने प्रभु श्री रामचंद्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 218

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चौपाई :बचन सुनत सुरगुरु मुसुकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने॥मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया॥1॥ भावार्थ:- इंद्र के वचन सुनते ही देवगुरु बृहस्पतिजी मुस्कुराए। उन्होंने हजार नेत्रों वाले इंद्र को (ज्ञान रूपी) नेत्रोंरहि  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 219

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चौपाई :सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा॥मानत सुखु सेवक सेवकाईं। सेवक बैर बैरु अधिकाईं॥1॥ भावार्थ:- हे देवराज! हमारा उपदेश सुनो। श्री रामजी को अपना सेवक परम प्रिय है। वे अपने सेवक की सेवा से सुख मानते हैं और सेवक के   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 220

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चौपाई :सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी॥स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू॥1॥ भावार्थ:- प्रभु श्री रामचंद्रजी सत्यप्रतिज्ञ और देवताओं का हित करने वाले हैं और भरतजी श्री रामजी की आज्ञा के अनुसार   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 221

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चौपाई :जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहि सुपासू॥रातिहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी॥1॥ भावार्थ:- उस दिन यमुनाजी के किनारे निवास किया। समयानुसार सबके लिए (खान-पान आदि की) सुंदर व्यवस्था हुई (निषादराज का संकेत प  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 222

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चौपाई :कहहिं सप्रेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं॥बय बपु बरन रूपु सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली॥1॥ भावार्थ:- गाँवों की स्त्रियाँ एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक कहती हैं- सखी! ये राम-लक्ष्मण हैं कि नहीं? हे सखी! इनकी अवस्था, श  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 223

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चौपाई :भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥जो किछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई॥1॥ भावार्थ:- भरतजी का भाईपना, भक्ति और इनके आचरण कहने और सुनने से दुःख और दोषों के हरने वाले हैं। हे सखी! उनके संबंध में जो कुछ भी कहा ज  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 224

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चौपाई :निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा॥तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा॥1॥ भावार्थ:- (इस प्रकार) अपने गुणों सहित श्री रामचंद्रजी के गुणों की कथा सुनते और श्री रघुनाथजी को स्मरण करते हु  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 225

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चौपाई :मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू॥भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटिहि दुख दाहू॥1॥ भावार्थ: -सबको मंगलसूचक शकुन हो रहे हैं। सुख देने वाले (पुरुषों के दाहिने और स्त्रियों के बाएँ) नेत्र और भुजाएँ फड़क   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 226

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चौपाई :सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें॥जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥1॥ भावार्थ:- सब लोग श्री रामचंद्रजी के प्रेम के मारे शिथिल होने के कारण सूर्यास्त होने तक (दिनभर में) दो ही कोस चल पाए और  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 227

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चौपाई :बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू॥एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी॥1॥ भावार्थ:- सीतापति श्री रामचंद्रजी पुनः सोच के वश हो गए कि भरत के आने का क्या कारण है? फिर एक ने आकर ऐसा कहा कि उनके साथ में बड़ी भारी चतुरं  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 228

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चौपाई :बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मूढ़ मोह बस होहिं जनाई॥भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेमु सकल जगु जाना॥1॥ भावार्थ:- परंतु मूढ़ विषयी जीव प्रभुता पाकर मोहवश अपने असली स्वरूप को प्रकट कर देते हैं। भरत नीतिपरायण, साधु और चतुर हैं  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 229

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चौपाई :सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू॥भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काउ॥1॥ भावार्थ:- सहस्रबाहु, देवराज इंद्र और त्रिशंकु आदि किसको राजमद ने कलंक नहीं दिया? भरत ने यह उपाय उचित ही किया है, क्योंकि   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 230

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चौपाई :उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा॥बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा॥1॥ भावार्थ:- यों कहकर लक्ष्मणजी ने उठकर, हाथ जोड़कर आज्ञा माँगी। मानो वीर रस सोते से जाग उठा हो। सिर पर जटा बाँधकर कमर में तरक  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 231

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चौपाई :जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी॥तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा॥1॥ भावार्थ:- सारा जगत्‌ भय में डूब गया। तब लक्ष्मणजी के अपार बाहुबल की प्रशंसा करती हुई आकाशवाणी हुई- हे तात! तुम्हारे प्र  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 232

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चौपाई :तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई॥गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी॥1॥ भावार्थ:- अन्धकार चाहे तरुण (मध्याह्न के) सूर्य को निगल जाए। आकाश चाहे बादलों में समाकर मिल जाए। गो के खुर इतने जल में अग  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 233

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चौपाई :जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को॥कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा॥1॥ भावार्थ:- यदि जगत्‌ में भरत का जन्म न होता, तो पृथ्वी पर संपूर्ण धर्मों की धुरी को कौन धारण करता? हे रघुनाथजी! कविकुल के लि  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 234

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चौपाई :जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी। जौं सनमानहिं सेवकु मानी॥मोरें सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही॥1॥ भावार्थ:- चाहे मलिन मन जानकर मुझे त्याग दें, चाहे अपना सेवक मानकर मेरा सम्मान करें, (कुछ भी करें), मेरे तो श्री रामचंद  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 235

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चौपाई :सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने॥भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू॥1॥ भावार्थ:- भरतजी ने सेवक (गुह) के सब वचन सत्य जाने और वे आश्रम के समीप जा पहुँचे। वहाँ के वन और पर्वतों के समूह को देखा तो भरतजी   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 236

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चौपाई :बन प्रदेस मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे॥बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना॥1॥ भावार्थ:- वन रूपी प्रांतों में जो मुनियों के बहुत से निवास स्थान हैं, वही मानो शहरों, नगरों, गाँवों और खेड़ों का समूह है  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 237

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चौपाई :तब केवट ऊँचे चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई॥नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला॥1॥ भावार्थ:- तब केवट दौड़कर ऊँचे चढ़ गया और भुजा उठाकर भरजी से कहने लगा- हे नाथ! ये जो पाकर, जामुन, आम और तमाल के विशाल वृक्ष दिखाई देते   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 238

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चौपाई :सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगे भरत बिलोचन बारी॥करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई॥1॥ भावार्थ:- सखा के वचन सुनकर और वृक्षों को देखकर भरतजी के नेत्रों में जल उमड़ आया। दोनों भाई प्रणाम करते हुए चले। उनके प्रेम का   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 239

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चौपाई :सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा॥भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन॥1॥ भावार्थ:- सखा निषादराज सहित इस मनोहर जोड़ी को सघन वन की आड़ के कारण लक्ष्मणजी नहीं देख पाए। भरतजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के स  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 240

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चौपाई :सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन॥पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं। भूतल परे लकुट की नाईं॥1॥ भावार्थ:- छोटे भाई शत्रुघ्न और सखा निषादराज समेत भरतजी का मन (प्रेम में) मग्न हो रहा है। हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि सब भूल गए। हे ना  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 241

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चौपाई :मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी॥परम प्रेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥1॥ भावार्थ:- मिलन की प्रीति कैसे बखानी जाए? वह तो कविकुल के लिए कर्म, मन, वाणी तीनों से अगम है। दोनों भाई (भरतजी और श्री राम  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 242

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चौपाई :भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई॥पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे। अभिमत आसिष पाइ अनंदे॥1॥ भावार्थ:- तब लक्ष्मणजी ललककर (बड़ी उमंग के साथ) छोटे भाई शत्रुघ्न से मिले। फिर उन्होंने निषादराज को हृदय से लगा लिया  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 243

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चौपाई :सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू। सिय समीप राखे रिपुदवनू॥चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला॥1॥ भावार्थ:- गुरु का आगमन सुनकर शील के समुद्र श्री रामचन्द्रजी ने सीताजी के पास शत्रुघ्नजी को रख दिया और वे परम धीर, धर्मधुरंध  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 244

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चौपाई :आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना॥जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी॥1॥ भावार्थ:- दया की खान, सुजान भगवान श्री रामजी ने सब लोगों को दुःखी (मिलने के लिए व्याकुल) जाना। तब जो जिस भाव से मिलने का अभि  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 245

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चौपाई :गुरतिय पद बंदे दुहु भाईं। सहित बिप्रतिय जे सँग आईं॥गंग गौरिसम सब सनमानीं। देहिं असीस मुदित मृदु बानीं॥1॥ भावार्थ:- फिर दोनों भाइयों ने ब्राह्मणों की स्त्रियों सहित- जो भरतजी के साथ आई थीं, गुरुजी की पत्नी अरुंधतीजी के चरण  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 246

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चौपाई :सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस लही मन मागी॥गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता॥1॥ भावार्थ:- सीताजी आकर मुनि श्रेष्ठ वशिष्ठजी के चरणों लगीं और उन्होंने मन माँगी उचित आशीष पाई। फिर मुनियों की स्त्रियों   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 247

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चौपाई :बिकल सनेहँ सीय सब रानीं। बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं॥कहि जग गति मायिक मुनिनाथा॥ कहे कछुक परमारथ गाथा॥1॥ भावार्थ:- सीताजी और सब रानियाँ स्नेह के मारे व्याकुल हैं। तब ज्ञानी गुरु ने सबको बैठ जाने के लिए कहा। फिर मुनिनाथ वशिष  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 248

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चौपाई :करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी॥जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला॥1॥ भावार्थ:- वेदों में जैसा कहा गया है, उसी के अनुसार पिता की क्रिया करके, पाप रूपी अंधकार के नष्ट करने वाले सूर्यरूप श्री राम  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 249

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चौपाई :राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू॥सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकूला॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी के वचन सुनकर सारा समाज भयभीत हो गया। मानो बीच समुद्र में जहाज डगमगा गया हो, परन्तु जब उन्होंने ग  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 250

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चौपाई :कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी॥भरि भरि परन पुटीं रचि रूरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी॥1॥ भावार्थ:- कोल, किरात और भील आदि वन के रहने वाले लोग पवित्र, सुंदर एवं अमृत के समान स्वादिष्ट मधु (शहद) को सुंदर दोने बन  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 251

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चौपाई :तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे॥देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईंधनु पात किरात मिताई॥1॥ भावार्थ:- आप प्रिय पाहुने वन में पधारे हैं। आपकी सेवा करने के योग्य हमारे भाग्य नहीं हैं। हे स्वामी! हम आपको क्या दे  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 252

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चौपाई :पुर जन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं पलक सम बीती॥सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करइ सरिस सेवकाई॥1॥ भावार्थ:- अयोध्यापुरी के पुरुष और स्त्री सभी प्रेम में अत्यन्त मग्न हो रहे हैं। उनके दिन पल के समान बीत जाते हैं। जितनी सा  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 253

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चौपाई :कीन्हि मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली॥केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू॥1॥ भावार्थ:- (भरतजी सोचते हैं कि) माता के मिस से काल ने कुचाल की है। जैसे धान के पकते समय ईति का भय आ उपस्थित हो। अब श्री रामचन  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 254

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चौपाई :बोले मुनिबरु समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना॥धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू॥1॥ भावार्थ:- श्रेष्ठ मुनि वशिष्ठजी समयोचित वचन बोले- हे सभासदों! हे सुजान भरत! सुनो। सूर्यकुल के सूर्य महाराज श्री रामचन्द्र   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 255

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चौपाई :सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू॥केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी का राज्याभिषेक सबके लिए सुखदायक है। मंगल और आनंद का मूल यही एक मार्ग है। (अब) श्री रघुनाथजी अयोध्या   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 256

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चौपाई :तात बात फुरि राम कृपाहीं। राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं॥सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता॥1। भावार्थ:- (वे बोले-) हे तात! बात सत्य है, पर है रामजी की कृपा से ही। राम विमुख को तो स्वप्न में भी सिद्धि नहीं मिलती। हे त  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 257

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चौपाई :भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि भए बिदेहू॥भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी॥1॥ भावार्थ:- भरतजी के वचन सुनकर और उनका प्रेम देखकर सारी सभा सहित मुनि वशिष्ठजी विदेह हो गए (किसी को अपने देह की सुधि न रही)। भर  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 258

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चौपाई :आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जुआरिहि आपन दाऊ॥सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ॥ नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ॥1॥ भावार्थ:- आर्त (दुःखी) लोग कभी विचारकर नहीं कहते। जुआरी को अपना ही दाँव सूझता है। मुनि के वचन सुनकर श्री रघुनाथजी कहने लगे- हे   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 259

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चौपाई :गुर अनुरागु भरत पर देखी। राम हृदयँ आनंदु बिसेषी॥भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी॥1॥ भावार्थ:- भरतजी पर गुरुजी का स्नेह देखकर श्री रामचन्द्रजी के हृदय में विशेष आनंद हुआ। भरतजी को धर्मधुरंधर और तन, मन, वचन से अप  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 260

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चौपाई :सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई॥लखि अपनें सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू॥1॥ भावार्थ:- मुनि के वचन सुनकर और श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर गुरु तथा स्वामी को भरपेट अपने अनुकूल जानकर सारा बोझ   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 261

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चौपाई :बिधि न सकेऊ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा॥यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनीं समुझि साधु सुचि को भा॥1॥ भावार्थ:- परन्तु विधाता मेरा दुलार न सह सका। उसने नीच माता के बहाने (मेरे और स्वामी के बीच) अंतर डाल दिया। यह भी कहना आ  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 262

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चौपाई :भूपति मरन प्रेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी॥देखि न जाहिं बिकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारीं॥1॥ भावार्थ:- प्रेम के प्रण को निबाहकर महाराज (पिताजी) का मरना और माता की कुबुद्धि, दोनों का सारा संसार साक्षी है। माता  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 263

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चौपाई :सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरति प्रीति बिनय नय सानी॥सोक मगन सब सभाँ खभारू। मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू॥1॥ भावार्थ:- अत्यन्त व्याकुल तथा दुःख, प्रेम, विनय और नीति में सनी हुई भरतजी की श्रेष्ठ वाणी सुनकर सब लोग शोक में मग्न हो गए,   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 264

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चौपाई :कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी॥तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहिं दुरइ दुराएँ॥1॥ भावार्थ:- हे भरत! मैं स्वभाव से ही सत्य कहता हूँ, शिवजी साक्षी हैं, यह पृथ्वी तुम्हारी ही रखी रह रही है। हे तात! तुम व्यर्थ   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 265

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चौपाई :सुर गन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू॥बनत उपाउ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं॥1॥ भावार्थ:- देवगणों सहित देवराज इन्द्र भयभीत होकर सोचने लगे कि अब बना-बनाया काम बिगड़ना ही चाहता है। कुछ उपाय करते नहीं बनता। तब   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 266

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चौपाई :सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु सय सरिस सुहाई॥भरत भगति तुम्हरें मन आई। तजहु सोचु बिधि बात बनाई॥1॥ भावार्थ:- सीतानाथ श्री रामजी के सेवक की सेवा सैकड़ों कामधेनुओं के समान सुंदर है। तुम्हारे मन में भरतजी की भक्ति आई है, तो अब सोच  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 267

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चौपाई :कहौं कहावौं का अब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी॥गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला॥1॥ भावार्थ:- हे स्वामी! हे कृपा के समुद्र! हे अन्तर्यामी! अब मैं (अधिक) क्या कहूँ और क्या कहाऊँ? गुरु महाराज को प्रसन्न और स  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 268

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चौपाई :लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभु नहिं मन संदेहू॥अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई॥1॥ भावार्थ:- गुरु और स्वामी का सब प्रकार से स्नेह देखकर मेरा क्षोभ मिट गया, मन में कुछ भी संदेह नहीं रहा। हे दया की खान!  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 269

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चौपाई :नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिअ सीय सहित रघुराई॥जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई॥1॥ भावार्थ:- अथवा हम तीनों भाई वन चले जाएँ और हे श्री रघुनाथजी! आप श्री सीताजी सहित (अयोध्या को) लौट जाइए। हे दयासागर! जिस   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 270

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चौपाई :भरत बचन सुचि सुनि सुर हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥असमंजस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनबासी॥1॥ भावार्थ:- भरतजी के पवित्र वचन सुनकर देवता हर्षित हुए और ‘साधु-साधु’ कहकर सराहना करते हुए देवताओं ने फूल बरसाए। अयोध्या  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 271

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चौपाई :कोसलपति गति सुनि जनकौरा। भे सब लोक सोकबस बौरा॥जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू। नामु सत्य अस लाग न केहू॥1॥ भावार्थ:- अयोध्यानाथ की गति (दशरथजी का मरण) सुनकर जनकपुर वासी सभी लोग शोकवश बावले हो गए (सुध-बुध भूल गए)। उस समय जिन्होंने व  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 272

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चौपाई :दूतन्ह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामति बरनी॥सुनि गुर परिजन सचिव महीपति। भे सब सोच सनेहँ बिकल अति॥1॥ भावार्थ:- (गुप्त) दूतों ने आकर राजा जनकजी की सभा में भरतजी की करनी का अपनी बुद्धि के अनुसार वर्णन किया। उसे सुनकर गुरु, कुटु  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 273

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चौपाई :गरइ गलानि कुटिल कैकेई। काहि कहै केहि दूषनु देई॥अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी॥1॥ भावार्थ:- कुटिल कैकेयी मन ही मन ग्लानि (पश्चाताप) से गली जाती है। किससे कहे और किसको दोष दे? और सब नर-नारी मन में ऐसा विचार कर प्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 274

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चौपाई :सुनि सनेहमय पुरजन बानी। निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी॥एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन। रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन॥1॥ भावार्थ:- अयोध्या वासियों की प्रेममयी वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि भी अपने योग और वैराग्य की निंदा करते हैं। अ  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 275

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चौपाई :भाइ सचिव गुर पुरजन साथा। आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा॥गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनामु रथ त्यागेउ तबहीं॥1॥ भावार्थ:- भाई, मंत्री, गुरु और पुरवासियों को साथ लेकर श्री रघुनाथजी आगे (जनकजी की अगवानी में) चले। जनकजी ने ज्यों ह  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 276

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चौपाई :बोरति ग्यान बिराग करारे। बचन ससोक मिलत नद नारे॥सोच उसास समीर तरंगा। धीरज तट तरुबर कर भंगा॥1॥ भावार्थ:- यह करुणा की नदी (इतनी बढ़ी हुई है कि) ज्ञान-वैराग्य रूपी किनारों को डुबाती जाती है। शोक भरे वचन नद और नाले हैं, जो इस नदी मे  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 277

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चौपाई :जासु ग्यान रबि भव निसि नासा। बचन किरन मुनि कमल बिकासा॥तेहि कि मोह ममता निअराई। यह सिय राम सनेह बड़ाई॥1॥ भावार्थ:- जिन राजा जनक का ज्ञान रूपी सूर्य भव (आवागमन) रूपी रात्रि का नाश कर देता है और जिनकी वचन रूपी किरणें मुनि रूपी कम  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 278

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चौपाई :जे महिसुर दसरथ पुर बासी। जे मिथिलापति नगर निवासी॥हंस बंस गुर जनक पुरोधा। जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा॥1॥ भावार्थ:- जो दशरथजी की नगरी अयोध्या के रहने वाले और जो मिथिलापति जनकजी के नगर जनकपुर के रहने वाले ब्राह्मण थे तथा सूर्य  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 279

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चौपाई :कामद भे गिरि राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत बिषादा॥सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनँद अनुरागा॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी की कृपा से सब पर्वत मनचाही वस्तु देने वाले हो गए। वे देखने मात्र से ही दुःखों को सर्वथा हर लेते थे  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 280

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चौपाई :एहि बिधि बासर बीते चारी। रामु निरखि नर नारि सुखारी॥दुहु समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार चार दिन बीत गए। श्री रामचन्द्रजी को देखकर सभी नर-नारी सुखी हैं। दोनों समाजों के मन में ऐसी इच  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 281

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चौपाई :एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं॥सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईं॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार सब मनोरथ कर रहे हैं। उनके प्रेमयुक्त वचन सुनते ही (सुनने वालों के) मनों को हर लेते हैं। उसी समय सीताज  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 282

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चौपाई :सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा॥जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बालकेलि सम बिधि मति भोरी॥1॥ भावार्थ:- यह सुनकर देवी सुमित्राजी शोक के साथ कहने लगीं- विधाता की चाल बड़ी ही विपरीत और विचित्र है, जो सृष्टि को उ  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 283

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चौपाई :ईस प्रसाद असीस तुम्हारी। सुत सुतबधू देवसरि बारी॥राम सपथ मैं कीन्हि न काऊ। सो करि कहउँ सखी सति भाऊ॥1॥ भावार्थ:- ईश्वर के अनुग्रह और आपके आशीर्वाद से मेरे (चारों) पुत्र और (चारों) बहुएँ गंगाजी के जल के समान पवित्र हैं। हे सखी! म  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 284

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चौपाई :रानि राय सन अवसरु पाई। अपनी भाँति कहब समुझाई॥रखिअहिं लखनु भरतु गवनहिं बन। जौं यह मत मानै महीप मन॥1॥ भावार्थ:- हे रानी! मौका पाकर आप राजा को अपनी ओर से जहाँ तक हो सके समझाकर कहिएगा कि लक्ष्मण को घर रख लिया जाए और भरत वन को जाएँ  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 285

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चौपाई :लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनकप्रिया गह पाय पुनीता॥देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दसरथ घरिनि राम महतारी॥1॥ भावार्थ:- कौसल्याजी के प्रेम को देखकर और उनके विनम्र वचनों को सुनकर जनकजी की प्रिय पत्नी ने उनके पवित्र चरण पकड़ लिए   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 286

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चौपाई :प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही॥तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी॥1॥ भावार्थ:- जानकीजी अपने प्यारे कुटुम्बियों से- जो जिस योग्य था, उससे उसी प्रकार मिलीं। जानकीजी को तपस्विनी के वेष मे  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 287

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चौपाई :तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ पेमु परितोषु बिसेषी॥पुत्रि पबित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ॥1॥ भावार्थ:- सीताजी को तपस्विनी वेष में देखकर जनकजी को विशेष प्रेम और संतोष हुआ। (उन्होंने कहा-) बेटी! तूने दोनों कुल पवित्र क  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 288

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चौपाई :सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू। सोन सुगंध सुधा ससि सारू॥मूदे सजन नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन॥1॥ भावार्थ:- सोने में सुगंध और (समुद्र से निकली हुई) सुधा में चन्द्रमा के सार अमृत के समान भरतजी का व्यवहार सुनकर राजा ने (प्रे  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 289

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चौपाई :अगम सबहि बरनत बरबरनी। जिमि जलहीन मीन गमु धरनी॥भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी॥1॥ भावार्थ:- हे श्रेष्ठ वर्णवाली! भरतजी की महिमा का वर्णन करना सभी के लिए वैसे ही अगम है जैसे जलरहित पृथ्वी पर मछली का चलना।   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 290

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चौपाई :राम भरत गुन गनत सप्रीती। निसि दंपतिहि पलक सम बीती॥राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी और भरतजी के गुणों की प्रेमपूर्वक गणना करते (कहते-सुनते) पति-पत्नी को रात पलक के समान बीत गई। प्रात  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 291

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चौपाई :सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ॥जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू। जहँ नहिं राम प्रेम परधानू॥1॥ भावार्थ:- जहाँ श्री राम के चरण कमलों में प्रेम नहीं है, वह सुख, कर्म और धर्म जल जाए, जिसमें श्री राम प्रेम की प्रधानता न  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 292

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चौपाई :सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे। लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे॥सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं। आए इहाँ कीन्ह भल नाहीं॥1॥ भावार्थ:- मुनि वशिष्ठजी के वचन सुनकर जनकजी प्रेम में मग्न हो गए। उनकी दशा देखकर ज्ञान और वैराग्य को भी वैराग्य ह  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 293

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चौपाई :सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरतु धीर धरि भारी॥प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू॥1॥ भावार्थ:- भरतजी यह सुनकर पुलकित शरीर हो नेत्रों में जल भरकर बड़ा भारी धीरज धरकर बोले- हे प्रभो! आप हमारे पिता के सम  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 294

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चौपाई :भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ। सहित समाज सराहत राऊ॥सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे॥1॥ भावार्थ:- भरतजी के वचन सुनकर और उनका स्वभाव देखकर समाज सहित राजा जनक उनकी सराहना करने लगे। भरतजी के वचन सुगम और अगम, सुंदर, कोम  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 295

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चौपाई :सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही। देबि देव सरनागत पाही॥फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया॥1॥ भावार्थ:- देवताओं ने सरस्वती का स्मरण कर उनकी सराहना (स्तुति) की और कहा- हे देवी! देवता आपके शरणागत हैं, उनकी रक्षा कीज  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 296

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चौपाई :करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू॥गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा॥1॥ भावार्थ:- कुचाल करके देवराज इन्द्र सोचने लगे कि काम का बनना-बिगड़ना सब भरतजी के हाथ है। इधर राजा जनकजी (मुनि वशिष्ठ आदि के साथ) श  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 298

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चौपाई :प्रभु पितु मातु सुहृद गुर स्वामी। पूज्य परम हित अंतरजामी॥सरल सुसाहिबु सील निधानू। प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू॥1॥ भावार्थ:- हे प्रभु! आप पिता, माता, सुहृद् (मित्र), गुरु, स्वामी, पूज्य, परम हितैषी और अन्तर्यामी हैं। सरल हृदय, श्र  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 299

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चौपाई :राउरि रीति सुबानि बड़ाई। जगत बिदित निगमागम गाई॥कूर कुटिल खल कुमति कलंकी। नीच निसील निरीस निसंकी॥1॥ भावार्थ:- हे नाथ! आपकी रीति और सुंदर स्वभाव की बड़ाई जगत में प्रसिद्ध है और वेद-शास्त्रों ने गाई है। जो क्रूर, कुटिल, दुष्ट, कु  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 300

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चौपाई :सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ॥तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा॥1॥ भावार्थ:- मैं शोक से या स्नेह से या बालक स्वभाव से आज्ञा को बाएँ लाकर (न मानकर) चला आया, तो भी कृपालु स्वामी (आप) ने अपनी ओर देख  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 301

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चौपाई :प्रभु पद पदुम पराग दोहाई। सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई॥सो करि कहउँ हिए अपने की। रुचि जागत सोवत सपने की॥1॥ भावार्थ:- प्रभु (आप) के चरणकमलों की रज, जो सत्य, सुकृत (पुण्य) और सुख की सुहावनी सीमा (अवधि) है, उसकी दुहाई करके मैं अपने हृदय   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 302

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चौपाई :कपट कुचालि सीवँ सुरराजू। पर अकाज प्रिय आपन काजू॥काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती॥1॥ भावार्थ:- देवराज इन्द्र कपट और कुचाल की सीमा है। उसे पराई हानि और अपना लाभ ही प्रिय है। इन्द्र की रीति कौए के समान है। वह छल  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 303

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चौपाई :कृपासिंधु लखि लोग दुखारे। निज सनेहँ सुरपति छल भारे॥सभा राउ गुर महिसुर मंत्री। भरत भगति सब कै मति जंत्री॥1॥ भावार्थ:- कृपासिंधु श्री रामचन्द्रजी ने लोगों को अपने स्नेह और देवराज इन्द्र के भारी छल से दुःखी देखा। सभा, राजा ज  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 304

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चौपाई :भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ। लघु मति चापलता कबि छमहूँ॥कहत सुनत सति भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को॥1॥ भावार्थ:- भरतजी के स्वभाव का वर्णन वेदों के लिए भी सुगम नहीं है। (अतः) मेरी तुच्छ बुद्धि की चंचलता को कवि लोग क्षमा करें! भरत  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 305

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चौपाई :जानहु तात तरनि कुल रीती। सत्यसंध पितु कीरति प्रीती॥समउ समाजु लाज गुरजन की। उदासीन हित अनहित मन की॥1॥ भावार्थ:- हे तात! तुम सूर्यकुल की रीति को, सत्यप्रतिज्ञ पिताजी की कीर्ति और प्रीति को, समय, समाज और गुरुजनों की लज्जा (मर्य  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 306

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चौपाई :सहित समाज तुम्हार हमारा। घर बन गुर प्रसाद रखवारा॥मातु पिता गुर स्वामि निदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू॥1॥ भावार्थ:- गुरुजी का प्रसाद (अनुग्रह) ही घर में और वन में समाज सहित तुम्हारा और हमारा रक्षक है। माता, पिता, गुरु और स्वामी क  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 307

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चौपाई :सभा सकल सुनि रघुबर बानी। प्रेम पयोधि अमिअँ जनु सानी॥सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी॥1॥ भावार्थ:- श्री रघुनाथजी की वाणी सुनकर, जो मानो प्रेम रूपी समुद्र के (मंथन से निकले हुए) अमृत में सनी हुई थी, सारा समाज शिथि  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 308

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चौपाई :एकु मनोरथु बड़ मन माहीं। सभयँ सकोच जात कहि नाहीं॥कहहु तात प्रभु आयसु पाई। बोले बानि सनेह सुहाई॥1॥ भावार्थ:- मेरे मन में एक और बड़ा मनोरथ है, जो भय और संकोच के कारण कहा नहीं जाता। (श्री रामचन्द्रजी ने कहा-) हे भाई! कहो। तब प्रभु की  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 309

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चौपाई :धन्य भरत जय राम गोसाईं। कहत देव हरषत बरिआईं॥मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू। भरत बचन सुनि भयउ उछाहू॥1॥ भावार्थ:- ‘भरतजी धन्य हैं, स्वामी श्री रामजी की जय हो!’ ऐसा कहते हुए देवता बलपूर्वक (अत्यधिक) हर्षित होने लगे। भरतजी के वचन सुन  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 310

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चौपाई :भरत अत्रि अनुसासन पाई। जल भाजन सब दिए चलाई॥सानुज आपु अत्रि मुनि साधू। सहित गए जहँ कूप अगाधू॥1॥ भावार्थ:- भरतजी ने अत्रिमुनि की आज्ञा पाकर जल के सब पात्र रवाना कर दिए और छोटे भाई शत्रुघ्न, अत्रि मुनि तथा अन्य साधु-संतों सहित   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 311

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चौपाई :कहत धरम इतिहास सप्रीती। भयउ भोरु निसि सो सुख बीती॥नित्य निबाहि भरत दोउ भाई। राम अत्रि गुर आयसु पाई॥1॥ भावार्थ:- प्रेमपूर्वक धर्म के इतिहास कहते वह रात सुख से बीत गई और सबेरा हो गया। भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई नित्यक्रिया पूरी   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 312

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चौपाई :एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं। नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं॥पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा। खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार भरतजी वन में फिर रहे हैं। उनके नियम और प्रेम को देखकर मुनि भी सकुचा जाते हैं। पवित्र   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 313

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चौपाई :भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू। भरत भूमिसुर तेरहुति राजू॥भल दिन आजु जानि मन माहीं। रामु कृपाल कहत सकुचाहीं॥1॥ भावार्थ:- (अगले छठे दिन) सबेरे स्नान करके भरतजी, ब्राह्मण, राजा जनक और सारा समाज आ जुटा। आज सबको विदा करने के लिए अच्छा   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 314

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चौपाई :पुरजन परिजन प्रजा गोसाईं। सब सुचि सरस सनेहँ सगाईं॥राउर बदि भल भव दुख दाहू। प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू॥1॥ भावार्थ:- हे गोसाईं! आपके प्रेम और संबंध में अवधपुर वासी, कुटुम्बी और प्रजा सभी पवित्र और रस (आनंद) से युक्त हैं। आपके   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 315

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चौपाई :तात तुम्हारि मोरि परिजन की। चिंता गुरहि नृपहि घर बन की॥माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू। हमहि तुम्हहि सपनेहूँ न कलेसू॥1॥ भावार्थ:- हे तात! तुम्हारी, मेरी, परिवार की, घर की और वन की सारी चिंता गुरु वशिष्ठजी और महाराज जनकजी को है। हम  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 316

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चौपाई :राजधरम सरबसु एतनोई। जिमि मन माहँ मनोरथ गोई॥बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती। बिनु अधार मन तोषु न साँती॥1॥ भावार्थ:- राजधर्म का सर्वस्व (सार) भी इतना ही है। जैसे मन के भीतर मनोरथ छिपा रहता है। श्री रघुनाथजी ने भाई भरत को बहुत प्र  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 317

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चौपाई :सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी। अवधि आस सम जीवनि जी की॥नतरु लखन सिय राम बियोगा। हहरि मरत सब लोग कुरोगा॥1॥ भावार्थ:- वह कुचाल भी सबके लिए हितकर हो गई। अवधि की आशा के समान ही वह जीवन के लिए संजीवनी हो गई। नहीं तो (उच्चाटन न होता तो) लक्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 318

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चौपाई :जहाँ जनक गुरु गति मति भोरी। प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी॥बरनत रघुबर भरत बियोगू। सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू॥1॥ भावार्थ:- जहाँ जनकजी और गुरु वशिष्ठजी की बुद्धि की गति कुण्ठित हो, उस दिव्य प्रेम को प्राकृत (लौकिक) कहने में बड़ा द  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 319

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चौपाई :सानुज राम नृपहि सिर नाई। कीन्हि बहुत बिधि बिनय बड़ाई॥देव दया बस बड़ दुखु पायउ। सहित समाज काननहिं आयउ॥1॥ भावार्थ:- छोटे भाई लक्ष्मणजी समेत श्री रामजी ने राजा जनकजी को सिर नवाकर उनकी बहुत प्रकार से विनती और बड़ाई की (और कहा-) हे द  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 320

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चौपाई :परिजन मातु पितहि मिलि सीता। फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता॥करि प्रनामु भेंटीं सब सासू। प्रीति कहत कबि हियँ न हुलासू॥1॥ भावार्थ:- प्राणप्रिय पति श्री रामचंद्रजी के साथ पवित्र प्रेम करने वाली सीताजी नैहर के कुटुम्बियों से   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 321

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चौपाई :बिदा कीन्ह सनमानि निषादू। चलेउ हृदयँ बड़ बिरह बिषादू॥कोल किरात भिल्ल बनचारी। फेरे फिरे जोहारि जोहारी॥1॥ भावार्थ:- फिर सम्मान करके निषादराज को विदा किया। वह चला तो सही, किन्तु उसके हृदय में विरह का भारी विषाद था। फिर श्री र  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 322

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चौपाई :मुनि महिसुर गुर भरत भुआलू। राम बिरहँ सबु साजु बिहालू।प्रभु गुन ग्राम गनत मन माहीं। सब चुपचाप चले मग जाहीं॥1॥ भावार्थ:- मुनि, ब्राह्मण, गुरु वशिष्ठजी, भरतजी और राजा जनकजी सारा समाज श्री रामचन्द्रजी के विरह में विह्वल है। प्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 323

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चौपाई :सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे। निज निज काज पाइ सिख ओधे॥पुनि सिख दीन्हि बोलि लघु भाई। सौंपी सकल मातु सेवकाई॥1॥ भावार्थ:- भरतजी ने मंत्रियों और विश्वासी सेवकों को समझाकर उद्यत किया। वे सब सीख पाकर अपने-अपने काम में लग गए। फिर छोटे  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 324

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चौपाई :राम मातु गुर पद सिरु नाई। प्रभु पद पीठ रजायसु पाई॥नंदिगाँव करि परन कुटीरा। कीन्ह निवासु धरम धुर धीरा॥1॥ भावार्थ:- फिर श्री रामजी की माता कौसल्याजी और गुरुजी के चरणों में सिर नवाकर और प्रभु की चरणपादुकाओं की आज्ञा पाकर धर्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 325

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चौपाई :देह दिनहुँ दिन दूबरि होई। घटइ तेजु बलु मुखछबि सोई॥नित नव राम प्रेम पनु पीना। बढ़त धरम दलु मनु न मलीना॥1॥ भावार्थ:- भरतजी का शरीर दिनों-दिन दुबला होता जाता है। तेज (अन्न, घृत आदि से उत्पन्न होने वाला मेद*) घट रहा है। बल और मुख छबि  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 326

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चौपाई :पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू। जीह नामु जप लोचन नीरू॥लखन राम सिय कानन बसहीं। भरतु भवन बसि तप तनु कसहीं॥1॥ भावार्थ:- शरीर पुलकित है, हृदय में श्री सीता-रामजी हैं। जीभ राम नाम जप रही है, नेत्रों में प्रेम का जल भरा है। लक्ष्मणजी, श्  ......

अरण्यकाण्ड शूरूआत श्लोक

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श्लोक : मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददंवैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्‌।मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शंकरंवंदे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्री रामभूपप्रियम्‌॥1॥ भावार्थ:- धर्म रूपी वृक्ष   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 01

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चौपाई :पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई॥अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन॥1॥ भावार्थ:- पुरवासियों के और भरतजी के अनुपम और सुंदर प्रेम का मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार गान किया। अब देवता, मनुष्य   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 02

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चौपाई :प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा॥धरि निज रूप गयउ पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीं॥1॥ भावार्थ:- मंत्र से प्रेरित होकर वह ब्रह्मबाण दौड़ा। कौआ भयभीत होकर भाग चला। वह अपना असली रूप धरकर पिता इन्द्र के   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 3

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चौपाई :रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना॥बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना॥1॥ भावार्थ : अमृत के समान (प्रिय) हैं। फिर (कुछ समय पश्चात) श्री रामजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि मुझे सब लोग जान गए है  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 4

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छन्द :नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं॥1॥ भावार्थ:- हे भक्त वत्सल! हे कृपालु! हे कोमल स्वभाव वाले! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निष्काम पुरुषों को अपना परमधाम देने वाले आपके चरण कमलों को मै  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 05

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चौपाई :अनुसुइया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील बिनीता॥रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई॥1॥ भावार्थ:- फिर परम शीलवती और विनम्र श्री सीताजी अनसूयाजी (आत्रिजी की पत्नी) के चरण पकड़कर उनसे मिलीं। ऋषि पत्नी के मन में बड़  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 06

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चौपाई :सुनि जानकीं परम सुखु पावा। सादर तासु चरन सिरु नावा॥तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना॥1॥ भावार्थ:- जानकीजी ने सुनकर परम सुख पाया और आदरपूर्वक उनके चरणों में सिर नवाया। तब कृपा की खान श्री रामजी ने मुनि से कहा- आज्  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 07

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चौपाई :मुनि पद कमल नाइ करि सीसा। चले बनहि सुर नर मुनि ईसा॥आगें राम अनुज पुनि पाछें। मुनि बर बेष बने अति काछें॥1॥ भावार्थ:- मुनि के चरण कमलों में सिर नवाकर देवता, मनुष्य और मुनियों के स्वामी श्री रामजी वन को चले। आगे श्री रामजी हैं औ  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 08

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चौपाई :कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। संकर मानस राजमराला॥जात रहेउँ बिरंचि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा॥1॥ भावार्थ:- मुनि ने कहा- हे कृपालु रघुवीर! हे शंकरजी मन रूपी मानसरोवर के राजहंस! सुनिए, मैं ब्रह्मलोक को जा रहा था। (इतने म  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 09

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चौपाई :अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा॥ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर शरभंगजी ने योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और श्री रामजी की कृपा से वे वैकुंठ को चले गए। मुनि भगवान  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 10

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चौपाई :मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना॥मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक॥1॥ भावार्थ:- मुनि अगस्त्यजी के एक सुतीक्ष्ण नामक सुजान (ज्ञानी) शिष्य थे, उनकी भगवान में प्रीति थी। वे मन, वचन और कर्म से श्र  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 11

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चौपाई :कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी॥महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी॥1॥ भावार्थ:- मुनि कहने लगे- हे प्रभो! मेरी विनती सुनिए। मैं किस प्रकार से आपकी स्तुति करूँ? आपकी महिमा अपार है और   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 12

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चौपाई :एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुंभज रिषि पासा॥बहुत दिवस गुर दरसनु पाएँ। भए मोहि एहिं आश्रम आएँ॥1॥ भावार्थ:- ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) ऐसा उच्चारण कर लक्ष्मी निवास श्री रामचंद्रजी हर्षित होकर अगस्त्य ऋषि के पास चले। (तब सुती  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 13

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चौपाई :तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाहीं॥तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ। ताते तात न कहि समुझायउँ॥1॥ भावार्थ:- तब श्री रामजी ने मुनि से कहा- हे प्रभो! आप से तो कुछ छिपाव है नहीं। मैं जिस कारण से आया हूँ, वह आप जानते   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 14

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चौपाई :जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भए मुनि बीती त्रासा॥गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति होहिं सुहाए॥1॥ भावार्थ:- जब से श्री रामजी ने वहाँ निवास किया, तब से मुनि सुखी हो गए, उनका डर जाता रहा। पर्वत, वन, नदी और तालाब शोभा स  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 15

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चौपाई :थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई॥मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥1॥ भावार्थ:-(श्री रामजी ने कहा-) हे तात! मैं थोड़े ही में सब समझाकर कहे देता हूँ। तुम मन, चित्त और बुद्धि लगाकर सुनो! मैं और  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 16

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चौपाईधर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई॥1॥ भावार्थ:- धर्म (के आचरण) से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है तथा ज्ञान मोक्ष का देने वाला है- ऐसा वेदों ने वर्णन किया   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 17

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चौपाई :भगति जोग सुनि अति सुख पावा। लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा॥एहि बिधि कछुक दिन बीती। कहत बिराग ग्यान गुन नीती॥1॥ भावार्थ:- इस भक्ति योग को सुनकर लक्ष्मणजी ने अत्यंत सुख पाया और उन्होंने प्रभु श्री रामचंद्रजी के चरणों में सि  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 18

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चौपाई :नाक कान बिनु भइ बिकरारा। जनु स्रव सैल गेरु कै धारा॥खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता॥1॥ भावार्थ:- बिना नाक-कान के वह विकराल हो गई। (उसके शरीर से रक्त इस प्रकार बहने लगा) मानो (काले) पर्वत से गेरू की धारा बह रही  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 19

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चौपाई :प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी। थकित भई रजनीचर धारी॥सचिव बोलि बोले खर दूषन। यह कोउ नृपबालक नर भूषन॥1॥ भावार्थ:- (सौंदर्य-माधुर्यनिधि) प्रभु श्री रामजी को देखकर राक्षसों की सेना थकित रह गई। वे उन पर बाण नहीं छोड़ सके। मंत्री क  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 20

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छन्द :तब चले बान कराल। फुंकरत जनु बहु ब्याल॥कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम॥1॥ भावार्थ:- तब भयानक बाण ऐसे चले, मानो फुफकारते हुए बहुत से सर्प जा रहे हैं। श्री रामचन्द्रजी संग्राम में क्रुद्ध हुए और अत्यन्त तीक्ष्ण बाण च  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 21

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चौपाई :जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते॥तब लछिमन सीतहि लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए॥1॥ भावार्थ:- जब श्री रघुनाथजी ने युद्ध में शत्रुओं को जीत लिया तथा देवता, मनुष्य और मुनि सबके भय नष्ट हो गए, तब लक्ष्मणजी सीताजी  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 22

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चौपाई :सुनत सभासद उठे अकुलाई। समुझाई गहि बाँह उठाई॥कह लंकेस कहसि निज बाता। केइँ तव नासा कान निपाता॥1॥ भावार्थ:- शूर्पणखा के वचन सुनते ही सभासद् अकुला उठे। उन्होंने शूर्पणखा की बाँह पकड़कर उसे उठाया और समझाया। लंकापति रावण ने कह  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 23

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चौपाई :सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं॥खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता॥1॥ भावार्थ:- (वह मन ही मन विचार करने लगा-) देवता, मनुष्य, असुर, नाग और पक्षियों में कोई ऐसा नहीं, जो मेरे सेवक को भी पा सके। ख  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 24

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चौपाई :सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥1॥ भावार्थ:- हे प्रिये! हे सुंदर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले! सुनो! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँग  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 25

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चौपाई :दसमुख सकल कथा तेहि आगें। कही सहित अभिमान अभागें॥होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौं नृपनारी॥1॥ भावार्थ:- भाग्यहीन रावण ने सारी कथा अभिमान सहित उसके सामने कही (और फिर कहा-) तुम छल करने वाले कपटमृग बनो, जिस उपाय से म  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 26

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चौपाई :जाहु भवन कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी॥गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा॥1॥ भावार्थ:- अतः अपने कुल की कुशल विचारकर आप घर लौट जाइए। यह सुनकर रावण जल उठा और उसने बहुत सी गालियाँ दीं (दुर्वचन क  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 27

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चौपाई :तेहि बननिकट दसानन गयऊ। तब मारीच कपटमृग भयऊ॥अति बिचित्र कछु बरनि न जाई। कनक देह मनि रचित बनाई॥1॥ भावार्थ:- जब रावण उस वन के (जिस वन में श्री रघुनाथजी रहते थे) निकट पहुँचा, तब मारीच कपटमृग बन गया! वह अत्यन्त ही विचित्र था, कुछ वर  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 28

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चौपाई :खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा॥आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता॥1॥ भावार्थ:- दुष्ट मारीच को मारकर श्री रघुवीर तुरंत लौट पड़े। हाथ में धनुष और कमर में तरकस शोभा दे रहा है। इधर जब सीताजी ने दुःखभरी  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 29

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चौपाई :हा जग एक बीर रघुराया। केहिं अपराध बिसारेहु दाया॥आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक॥1॥ भावार्थ:- (सीताजी विलाप कर रही थीं-) हा जगत के अद्वितीय वीर श्री रघुनाथजी! आपने किस अपराध से मुझ पर दया भुला दी। हे दुःखों के हर  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 30

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चौपाई :रघुपति अनुजहि आवत देखी। बाहिज चिंता कीन्हि बिसेषी॥जनकसुता परिहरिहु अकेली। आयहु तात बचन मम पेली॥1॥ भावार्थ:- (इधर) श्री रघुनाथजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को आते देखकर ब्राह्य रूप में बहुत चिंता की (और कहा-) हे भाई! तुमने जानकी क  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 31

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चौपाई :तब कह गीध बचन धरि धीरा। सुनहु राम भंजन भव भीरा॥नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही॥1॥ भावार्थ:- तब धीरज धरकर गीध ने यह वचन कहा- हे भव (जन्म-मृत्यु) के भय का नाश करने वाले श्री रामजी! सुनिए। हे नाथ! रावण ने मेरी य  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 32

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चौपाई :गीध देह तजि धरि हरि रूपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा॥स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी॥1॥ भावार्थ:- जटायु ने गीध की देह त्यागकर हरि का रूप धारण किया और बहुत से अनुपम (दिव्य) आभूषण और (दिव्य) पीताम्बर पहन लिए। श्याम  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 33

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चौपाई :कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला॥गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥1॥ भावार्थ:- श्री रघुनाथजी अत्यंत कोमल चित्त वाले, दीनदयालु और बिना ही करण कृपालु हैं। गीध (पक्षियों में भी) अधम पक्षी और मांसाहा  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 34

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चौपाई :सापत ताड़त परुष कहंता। बिप्र पूज्य अस गावहिं संता॥पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना॥1॥ भावार्थ:- शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर वचन कहता हुआ भी ब्राह्मण पूजनीय है, ऐसा संत कहते हैं। शील और गुण से हीन भी   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 35

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चौपाई :पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी॥केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी॥1॥ भावार्थ:- फिर वे हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गईं। प्रभु को देखकर उनका प्रेम अत्यंत बढ़ गया। (उन्होंने कहा-) म  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 36

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चौपाई :मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥ भावार्थ:- मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इं  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 37

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चौपाई :चले राम त्यागा बन सोऊ। अतुलित बल नर केहरि दोऊ॥बिरही इव प्रभु करत बिषादा। कहत कथा अनेक संबादा॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी ने उस वन को भी छोड़ दिया और वे आगे चले। दोनों भाई अतुलनीय बलवान्‌ और मनुष्यों में सिंह के समान हैं। प  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 38

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चौपाई :बिटप बिसाल लता अरुझानी। बिबिध बितान दिए जनु तानी॥कदलि ताल बर धुजा पताका। देखि न मोह धीर मन जाका॥1॥ भावार्थ:- विशाल वृक्षों में लताएँ उलझी हुई ऐसी मालूम होती हैं मानो नाना प्रकार के तंबू तान दिए गए हैं। केला और ताड़ सुंदर ध्  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 39

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चौपाई :गुनातीत सचराचर स्वामी। राम उमा सब अंतरजामी॥कामिन्ह कै दीनता देखाई। धीरन्ह कें मन बिरति दृढ़ाई॥1॥ भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! श्री रामचंद्रजी गुणातीत (तीनों गुणों से परे), चराचर जगत्‌ के स्वामी और सबके अंतर की जा  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 40

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चौपाई :बिकसे सरसिज नाना रंगा। मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा॥बोलत जलकुक्कुट कलहंसा। प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा॥1॥ भावार्थ:- उसमें रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं। बहुत से भौंरे मधुर स्वर से गुंजार कर रहे हैं। जल के मुर्गे और राजहंस बो  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 41

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चौपाई :देखि राम अति रुचिर तलावा। मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा॥देखी सुंदर तरुबर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी ने अत्यंत सुंदर तालाब देखकर स्नान किया और परम सुख पाया। एक सुंदर उत्तम वृक्ष की छाया देखकर श्री रघ  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 42

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चौपाई :सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुंदर अगम सुगम बर दायक॥देहु एक बर मागउँ स्वामी। जद्यपि जानत अंतरजामी॥1॥ भावार्थ:- हे स्वभाव से ही उदार श्री रघुनाथजी! सुनिए। आप सुंदर अगम और सुगम वर के देने वाले हैं। हे स्वामी! मैं एक वर माँगता हूँ,   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 43

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चौपाई :अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी। पुनि नारद बोले मृदु बानी॥राम जबहिं प्रेरेउ निज माया मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया॥1॥ भावार्थ:- श्री रघुनाथजी को अत्यंत प्रसन्न जानकर नारदजी फिर कोमल वाणी बोले- हे रामजी! हे रघुनाथजी! सुनिए, जब आपने   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 44

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चौपाई :सुनु मुनि कह पुरान श्रुति संता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता॥जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी॥1 भावार्थ:- हे मुनि! सुनो, पुराण, वेद और संत कहते हैं कि मोह रूपी वन (को विकसित करने) के लिए स्त्री वसंत ऋतु के समान है। ज  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 45

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चौपाई :सुनि रघुपति के बचन सुहाए। मुनि तन पुलक नयन भरि आए॥कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती॥1॥ भावार्थ:- श्री रघुनाथजी के सुंदर वचन सुनकर मुनि का शरीर पुलकित हो गया और नेत्र (प्रेमाश्रुओं के जल से) भर आए। (वे मन ही म  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 46

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चौपाई :निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥1॥ भावार्थ:- कानों से अपने गुण सुनने में सकुचाते हैं, दूसरों के गुण सुनने से विशेष हर्षित होते हैं। सम और शीतल हैं,   ......

किष्किंधाकांड शुरुआत श्लोक

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श्लोक :कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौशोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ।मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौ हितौसीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः ॥1॥ भावार्थ:-कुन्दपुष्प और नीलकम  ......

किष्किंधाकांड दोहा 1

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चौपाई :आगें चले बहुरि रघुराया। रिष्यमूक पर्बत निअराया॥तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखि अतुल बल सींवा॥1॥ भावार्थ:- श्री रघुनाथजी फिर आगे चले। ऋष्यमूक पर्वत निकट आ गया। वहाँ (ऋष्यमूक पर्वत पर) मंत्रियों सहित सुग्रीव रहते थे। अ  ......

किष्किंधाकांड दोहा 02

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चौपाई :कोसलेस दसरथ के जाए। हम पितु बचन मानि बन आए॥नाम राम लछिमन दोउ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई॥1॥ भावार्थ:- (श्री रामचंद्रजी ने कहा-) हम कोसलराज दशरथजी के पुत्र हैं और पिता का वचन मानकर वन आए हैं। हमारे राम-लक्ष्मण नाम हैं, हम दोनो  ......

किष्किंधाकांड दोहा 3

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चौपाई :जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा॥1॥ भावार्थ:- एहे नाथ! यद्यपि मुझ में बहुत से अवगुण हैं, तथापि सेवक स्वामी की विस्मृति में न पड़े (आप उसे न भूल जाएँ)। हे   ......

किष्किंधाकांड दोहा 4

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चौपाई :देखि पवनसुत पति अनुकूला। हृदयँ हरष बीती सब सूला॥नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई॥1॥ भावार्थ:- स्वामी को अनुकूल (प्रसन्न) देखकर पवन कुमार हनुमान्‌जी के हृदय में हर्ष छा गया और उनके सब दुःख जाते रहे। (उन्होंने कहा-  ......

किष्किंधाकांड दोहा 5

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चौपाई :कीन्हि प्रीति कछु बीच न राखा। लछिमन राम चरित्‌ सब भाषा॥कह सुग्रीव नयन भरि बारी। मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी॥1॥ भावार्थ:- दोनों ने (हृदय से) प्रीति की, कुछ भी अंतर नहीं रखा। तब लक्ष्मणजी ने श्री रामचंद्रजी का सारा इतिहास कहा।   ......

किष्किंधाकांड दोहा 6

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चौपाई :नाथ बालि अरु मैं द्वौ भाइ। प्रीति रही कछु बरनि न जाई॥मयसुत मायावी तेहि नाऊँ। आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ॥1॥ भावार्थ:- (सुग्रीव ने कहा-) हे नाथ! बालि और मैं दो भाई हैं, हम दोनों में ऐसी प्रीति थी कि वर्णन नहीं की जा सकती। हे प्रभो! मय   ......

किष्किंधाकांड दोहा 7

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चौपाई :जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥1॥ भावार्थ:- जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख क  ......

किष्किंधाकांड दोहा 8

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चौपाई :अस कहि चला महा अभिमानी। तृन समान सुग्रीवहि जानी॥भिरे उभौ बाली अति तर्जा। मुठिका मारि महाधुनि गर्जा॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर वह महान्‌ अभिमानी बालि सुग्रीव को तिनके के समान जानकर चला। दोनों भिड़ गए। बालि ने सुग्रीव को बहुत ध  ......

किष्किंधाकांड दोहा 9

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चौपाई :परा बिकल महि सर के लागें। पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगे॥स्याम गात सिर जटा बनाएँ। अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ॥1॥ भावार्थ:- बाण के लगते ही बालि व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, किंतु प्रभु श्री रामचंद्रजी को आगे देखकर वह फिर उठ बैठा।  ......

किष्किंधाकांड दोहा 10

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चौपाई :सुनत राम अति कोमल बानी। बालि सीस परसेउ निज पानी॥अचल करौं तनु राखहु प्राना। बालि कहा सुनु कृपानिधाना॥1॥ भावार्थ:- बालि की अत्यंत कोमल वाणी सुनकर श्री रामजी ने उसके सिर को अपने हाथ से स्पर्श किया (और कहा-) मैं तुम्हारे शरीर को  ......

किष्किंधाकांड दोहा 11

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चौपाई :राम बालि निज धाम पठावा। नगर लोग सब व्याकुल धावा॥नाना बिधि बिलाप कर तारा। छूटे केस न देह सँभारा॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी ने बालि को अपने परम धाम भेज दिया। नगर के सब लोग व्याकुल होकर दौड़े। बालि की स्त्री तारा अनेकों प्र  ......

किष्किंधाकांड दोहा 12

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चौपाई :उमा राम सम हत जग माहीं। गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं॥सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति॥1॥ भावार्थ:- हे पार्वती! जगत में श्री रामजी के समान हित करने वाला गुरु, पिता, माता, बंधु और स्वामी कोई नहीं है। देव  ......

किष्किंधाकांड दोहा 13

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चौपाई :सुंदर बन कुसुमित अति सोभा। गुंजत मधुप निकर मधु लोभा॥कंद मूल फल पत्र सुहाए। भए बहुत जब ते प्रभु आए॥1॥ भावार्थ:- सुंदर वन फूला हुआ अत्यंत सुशोभित है। मधु के लोभ से भौंरों के समूह गुंजार कर रहे हैं। जब से प्रभु आए, तब से वन में स  ......

किष्किंधाकांड दोहा 14

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चौपाई :घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥दामिनि दमक रह नघन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥1॥ भावार्थ:- आकाश में बादल घुमड़-घुमड़कर घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीताजी) के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली की चमक बादलों म  ......

किष्किंधाकांड दोहा 15

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चौपाई :दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥1॥ भावार्थ:- चारों दिशाओं में मेंढकों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद पढ़ रहे हों। अनेको  ......

किष्किंधाकांड दोहा 16

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चौपाई :बरषा बिगत सरद रितु आई। लछमन देखहु परम सुहाई॥फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥1॥ भावार्थ:- हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने (कास रू  ......

किष्किंधाकांड दोहा 17

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चौपाई :सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकऊ बाधा॥फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा॥1॥ भावार्थ:- जो मछलियाँ अथाह जल में हैं, वे सुखी हैं, जैसे श्री हरि के शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं रहती। कमलों के फूलने   ......

किष्किंधाकांड दोहा 18

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चौपाई :बरषा गत निर्मल रितु आई। सुधि न तात सीता कै पाई॥एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं। कालुह जीति निमिष महुँ आनौं॥1॥ भावार्थ:- वर्षा बीत गई, निर्मल शरद्ऋतु आ गई, परंतु हे तात! सीता की कोई खबर नहीं मिली। एक बार कैसे भी पता पाऊँ तो काल को भी ज  ......

किष्किंधाकांड दोहा 19

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चौपाई :इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा। राम काजु सुग्रीवँ बिसारा॥निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा॥1॥ भावार्थ:- यहाँ (किष्किन्धा नगरी में) पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी ने विचार किया कि सुग्रीव ने श्री रामजी के कार  ......

किष्किंधाकांड दोहा 20

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चौपाई :चर नाइ सिरु बिनती कीन्ही। लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही॥क्रोधवंत लछिमन सुनि काना। कह कपीस अति भयँ अकुलाना॥1॥ भावार्थ:- अंगद ने उनके चरणों में सिर नवाकर विनती की (क्षमा-याचना की) तब लक्ष्मणजी ने उनको अभय बाँह दी (भुजा उठाकर कहा   ......

किष्किंधाकांड दोहा 21

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चौपाई :नाइ चरन सिरु कह कर जोरी॥ नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी॥अतिसय प्रबल देव तव माया॥ छूटइ राम करहु जौं दाया॥1॥ भावार्थ:- श्री रघुनाथजी के चरणों में सिर नवाकर हाथ जोड़कर सुग्रीव ने कहा- हे नाथ! मुझे कुछ भी दोष नहीं है। हे देव! आपकी माया अ  ......

किष्किंधाकांड दोहा 22

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चौपाई :बानर कटक उमा मैं देखा। सो मूरुख जो करन चह लेखा॥आइ राम पद नावहिं माथा। निरखि बदनु सब होहिं सनाथा॥1॥ भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! वानरों की वह सेना मैंने देखी थी। उसकी जो गिनती करना चाहे वह महान्‌ मूर्ख है। सब वानर आ-आकर श्  ......

किष्किंधाकांड दोहा 23

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चौपाई :सुनहु नील अंगद हनुमाना। जामवंत मतिधीर सुजाना॥सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू। सीता सुधि पूँछेहु सब काहू॥1॥ भावार्थ:- हे धीरबुद्धि और चतुर नील, अंगद, जाम्बवान्‌ और हनुमान! तुम सब श्रेष्ठ योद्धा मिलकर दक्षिण दिशा को जाओ और सब किस  ......

किष्किंधाकांड दोहा 24

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चौपाई :कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा। प्रान लेहिं एक एक चपेटा॥बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं। कोउ मुनि मिलइ ताहि सब घेरहिं॥1॥ भावार्थ:- कहीं किसी राक्षस से भेंट हो जाती है, तो एक-एक चपत में ही उसके प्राण ले लेते हैं। पर्वतों और वनों को बह  ......

किष्किंधाकांड दोहा 25

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चौपाई :दूरि ते ताहि सबन्हि सिरु नावा। पूछें निज बृत्तांत सुनावा॥तेहिं तब कहा करहु जल पाना। खाहु सुरस सुंदर फल नाना॥1॥ भावार्थ:- दूर से ही सबने उसे सिर नवाया और पूछने पर अपना सब वृत्तांत कह सुनाया। तब उसने कहा- जलपान करो और भाँति-भा  ......

किष्किंधाकांड दोहा 26

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चौपाई :इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीं॥सब मिलि कहहिं परस्पर बाता। बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता॥1॥ भावार्थ:- यहाँ वानरगण मन में विचार कर रहे हैं कि अवधि तो बीत गई, पर काम कुछ न हुआ। सब मिलकर आपस में बात करने लगे कि   ......

किष्किंधाकांड दोहा 27

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चौपाई :एहि बिधि कथा कहहिं बहु भाँती। गिरि कंदराँ सुनी संपाती॥बाहेर होइ देखि बहु कीसा। मोहि अहार दीन्ह जगदीसा॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार जाम्बवान्‌ बहुत प्रकार से कथाएँ कह रहे हैं। इनकी बातें पर्वत की कन्दरा में सम्पाती ने सुनीं। बा  ......

किष्किंधाकांड दोहा 28

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चौपाई :अनुज क्रिया करि सागर तीरा। कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा॥हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई। गगन गए रबि निकट उड़ाई॥1॥ भावार्थ:- समुद्र के तीर पर छोटे भाई जटायु की क्रिया (श्राद्ध आदि) करके सम्पाती अपनी कथा कहने लगा- हे वीर वानरों! सुनो, ह  ......

किष्किंधाकांड दोहा 29

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चौपाई :जो नाघइ सत जोजन सागर। करइ सो राम काज मति आगर॥मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा। राम कृपाँ कस भयउ सरीरा॥1॥ भावार्थ:- जो सौ योजन (चार सौ कोस) समुद्र लाँघ सकेगा और बुद्धिनिधान होगा, वही श्री रामजी का कार्य कर सकेगा। (निराश होकर घबराओ मत) म  ......

किष्किंधाकांड दोहा 30

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चौपाई :अंगद कहइ जाउँ मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा॥जामवंत कह तुम्ह सब लायक। पठइअ किमि सबही कर नायक॥1॥ भावार्थ:- अंगद ने कहा- मैं पार तो चला जाऊँगा, परंतु लौटते समय के लिए हृदय में कुछ संदेह है। जाम्बवान्‌ ने कहा- तुम सब प्रकार स  ......

लंका काण्ड श्लोक

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श्लोक :रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहंयोगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्‌।मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवंवन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्‌॥1॥ भावार्थ:- कामदे  ......

लंका काण्ड दोहा 1

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चौपाई :यह लघु जलधि तरत कति बारा। अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा॥प्रभु प्रताप बड़वानल भारी। सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी॥1॥ भावार्थ:- फिर यह छोटा सा समुद्र पार करने में कितनी देर लगेगी? ऐसा सुनकर फिर पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी ने कहा- प्र  ......

लंका काण्ड दोहा 2

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चौपाई :सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कंदुक इव नल नील ते लेहीं॥देखि सेतु अति सुंदर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना॥1॥ भावार्थ:- वानर बड़े-बड़े पहाड़ ला-लाकर देते हैं और नल-नील उन्हें गेंद की तरह ले लेते हैं। सेतु की अत्यंत सुंदर रचना द  ......

लंका काण्ड दोहा 3

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चौपाई :जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं॥जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि॥1॥ भावार्थ:- जो मनुष्य (मेरे स्थापित किए हुए इन) रामेश्वरजी का दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएँगे और   ......

लंका काण्ड दोहा 4

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चौपाई :बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा। देखि कृपानिधि के मन भावा॥चली सेन कछु बरनि न जाई। गर्जहिं मर्कट भट समुदाई॥1॥ भावार्थ:- नल-नील ने सेतु बाँधकर उसे बहुत मजबूत बनाया। देखने पर वह कृपानिधान श्री रामजी के मन को (बहुत ही) अच्छा लगा।   ......

लंका काण्ड दोहा 5

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चौपाई :अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई। बिहँसि चले कृपाल रघुराई॥सेन सहित उतरे रघुबीरा। कहि न जाइ कपि जूथप भीरा॥1॥ भावार्थ:- कृपालु रघुनाथजी (तथा लक्ष्मणजी) दोनों भाई ऐसा कौतुक देखकर हँसते हुए चले। श्री रघुवीर सेना सहित समुद्र के पार   ......

लंका काण्ड दोहा 6

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चौपाई :निज बिकलता बिचारि बहोरी॥ बिहँसि गयउ गृह करि भय भोरी॥मंदोदरीं सुन्यो प्रभु आयो। कौतुकहीं पाथोधि बँधायो॥1॥ भावार्थ:- फिर अपनी व्याकुलता को समझकर (ऊपर से) हँसता हुआ, भय को भुलाकर, रावण महल को गया। (जब) मंदोदरी ने सुना कि प्रभ  ......

लंका काण्ड दोहा 7

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चौपाई :नाथ दीनदयाल रघुराई। बाघउ सनमुख गएँ न खाई॥चाहिअ करन सो सब करि बीते। तुम्ह सुर असुर चराचर जीते॥1॥ भावार्थ:- हे नाथ! श्री रघुनाथजी तो दीनों पर दया करने वाले हैं। सम्मुख (शरण) जाने पर तो बाघ भी नहीं खाता। आपको जो कुछ करना चाहिए   ......

लंका काण्ड दोहा 8

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चौपाई :तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई॥सुनु तैं प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना॥1॥ भावार्थ:- तब रावण ने मंदोदरी को उठाया और वह दुष्ट उससे अपनी प्रभुता कहने लगा- हे प्रिये! सुन, तूने व्यर्थ ही भय मान रखा है।   ......

लंका काण्ड दोहा 9

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चौपाई :कहहिं सचिव सठ ठकुर सोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती॥बारिधि नाघि एक कपि आवा। तासु चरित मन महुँ सबु गावा॥॥1॥ भावार्थ:- ये सभी मूर्ख (खुशामदी) मन्त्र ठकुरसुहाती (मुँहदेखी) कह रहे हैं। हे नाथ! इस प्रकार की बातों से पूरा नहीं पड़े  ......

लंका काण्ड दोहा 10

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चौपाई :यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा। उभय प्रकार सुजसु जग तोरा॥सुत सन कह दसकंठ रिसाई। असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई॥1॥ भावार्थ:- हे प्रभो! यदि आप मेरी यह सम्मति मानेंगे, तो जगत्‌ में दोनों ही प्रकार से आपका सुयश होगा। रावण ने गुस्से मे  ......

लंका काण्ड दोहा 11

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चौपाई :इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा। उतरे सेन सहित अति भीरा॥सिखर एक उतंग अति देखी। परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी॥1॥ भावार्थ:- यहाँ श्री रघुवीर सुबेल पर्वत पर सेना की बड़ी भीड़ (बड़े समूह) के साथ उतरे। पर्वत का एक बहुत ऊँचा, परम रमणीय, समतल औ  ......

लंका काण्ड दोहा 12

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चौपाई :पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी। परम प्रताप तेज बल रासी॥मत्त नाग तम कुंभ बिदारी। ससि केसरी गगन बन चारी॥1॥ भावार्थ:- पूर्व दिशा रूपी पर्वत की गुफा में रहने वाला, अत्यंत प्रताप, तेज और बल की राशि यह चंद्रमा रूपी सिंह अंधकार रूपी   ......

लंका काण्ड दोहा 13

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चौपाई :देखु विभीषन दच्छिन आसा। घन घमंड दामिनी बिलासा॥मधुर मधुर गरजइ घन घोरा। होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा॥1॥ भावार्थ:- हे विभीषण! दक्षिण दिशा की ओर देखो, बादल कैसा घुमड़ रहा है और बिजली चमक रही है। भयानक बादल मीठे-मीठे (हल्के-हल्के) स  ......

लंका काण्ड दोहा 14

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चौपाई :कंप न भूमि न मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा।सोचहिं सब निज हृदय मझारी। असगुन भयउ भयंकर भारी॥1॥ भावार्थ:- न भूकम्प हुआ, न बहुत जोर की हवा (आँधी) चली। न कोई अस्त्र-शस्त्र ही नेत्रों से देखे। (फिर ये छत्र, मुकुट और कर्  ......

लंका काण्ड दोहा 15

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चौपाई :पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा॥भृकुटि बिलास भयंकर काला। नयन दिवाकर कच घन माला॥1॥ भावार्थ:- पाताल (जिन विश्व रूप भगवान्‌ का) चरण है, ब्रह्म लोक सिर है, अन्य (बीच के सब) लोकों का विश्राम (स्थिति) जिनके अन्य भिन्  ......

लंका काण्ड दोहा 16

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चौपाई :बिहँसा नारि बचन सुनि काना। अहो मोह महिमा बलवाना॥नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं॥1॥ भावार्थ:- पत्नी के वचन कानों से सुनकर रावण खूब हँसा (और बोला-) अहो! मोह (अज्ञान) की महिमा बड़ी बलवान्‌ है। स्त्री का स्वभाव स  ......

लंका काण्ड दोहा 17

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चौपाई :इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई॥कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवंत कह पद सिरु नाई॥1॥ भावार्थ:- यहाँ (सुबेल पर्वत पर) प्रातःकाल श्री रघुनाथजी जागे और उन्होंने सब मंत्रियों को बुलाकर सलाह पूछी कि शीघ्र बताइए, अब क  ......

लंका काण्ड दोहा 18

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चौपाई :बंदि चरन उर धरि प्रभुताई। अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई॥प्रभु प्रताप उर सहज असंका। रन बाँकुरा बालिसुत बंका॥1॥ भावार्थ:- चरणों की वंदना करके और भगवान्‌ की प्रभुता हृदय में धरकर अंगद सबको सिर नवाकर चले। प्रभु के प्रताप को हृदय   ......

लंका काण्ड दोहा 19

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चौपाई :तुरत निसाचर एक पठावा। समाचार रावनहि जनावा॥सुनत बिहँसि बोला दससीसा। आनहु बोलि कहाँ कर कीसा॥1॥ भावार्थ:- तुरंत ही उन्होंने एक राक्षस को भेजा और रावण को अपने आने का समाचार सूचित किया। सुनते ही रावण हँसकर बोला- बुला लाओ, (देख  ......

लंका काण्ड दोहा 20

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चौपाई :कह दसकंठ कवन तैं बंदर। मैं रघुबीर दूत दसकंधर॥मम जनकहि तोहि रही मिताई। तव हित कारन आयउँ भाई॥1॥ भावार्थ:- रावण ने कहा- अरे बंदर! तू कौन है? (अंगद ने कहा-) हे दशग्रीव! मैं श्री रघुवीर का दूत हूँ। मेरे पिता से और तुमसे मित्रता थी, इ  ......

लंका काण्ड दोहा 21

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चौपाई :रे कपिपोत बोलु संभारी। मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी॥कहु निज नाम जनक कर भाई। केहि नातें मानिऐ मिताई॥1॥ भावार्थ:- (रावण ने कहा-) अरे बंदर के बच्चे! सँभालकर बोल! मूर्ख! मुझ देवताओं के शत्रु को तूने जाना नहीं? अरे भाई! अपना और अपने ब  ......

लंका काण्ड दोहा 22

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चौपाई :सिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई। चाहत जासु चरन सेवकाई॥तासु दूत होइ हम कुल बोरा। अइसिहुँ मति उर बिहर न तोरा॥1॥ भावार्थ:- शिव, ब्रह्मा (आदि) देवता और मुनियों के समुदाय जिनके चरणों की सेवा (करना) चाहते हैं, उनका दूत होकर मैंने कुल क  ......

लंका काण्ड दोहा 23

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चौपाई :तुम्हरे कटक माझ सुनु अंगद। मो सन भिरिहि कवन जोधा बद॥तब प्रभु नारि बिरहँ बलहीना। अनुज तासु दुख दुखी मलीना॥1॥ भावार्थ:- अरे अंगद! सुन, तेरी सेना में बता, ऐसा कौन योद्धा है, जो मुझसे भिड़ सकेगा। तेरा मालिक तो स्त्री के वियोग म  ......

लंका काण्ड दोहा 24

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चौपाई :धन्य कीस जो निज प्रभु काजा। जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा॥नाचि कूदि करि लोग रिझाई। पति हित करइ धर्म निपुनाई॥1॥ भावार्थ:- बंदर को धन्य है, जो अपने मालिक के लिए लाज छोड़कर जहाँ-तहाँ नाचता है। नाच-कूदकर, लोगों को रिझाकर, मालिक का ह  ......

लंका काण्ड दोहा 25

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चौपाई : :सुनु सठ सोइ रावन बलसीला। हरगिरि जान जासु भुज लीला॥जान उमापति जासु सुराई। पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढ़ाई॥1॥ भावार्थ:-(रावण ने कहा-) अरे मूर्ख! सुन, मैं वही बलवान्‌ रावण हूँ, जिसकी भुजाओं की लीला (करामात) कैलास पर्वत जानता है। जिस  ......

लंका काण्ड दोहा 26

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चौपाई :सुनि अंगद सकोप कह बानी। बोलु संभारि अधम अभिमानी॥सहसबाहु भुज गहन अपारा। दहन अनल सम जासु कुठारा॥1॥ भावार्थ:- रावण के ये वचन सुनकर अंगद क्रोध सहित वचन बोले- अरे नीच अभिमानी! सँभलकर (सोच-समझकर) बोल। जिनका फरसा सहस्रबाहु की भु  ......

लंका काण्ड दोहा 27

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चौपाई :सुनु रावन परिहरि चतुराई। भजसि न कृपासिंधु रघुराई॥जौं खल भएसि राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही॥1॥ भावार्थ:- अरे रावण! चतुराई (कपट) छोड़कर सुन। कृपा के समुद्र श्री रघुनाथजी का तू भजन क्यों नहीं करता? अरे दुष्ट! यदि त  ......

लंका काण्ड दोहा 28

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चौपाई :सठ साखामृग जोरि सहाई। बाँधा सिंधु इहइ प्रभुताई॥नाघहिं खग अनेक बारीसा। सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा॥1॥ भावार्थ:- रे दुष्ट! वानरों की सहायता जोड़कर राम ने समुद्र बाँध लिया, बस, यही उसकी प्रभुता है। समुद्र को तो अनेकों पक्षी   ......

लंका काण्ड दोहा 29

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चौपाई :जरत बिलोकेउँ जबहि कपाला। बिधि के लिखे अंक निज भाला॥नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची॥1॥ भावार्थ:- मस्तकों के जलते समय जब मैंने अपने ललाटों पर लिखे हुए विधाता के अक्षर देखे, तब मनुष्य के हाथ से अपनी मृत्य  ......

लंका काण्ड दोहा 30

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चौपाई :अब जनि बतबढ़ाव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही॥दसमुख मैं न बसीठीं आयउँ। अस बिचारि रघुबीर पठायउँ॥1॥ भावार्थ:- अरे दुष्ट! अब बतबढ़ाव मत कर, मेरा वचन सुन और अभिमान त्याग दे! हे दशमुख! मैं दूत की तरह (सन्धि करने) नहीं आया हूँ। श  ......

लंका काण्ड दोहा 31

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चौपाई :जौं अस करौं तदपि न बड़ाई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई॥कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा। अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा॥1॥ भावार्थ:- यदि ऐसा करूँ, तो भी इसमें कोई बड़ाई नहीं है। मरे हुए को मारने में कुछ भी पुरुषत्व (बहादुरी) नहीं है। वामम  ......

लंका काण्ड दोहा 32

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चौपाई :जब तेहिं कीन्हि राम कै निंदा। क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा॥हरि हर निंदा सुनइ जो काना। होइ पाप गोघात समाना॥1॥ भावार्थ:- जब उसने श्री रामजी की निंदा की, तब तो कपिश्रेष्ठ अंगद अत्यंत क्रोधित हुए, क्योंकि (शास्त्र ऐसा कहते हैं कि) जो  ......

लंका काण्ड दोहा 33

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चौपाई :एहि बधि बेगि सुभट सब धावहु। खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु॥मर्कटहीन करहु महि जाई। जिअत धरहु तापस द्वौ भाई॥1॥ भावार्थ:- (रावण फिर बोला-) इसे मारकर सब योद्धा तुरंत दौड़ो और जहाँ कहीं रीछ-वानरों को पाओ, वहीं खा डालो। पृथ्वी को बं  ......

लंका काण्ड दोहा 34

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चौपाई :मैं तव दसन तोरिबे लायक। आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक॥असि रिस होति दसउ मुख तोरौं। लंका गहि समुद्र महँ बोरौं॥1॥ भावार्थ:- मैं तेरे दाँत तोड़ने में समर्थ हूँ। पर क्या करूँ? श्री रघुनाथजी ने मुझे आज्ञा नहीं दी। ऐसा क्रोध आता है कि   ......

लंका काण्ड दोहा 35

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चौपाई :कपि बल देखि सकल हियँ हारे। उठा आपु कपि कें परचारे॥गहत चरन कह बालिकुमारा। मम पद गहें न तोर उबारा॥1॥ भावार्थ:- अंगद का बल देखकर सब हृदय में हार गए। तब अंगद के ललकारने पर रावण स्वयं उठा। जब वह अंगद का चरण पकड़ने लगा, तब बालि कुमा  ......

लंका काण्ड दोहा 36

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चौपाई :कंत समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही॥रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई॥1॥ भावार्थ:- हे कान्त! मन में समझकर (विचारकर) कुबुद्धि को छोड़ दो। आप से और श्री रघुनाथजी से युद्ध शोभा नहीं देता। उनक  ......

लंका काण्ड दोहा 37

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चौपाई :जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला॥कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायउ तव हित हेतू॥1॥ भावार्थ:- जिन्होंने खेल से ही समुद्र को बँधा लिया और जो प्रभु सेना सहित सुबेल पर्वत पर उतर पड़े, उन सूर्यकुल के ध्वजास्वर  ......

लंका काण्ड दोहा 38

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चौपाई :नारि बचन सुनि बिसिख समाना। सभाँ गयउ उठि होत बिहाना॥बैठ जाइ सिंघासन फूली। अति अभिमान त्रास सब भूली॥1॥ भावार्थ:- स्त्री के बाण के समान वचन सुनकर वह सबेरा होते ही उठकर सभा में चला गया और सारा भय भुलाकर अत्यंत अभिमान में फूलक  ......

लंका काण्ड दोहा 39

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चौपाई :रिपु के समाचार जब पाए। राम सचिव सब निकट बोलाए॥लंका बाँके चारि दुआरा। केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा॥1॥ भावार्थ:- जब शत्रु के समाचार प्राप्त हो गए, तब श्री रामचंद्रजी ने सब मंत्रियों को पास बुलाया (और कहा-) लंका के चार बड़े विक  ......

लंका काण्ड दोहा 40

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चौपाई :लंकाँ भयउ कोलाहल भारी। सुना दसानन अति अहँकारी॥देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई। बिहँसि निसाचर सेन बोलाई॥1॥ भावार्थ:- लंका में बड़ा भारी कोलाहल (कोहराम) मच गया। अत्यंत अहंकारी रावण ने उसे सुनकर कहा- वानरों की ढिठाई तो देखो! यह कहत  ......

लंका काण्ड दोहा 41

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चौपाई :कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे। मेरु के सृंगनि जनु घन बैसे॥बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ। सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ॥1॥ भावार्थ:- वे परकोटे के कँगूरों पर कैसे शोभित हो रहे हैं, मानो सुमेरु के शिखरों पर बादल बैठे हों। जुझाऊ ढोल और डंक  ......

लंका काण्ड दोहा 42

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चौपाई :राम प्रताप प्रबल कपिजूथा। मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा॥चढ़े दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर। जय रघुबीर प्रताप दिवाकर॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी के प्रताप से प्रबल वानरों के झुंड राक्षस योद्धाओं के समूह के समूह मसल रहे हैं। वानर फिर   ......

लंका काण्ड दोहा 43

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चौपाई :भय आतुर कपि भागत लागे। जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे॥कोउ कह कहँ अंगद हनुमंता। कहँ नल नील दुबिद बलवंता॥1॥ भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) वानर भयातुर होकर (डर के मारे घबड़ाकर) भागने लगे, यद्यपि हे उमा! आगे चलकर (वे ही) जीतेंगे। कोई कहता   ......

लंका काण्ड दोहा 44

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चौपाई :जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बंदर। राम प्रताप सुमिरि उर अंतर॥रावन भवन चढ़े द्वौ धाई। करहिं कोसलाधीस दोहाई॥1॥ भावार्थ:- युद्ध में शत्रुओं के विरुद्ध दोनों वानर क्रुद्ध हो गए। हृदय में श्री रामजी के प्रताप का स्मरण करके द  ......

लंका काण्ड दोहा 45

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चौपाई :महा महा मुखिआ जे पावहिं। ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं॥कहइ बिभीषनु तिन्ह के नामा। देहिं राम तिन्हहू निज धामा॥1॥ भावार्थ:- जिन बड़े-बड़े मुखियों (प्रधान सेनापतियों) को पकड़ पाते हैं, उनके पैर पकड़कर उन्हें प्रभु के पास फेंक   ......

लंका काण्ड दोहा 46

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चौपाई :प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए। देखि सुभट रघुपति मन भाए॥राम कृपा करि जुगल निहारे। भए बिगतश्रम परम सुखारे॥1॥ भावार्थ:- उन्होंने प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाए। उत्तम योद्धाओं को देखकर श्री रघुनाथजी मन में बहुत प्रसन्न हुए।   ......

लंका काण्ड दोहा 47

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चौपाई :सकल मरमु रघुनायक जाना। लिए बोलि अंगद हनुमाना॥समाचार सब कहि समुझाए। सुनत कोपि कपिकुंजर धाए॥1॥ भावार्थ:- श्री रघुनाथजी सब रहस्य जान गए। उन्होंने अंगद और हनुमान्‌ को बुला लिया और सब समाचार कहकर समझाया। सुनते ही वे दोनों क  ......

लंका काण्ड दोहा 48

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चौपाई :निसा जानि कपि चारिउ अनी। आए जहाँ कोसला धनी॥राम कृपा करि चितवा सबही। भए बिगतश्रम बानर तबही॥1॥ भावार्थ:- रात हुई जानकर वानरों की चारों सेनाएँ (टुकड़ियाँ) वहाँ आईं, जहाँ कोसलपति श्री रामजी थे। श्री रामजी ने ज्यों ही सबको कृप  ......

लंका काण्ड दोहा 49

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चौपाई :परिहरि बयरु देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही॥ताके बचन बान सम लागे। करिआ मुँह करि जाहि अभागे॥1॥ भावार्थ:- (अतः) वैर छोड़कर उन्हें जानकीजी को दे दो और कृपानिधान परम स्नेही श्री रामजी का भजन करो। रावण को उसके वचन बाण के   ......

लंका काण्ड दोहा 50

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चौपाई :कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोत बिख्याता॥कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा। अंगद हनूमंत बल सींवा॥1॥ भावार्थ:- (मेघनाद ने पुकारकर कहा-) समस्त लोकों में प्रसिद्ध धनुर्धर कोसलाधीश दोनों भाई कहाँ हैं? नल, नील, द्विविद, सुग्रीव  ......

लंका काण्ड दोहा 51

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चौपाई :देखि पवनसुत कटक बिहाला। क्रोधवंत जनु धायउ काला॥महासैल एक तुरत उपारा। अति रिस मेघनाद पर डारा॥1॥ भावार्थ:- सारी सेना को बेहाल (व्याकुल) देखकर पवनसुत हनुमान्‌ क्रोध करके ऐसे दौड़े मानो स्वयं काल दौड़ आता हो। उन्होंने तुरं  ......

लंका काण्ड दोहा 52

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चौपाई : :नभ चढ़ि बरष बिपुल अंगारा। महि ते प्रगट होहिं जलधारा॥नाना भाँति पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनि बोलहिं नाची॥1॥ भावार्थ:- आकाश में (ऊँचे) चढ़कर वह बहुत से अंगारे बरसाने लगा। पृथ्वी से जल की धाराएँ प्रकट होने लगीं। अनेक प्रका  ......

लंका काण्ड दोहा 53

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चौपाई :छतज नयन उर बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला॥इहाँ दसानन सुभट पठाए। नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए॥1॥ भावार्थ:- उनके लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं। हिमाचल पर्वत के समान उज्ज्वल (गौरवर्ण) शरीर कुछ ललाई लि  ......

लंका काण्ड दोहा 54

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चौपाई :घायल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमति किंसुक के तरु जैसे॥लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा। भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा॥1॥ भावार्थ:- घायल वीर कैसे शोभित हैं, जैसे फूले हुए पलास के पेड़। लक्ष्मण और मेघनाद दोनों योद्धा अत्यंत क्रोध करके   ......

लंका काण्ड दोहा 55

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चौपाई :सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू। जारइ भुवन चारिदस आसू॥सक संग्राम जीति को ताही। सेवहिं सुर नर अग जग जाही॥1॥ भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) हे गिरिजे! सुनो, (प्रलयकाल में) जिन (शेषनाग) के क्रोध की अग्नि चौदहों भुवनों को तुरंत ही जला डाल  ......

लंका काण्ड दोहा 56

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चौपाई :राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभंजनसुत बल भाषी॥उहाँ दूत एक मरमु जनावा। रावनु कालनेमि गृह आवा॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी के चरणकमलों को हृदय में रखकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी अपना बल बखानकर (अर्थात्‌ मैं अभी लिए आता हूँ, ऐसा कहकर) च  ......

लंका काण्ड दोहा 57

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चौपाई :अस कहि चला रचिसि मग माया। सर मंदिर बर बाग बनाया॥मारुतसुत देखा सुभ आश्रम। मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम॥1॥ भावार्थ:- वह मन ही मन ऐसा कहकर चला और उसने मार्ग में माया रची। तालाब, मंदिर और सुंदर बाग बनाया। हनुमान्‌जी ने सुंदर   ......

लंका काण्ड दोहा 58

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चौपाई :कपि तव दरस भइउँ निष्पापा। मिटा तात मुनिबर कर सापा॥मुनि न होइ यह निसिचर घोरा। मानहु सत्य बचन कपि मोरा॥1॥ भावार्थ:- (उसने कहा-) हे वानर! मैं तुम्हारे दर्शन से पापरहित हो गई। हे तात! श्रेष्ठ मुनि का शाप मिट गया। हे कपि! यह मुनि न  ......

लंका काण्ड दोहा 59

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चौपाई :परेउ मुरुछि महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक॥सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए। कपि समीप अति आतुर आए॥1॥ भावार्थ:- बाण लगते ही हनुमान्‌जी ‘राम, राम, रघुपति’ का उच्चारण करते हुए मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। प्रिय वचन (रा  ......

लंका काण्ड दोहा 60

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चौपाई :तात कुसल कहु सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी॥लकपि सब चरित समास बखाने। भए दुखी मन महुँ पछिताने॥1॥ भावार्थ:- (भरतजी बोले-) हे तात! छोटे भाई लक्ष्मण तथा माता जानकी सहित सुखनिधान श्री रामजी की कुशल कहो। वानर (हनुमान्‌जी)   ......

लंका काण्ड दोहा 61

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चौपाई :उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी॥अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ॥1॥ भावार्थ:- वहाँ लक्ष्मणजी को देखकर श्री रामजी साधारण मनुष्यों के अनुसार (समान) वचन बोले- आधी रात बीत चुकी है, हनुमान्‌ नहीं  ......

लंका काण्ड दोहा 62

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चौपाई :हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी हर्षित होकर हनुमान्‌जी से गले मिले। प्रभु परम सुजान (चतुर) और अत्यंत ही कृतज्ञ हैं। तब वैद्य (सुषेण)  ......

लंका काण्ड दोहा 63

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चौपाई :भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥1॥ भावार्थ:- हे राक्षसराज! तूने अच्छा नहीं किया। अब आकर मुझे क्यों जगाया? हे तात! अब भी अभिमान छोड़कर श्री रामजी को भजो त  ......

लंका काण्ड दोहा 64

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चौपाई :महिषखाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना॥कुंभकरन दुर्मद रन रंगा। चला दुर्ग तजि सेन न संगा॥1॥ भावार्थ:-भैंसे खाकर और मदिरा पीकर वह वज्रघात (बिजली गिरने) के समान गरजा। मद से चूर रण के उत्साह से पूर्ण कुंभकर्ण किला छोड़क  ......

लंका काण्ड दोहा 65

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चौपाई :बंधु बचन सुनि चला बिभीषन। आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन॥नाथ भूधराकार सरीरा। कुंभकरन आवत रनधीरा॥1॥॥ भावार्थ:- भाई के वचन सुनकर विभीषण लौट गए और वहाँ आए, जहाँ त्रिलोकी के भूषण श्री रामजी थे। (विभीषण ने कहा-) हे नाथ! पर्वत के समान (व  ......

लंका काण्ड दोहा 66

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चौपाई :उमा करत रघुपति नरलीला। खेलत गरुड़ जिमि अहिगन मीला॥भृकुटि भंग जो कालहि खाई। ताहि कि सोहइ ऐसि लराई॥1॥ भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रघुनाथजी वैसे ही नरलीला कर रहे हैं, जैसे गरुड़ सर्पों के समूह में मिलकर खेलता हो।   ......

लंका काण्ड दोहा 67

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चौपाई :कुंभकरन रन रंग बिरुद्धा। सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा॥कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई। जनु टीड़ी गिरि गुहाँ समाई॥1॥ भावार्थ:- रण के उत्साह में कुंभकर्ण विरुद्ध होकर (उनके) सामने ऐसा चला मानो क्रोधित होकर काल ही आ रहा हो। वह करोड़-  ......

लंका काण्ड दोहा 68

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चौपाई :कर सारंग साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा॥प्रथम कीन्हि प्रभु धनुष टंकोरा। रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा॥1॥ भावार्थ:- हाथ में शार्गंधनुष और कमर में तरकस सजाकर श्री रघुनाथजी शत्रु सेना को दलन करने चले। प्रभु ने पहले तो ध  ......

लंका काण्ड दोहा 69

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चौपाई :कुंभकरन मन दीख बिचारी। हति छन माझ निसाचर धारी॥भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा। कियो मृगनायक नाद गँभीरा॥1॥ भावार्थ:- कुंभकर्ण ने मन में विचार कर देखा कि श्री रामजी ने क्षण मात्र में राक्षसी सेना का संहार कर डाला। तब वह महाबली वीर  ......

लंका काण्ड दोहा 70

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चौपाई :भागे भालु बलीमुख जूथा। बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा॥चले भागि कपि भालु भवानी। बिकल पुकारत आरत बानी॥1॥ भावार्थ:- यह देखकर रीछ-वानरों के झुंड ऐसे भागे जैसे भेड़िये को देखकर भेड़ों के झुंड! (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! वानर-भालू व्  ......

लंका काण्ड दोहा 71

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चौपाई :सभय देव करुनानिधि जान्यो। श्रवन प्रजंत सरासुन तान्यो॥बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ। तदपि महाबल भूमि न परेऊ॥1॥ भावार्थ:- करुणानिधान भगवान्‌ ने देवताओं को भयभीत जाना। तब उन्होंने धनुष को कान तक तानकर राक्षस के मुख को बाणों  ......

लंका काण्ड दोहा 72

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चौपाई :दिन के अंत फिरीं द्वौ अनी। समर भई सुभटन्ह श्रम घनी॥राम कृपाँ कपि दल बल बाढ़ा। जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़ा॥1॥ भावार्थ:- दिन का अन्त होने पर दोनों सेनाएँ लौट पड़ीं। (आज के युद्ध में) योद्धाओं को बड़ी थकावट हुई, परन्तु श्री राम  ......

लंका काण्ड दोहा 73

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चौपाई :सक्ति सूल तरवारि कृपाना। अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना॥डारइ परसु परिघ पाषाना। लागेउ बृष्टि करै बहु बाना॥1॥ भावार्थ:- वह शक्ति, शूल, तलवार, कृपाण आदि अस्त्र, शास्त्र एवं वज्र आदि बहुत से आयुध चलाने तथा फरसे, परिघ, पत्थर आदि  ......

लंका काण्ड दोहा 74

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चौपाई :चरित राम के सगुन भवानी। तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी॥अस बिचारि जे तग्य बिरागी। रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी॥1॥ भावार्थ:- हे भवानी! श्री रामजी की इस सगुण लीलाओं के विषय में बुद्धि और वाणी के बल से तर्क (निर्णय) नहीं किया जा सकता  ......

लंका काण्ड दोहा 75

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चौपाई :मेघनाद कै मुरछा जागी। पितहि बिलोकि लाज अति लागी॥तुरत गयउ गिरिबर कंदरा। करौं अजय मख अस मन धरा॥1॥ भावार्थ:- मेघनाद की मूर्च्छा छूटी, (तब) पिता को देखकर उसे बड़ी शर्म लगी। मैं अजय (अजेय होने को) यज्ञ करूँ, ऐसा मन में निश्चय करके  ......

लंका काण्ड दोहा 76

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चौपाई :जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा। आहुति देत रुधिर अरु भैंसा॥कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा। जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा॥1॥ भावार्थ:- वानरों ने जाकर देखा कि वह बैठा हुआ खून और भैंसे की आहुति दे रहा है। वानरों ने सब यज्ञ विध्वंस कर दिया।   ......

लंका काण्ड दोहा 77

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चौपाई :बिनु प्रयास हनुमान उठायो। लंका द्वार राखि पुनि आयो॥तासु मरन सुनि सुर गंधर्बा। चढ़ि बिमान आए नभ सर्बा॥1॥ भावार्थ:- हनुमान्‌जी ने उसको बिना ही परिश्रम के उठा लिया और लंका के दरवाजे पर रखकर वे लौट आए। उसका मरना सुनकर देवता   ......

लंका काण्ड दोहा 78

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चौपाई :तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन। आपुन मंद कथा सुभ पावन॥पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥1॥ भावार्थ:- रावण ने उनको ज्ञान का उपदेश किया। वह स्वयं तो नीच है, पर उसकी कथा (बातें) शुभ और पवित्र हैं। दूसरों को उपदेश देने   ......

लंका काण्ड दोहा 79

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चौपाई :चलेउ निसाचर कटकु अपारा। चतुरंगिनी अनी बहु धारा॥बिबिधि भाँति बाहन रथ जाना। बिपुल बरन पताक ध्वज नाना॥1॥ भावार्थ:- राक्षसों की अपार सेना चली। चतुरंगिणी सेना की बहुत सी Uटुकडि़याँ हैं। अनेकों प्रकार के वाहन, रथ और सवारियाँ   ......

लंका काण्ड दोहा 80

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चौपाई :रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा॥1॥ भावार्थ:- रावण को रथ पर और श्री रघुवीर को बिना रथ के देखकर विभीषण अधीर हो गए। प्रेम अधिक होने से उनके मन में सन्देह हो गया (क  ......

लंका काण्ड दोहा 81

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चौपाई :सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढ़े बिमाना॥हमहू उमा रहे तेहिं संगा। देखत राम चरित रन रंगा॥1॥ भावार्थ:- ब्रह्मा आदि देवता और अनेकों सिद्ध तथा मुनि विमानों पर चढ़े हुए आकाश से युद्ध देख रहे हैं। (शिवजी कहते हैं-) हे  ......

लंका काण्ड दोहा 82

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चौपाई :धायउ परम क्रुद्ध दसकंधर। सन्मुख चले हूह दै बंदर॥गहि कर पादप उपल पहारा। डारेन्हि ता पर एकहिं बारा॥1॥ भावार्थ:- रावण अत्यंत क्रोधित होकर दौड़ा। वानर हुँकार करते हुए (लड़ने के लिए) उसके सामने चले। उन्होंने हाथों में वृक्ष, पत  ......

लंका काण्ड दोहा 83

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चौपाई :रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुड़ावउँ छाती॥1॥ भावार्थ:- (लक्ष्मणजी ने पास जाकर कहा-) अरे दुष्ट! वानर भालुओं को क्या मार रहा है? मुझे देख, मैं तेरा काल हूँ। (रावण ने कहा  ......

लंका काण्ड दोहा 84

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चौपाई:जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा॥मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा॥1॥ भावार्थ:- हनुमान्‌जी घुटने टेककर रह गए, पृथ्वी पर गिरे नहीं और फिर क्रोध से भरे हुए संभलकर उठे। हनुमान्‌जी ने रावण क  ......

लंका काण्ड दोहा 85

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चौपाई :इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई॥नाथ करइ रावन एक जागा। सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा॥1॥ भावार्थ:- यहाँ विभीषणजी ने सब खबर पाई और तुरंत जाकर श्री रघुनाथजी को कह सुनाई कि हे नाथ! रावण एक यज्ञ कर रहा है। उसके सिद्ध  ......

लंका काण्ड दोहा 86

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चौपाई :चलत होहिं अति असुभ भयंकर। बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर॥भयउ कालबस काहु न माना। कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना॥1॥ भावार्थ:- चलते समय अत्यंत भयंकर अमंगल (अपशकुन) होने लगे। गीध उड़-उड़कर उसके सिरों पर बैठने लगे, किन्तु वह काल के वश   ......

लंका काण्ड दोहा 87

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चौपाई :एहीं बीच निसाचर अनी। कसमसात आई अति घनी॥देखि चले सन्मुख कपि भट्टा। प्रलयकाल के जनु घन घट्टा॥1॥ भावार्थ:- इसी बीच में निशाचरों की अत्यंत घनी सेना कसमसाती हुई (आपस में टकराती हुई) आई। उसे देखकर वानर योद्धा इस प्रकार (उसके) सामन  ......

लंका काण्ड दोहा 88

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चौपाई :मज्जहिं भूत पिसाच बेताला। प्रमथ महा झोटिंग कराला॥काक कंक लै भुजा उड़ाहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीं॥1॥ भावार्थ:- भूत, पिशाच और बेताल, बड़े-बड़े झोंटों वाले महान्‌ भयंकर झोटिंग और प्रमथ (शिवगण) उस नदी में स्नान करते हैं। कौए और   ......

लंका काण्ड दोहा 89

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चौपाई :देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा॥सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा॥1॥ भावार्थ:- देवताओं ने प्रभु को पैदल (बिना सवारी के युद्ध करते) देखा, तो उनके हृदय में बड़ा भारी क्षोभ (दुःख) उत्पन्न हुआ।   ......

लंका काण्ड दोहा 90

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चौपाई :अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पंकज सिरु नावा॥तब लंकेस क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सम्मुख धावा॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने ब्राह्मणों के चरणकमलों में सिर नवाया और फिर रथ चलाया। तब रावण के हृदय में क्रोध छा ग  ......

लंका काण्ड दोहा 91

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चौपाई :कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकंधर। कुलिस समान लाग छाँड़ै सर॥॥नानाकार सिलीमुख धाए। दिसि अरु बिदिसि गगन महि छाए॥1॥ भावार्थ:- दुर्वचन कहकर रावण क्रुद्ध होकर वज्र के समान बाण छोड़ने लगा। अनेकों आकार के बाण दौड़े और दिशा, विदिशा त  ......

लंका काण्ड दोहा 92

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चौपाई :चले बान सपच्छ जनु उरगा। प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा॥रथ बिभंजि हति केतु पताका। गर्जा अति अंतर बल थाका॥1॥ भावार्थ:- बाण ऐसे चले मानो पंख वाले सर्प उड़ रहे हों। उन्होंने पहले सारथी और घोड़ों को मार डाला। फिर रथ को चूर-चूर करके ध  ......

लंका काण्ड दोहा 93

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चौपाई :दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढ़ी। बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी॥गर्जेउ मूढ़ महा अभिमानी। धायउ दसहु सरासन तानी॥1॥ भावार्थ:- सिरों की बाढ़ देखकर रावण को अपना मरण भूल गया और बड़ा गहरा क्रोध हुआ। वह महान्‌ अभिमानी मूर्ख गरजा और दसों धनु  ......

लंका काण्ड दोहा 94

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चौपाई :आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भंजन पन मोरा॥तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥1॥ भावार्थ:- अत्यंत भयानक शक्ति को आती देख और यह विचार कर कि मेरा प्रण शरणागत के दुःख का नाश करना है, श्री रामजी ने तुरंत ही   ......

लंका काण्ड दोहा 95

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चौपाई :देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धायउ हनूमान गिरि धारी॥रथ तुरंग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता॥1॥ भावार्थ:- विभीषण को बहुत ही थका हुआ देखकर हनुमान्‌जी पर्वत धारण किए हुए दौड़े। उन्होंने उस पर्वत से रावण के रथ, घोड़े औ  ......

लंका काण्ड दोहा 96

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चौपाई :अंतरधान भयउ छन एका। पुनि प्रगटे खल रूप अनेका॥रघुपति कटक भालु कपि जेते। जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते॥1॥ भावार्थ:- क्षणभर के लिए वह अदृश्य हो गया। फिर उस दुष्ट ने अनेकों रूप प्रकट किए। श्री रघुनाथजी की सेना में जितने रीछ-वानर थ  ......

लंका काण्ड दोहा 97

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चौपाई :प्रभु छन महुँ माया सब काटी। जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी॥रावनु एकु देखि सुर हरषे। फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे॥1॥ भावार्थ:- प्रभु ने क्षणभर में सब माया काट डाली। जैसे सूर्य के उदय होते ही अंधकार की राशि फट जाती है (नष्ट हो जाती ह  ......

लंका काण्ड दोहा 98

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चौपाई :सिर भुज बाढ़ि देखि रिपु केरी। भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी॥मरत न मूढ़ कटेहुँ भुज सीसा। धाए कोपि भालु भट कीसा॥1॥ भावार्थ:- शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती देखकर रीछ-वानरों को बहुत ही क्रोध हुआ। यह मूर्ख भुजाओं के और सिरों के कटने  ......

लंका काण्ड दोहा 99

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चौपाई :तेही निसि सीता पहिं जाई। त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई॥सिर भुज बाढ़ि सुनत रिपु केरी। सीता उर भइ त्रास घनेरी॥1॥ भावार्थ:- उसी रात त्रिजटा ने सीताजी के पास जाकर उन्हें सब कथा कह सुनाई। शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती का संवाद सुनक  ......

लंका काण्ड दोहा 100

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चौपाई :अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई॥राम सुभाउ सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह बिथा अति तेही॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर और सीताजी को बहुत प्रकार से समझाकर फिर त्रिजटा अपने घर चली गई। श्री रामचंद्रजी के स्वभाव का स्मर  ......

लंका काण्ड दोहा 101

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छंद :जब कीन्ह तेहिं पाषंड। भए प्रगट जंतु प्रचंड॥बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच॥1॥ भावार्थ:-जब उसने पाखंड (माया) रचा, तब भयंकर जीव प्रकट हो गए। बेताल, भूत और पिशाच हाथों में धनुष-बाण लिए प्रकट हुए!॥1॥ जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ म  ......

लंका काण्ड दोहा 102

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चौपाई :काटत बढ़हिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा॥1॥ भावार्थ:- काटते ही सिरों का समूह बढ़ जाता है, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है। शत्रु मरता नहीं और परिश्रम बहुत हुआ।   ......

लंका काण्ड दोहा 103

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चौपाई :सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा॥लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा॥1॥ भावार्थ:- एक बाण ने नाभि के अमृत कुंड को सोख लिया। दूसरे तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओं में लगे। बाण सिरों और भुजाओं   ......

लंका काण्ड दोहा 104

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चौपाई :पति सिर देखत मंदोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी॥जुबति बृंद रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आईं॥1॥ भावार्थ:- पति के सिर देखते ही मंदोदरी व्याकुल और मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। स्त्रियाँ रोती हुई दौड़ीं और उस (मंद  ......

लंका काण्ड दोहा 105

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चौपाई :मंदोदरी बचन सुनि काना। सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना॥अज महेस नारद सनकादी। जे मुनिबर परमारथबादी॥1॥ भावार्थ:- मंदोदरी के वचन कानों में सुनकर देवता, मुनि और सिद्ध सभी ने सुख माना। ब्रह्मा, महादेव, नारद और सनकादि तथा और भी जो   ......

लंका काण्ड दोहा 106

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चौपाई :आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो। कृपासिंधु तब अनुज बोलायो॥तुम्ह कपीस अंगद नल नीला। जामवंत मारुति नयसीला॥1॥सब मिलि जाहु बिभीषन साथा। सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा॥पिता बचन मैं नगर न आवउँ। आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ॥2॥ भावार्थ:- सब क्र  ......

लंका काण्ड दोहा 107

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चौपाई :पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। लंका जाहु कहेउ भगवाना॥समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु॥1॥ भावार्थ:- फिर प्रभु ने हनुमान्‌जी को बुला लिया। भगवान्‌ ने कहा- तुम लंका जाओ। जानकी को सब समाचार सुनाओ और उसका कु  ......

लंका काण्ड दोहा 108

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चौपाई :अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई॥1॥ भावार्थ:- हे तात! अब तुम वही उपाय करो, जिससे मैं इन नेत्रों से प्रभु के कोमल श्याम शरीर के दर्शन करूँ। तब श्री रामचंद्रजी  ......

लंका काण्ड दोहा 109

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चौपाई :प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता॥लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी॥1॥ भावार्थ:- प्रभु के वचनों को सिर चढ़ाकर मन, वचन और कर्म से पवित्र श्री सीताजी बोलीं- हे लक्ष्मण! तुम मेरे धर्म के नेगी (धर  ......

लंका काण्ड दोहा 110

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चौपाई :तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई॥आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी॥1॥ भावार्थ:-तब श्री रघुनाथजी की आज्ञा पाकर इंद्र का सारथी मातलि चरणों में सिर नवाकर (रथ लेकर) चला गया। तदनन्तर सदा के स्वार्थी देवता   ......

लंका काण्ड दोहा 111

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छंद-जय राम सदा सुख धाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे।।भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो॥1॥भावार्थ:-हे नित्य सुखधाम और (दु:खों को हरने वाले) हरि! हे धनुष-बाण धारण किए हुए रघुनाथजी! आपकी जय हो। हे प्रभो! आप भव (जन्म-मरण) रूपी हाथ  ......

लंका काण्ड दोहा 112

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तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए।।अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा।।1 ।।भावार्थ:-उसी समय दशरथजी वहाँ आए। पुत्र (श्रीरामजी) को देखकर उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल छा गया। छोटे भाई लक्ष्मणजी स  ......

लंका काण्ड दोहा 113

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छंद –जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम।।धृत त्रोन बर सर चाप। भुजदंड प्रबल प्रताप।।1।।भावार्थ:-शोभा के धाम, शरणागत को विश्राम देने वाले, श्रेष्ठ तरकस, धनुष और बाण धारण किए हुए, प्रबल प्रतापी भुज दंडों वाले श्रीरामचंद्रजी की जय हो  ......

लंका काण्ड दोहा 114

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चौपाईसुन सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसिचरन्हि जे मारे।।मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना।।1।।भावार्थ:-हे देवराज! सुनो, हमारे वानर-भालू, जिन्हें निशाचरों ने मार डाला है, पृथ्वी पर पड़े हैं। इन्होंने मेरे हि  ......

लंका काण्ड दोहा 115

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छंदमामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक।।मोह महा घन पटल प्रभंजन। संसय बिपिन अनल सुर रंजन।।1।।भावार्थ:-हे रघुकुल के स्वामी! सुंदर हाथों में श्रेष्ठ धनुष और सुंदर बाण धारण किए हुए आप मेरी रक्षा कीजिए। आप महामोहरूपी मेघ  ......

लंका काण्ड दोहा 116

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चौपाई :करि बिनती जब संभु सिधाए। तब प्रभु निकट बिभीषनु आए॥नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी। बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी॥1॥भावार्थ:-जब शिवजी विनती करके चले गए, तब विभीषणजी प्रभु के पास आए और चरणों में सिर नवाकर कोमल वाणी से बोले- हे शार्गं धन  ......

लंका काण्ड दोहा 117

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चौपाई :सुनत बिभीषन बचन राम के। हरषि गहे पद कृपाधाम के॥बानर भालु सकल हरषाने। गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने॥1॥भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी के वचन सुनते ही विभीषणजी ने हर्षित होकर कृपा के धाम श्री रामजी के चरण पकड़ लिए। सभी वानर-भालू हर्षि  ......

लंका काण्ड दोहा 118

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चौपाई :भालु कपिन्ह पट भूषन पाए। पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए॥नाना जिनस देखि सब कीसा। पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा॥1॥भावार्थ:-भालुओं और वानरों ने कपड़े-गहने पाए और उन्हें पहन-पहनकर वे श्री रघुनाथजी के पास आए। अनेकों जातियों के वानरों क  ......

लंका काण्ड दोहा 119

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चौपाई :अतिसय प्रीति देखि रघुराई। लीन्हे सकल बिमान चढ़ाई॥मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो। उत्तर दिसिहि बिमान चलायो॥1॥भावार्थ:-श्री रघुनाथजी ने उनका अतिशय प्रेम देखकर सबको विमान पर चढ़ा लिया। तदनन्तर मन ही मन विप्रचरणों में सिर नवाक  ......

लंका काण्ड दोहा 120

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चौपाई :तुरत बिमान तहाँ चलि आवा। दंडक बन जहँ परम सुहावा॥कुंभजादि मुनिनायक नाना। गए रामु सब कें अस्थाना॥1॥भावार्थ:-विमान शीघ्र ही वहाँ चला आया, जहाँ परम सुंदर दण्डकवन था और अगस्त्य आदि बहुत से मुनिराज रहते थे। श्री रामजी इन सबके स्थ  ......

लंका काण्ड दोहा 121

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चौपाई :प्रभु हनुमंतहि कहा बुझाई। धरि बटु रूप अवधपुर जाई॥भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु। समाचार लै तुम्ह चलि आएहु॥1॥भावार्थ:-तदनन्तर प्रभु ने हनुमान्‌जी को समझाकर कहा- तुम ब्रह्मचारी का रूप धरकर अवधपुरी को जाओ। भरत को हमारी कुशल सुनान  ......

उत्तरकांड शुरुआत श्लोक

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श्रीगणेशायनमःश्रीजानकीवल्लभो विजयतेश्रीरामचरितमानससप्तम सोपानश्री उत्तरकाण्डश्लोक :केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नंशोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्‌।पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्ध  ......

उत्तर काण्ड दोहा 01

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चौपाई :रहेउ एक दिन अवधि अधारा। समुझत मन दुख भयउ अपारा॥कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ॥1॥भावार्थ:- प्राणों की आधार रूप अवधि का एक ही दिन शेष रह गया। यह सोचते ही भरतजी के मन में अपार दुःख हुआ। क्या कारण हुआ कि नाथ न  ......

उत्तर काण्ड दोहा 02

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चौपाई :देखत हनूमान अति हरषेउ। पुलक गात लोचन जल बरषेउ॥मन महँ बहुत भाँति सुख मानी। बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी॥1॥भावार्थ:- उन्हें देखते ही हनुमान्‌जी अत्यंत हर्षित हुए। उनका शरीर पुलकित हो गया, नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बरसने लगा  ......

उत्तर काण्ड दोहा 03

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चौपाई :हरषि भरत कोसलपुर आए। समाचार सब गुरहि सुनाए॥पुनि मंदिर महँ बात जनाई। आवत नगर कुसल रघुराई॥1॥ भावार्थ:- इधर भरतजी भी हर्षित होकर अयोध्यापुरी में आए और उन्होंने गुरुजी को सब समाचार सुनाया! फिर राजमहल में खबर जनाई कि श्री रघुन  ......

उत्तर काण्ड दोहा 04

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चौपाई :इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन्ह देखावत नगर मनोहर॥सुनु कपीस अंगद लंकेसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा॥1॥ भावार्थ:- यहाँ (विमान पर से) सूर्य कुल रूपी कमल को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्री रामजी वानरों को मनोहर नगर दिखला रहे हैं  ......

उत्तर काण्ड दोहा 05

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चौपाई :आए भरत संग सब लोगा। कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा॥बामदेव बसिष्ट मुनिनायक। देखे प्रभु महि धरि धनु सायक॥1॥ भावार्थ:- भरतजी के साथ सब लोग आए। श्री रघुवीर के वियोग से सबके शरीर दुबले हो रहे हैं। प्रभु ने वामदेव, वशिष्ठ आदि मुनिश्रे  ......

उत्तर काण्ड दोहा 06

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चौपाई :भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे। दुसह बिरह संभव दुख मेटे॥सीता चरन भरत सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा॥1॥ भावार्थ:- फिर लक्ष्मणजी शत्रुघ्नजी से गले लगकर मिले और इस प्रकार विरह से उत्पन्न दुःसह दुःख का नाश किया। फिर भाई शत्रुघ्  ......

उत्तर काण्ड दोहा 07

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चौपाई :सासुन्ह सबनि मिली बैदेही । चरनन्हि लाग हरषु अति तेही॥देहिं असीस बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता॥1॥ भावार्थ:- जानकीजी सब सासुओं से मिलीं और उनके चरणों में लगकर उन्हें अत्यंत हर्ष हुआ। सासुएँ कुशल पूछकर आशीष दे रही ह  ......