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अरण्यकाण्ड दोहा 21


चौपाई :

जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते॥
तब लछिमन सीतहि लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए॥1॥

 

भावार्थ:- जब श्री रघुनाथजी ने युद्ध में शत्रुओं को जीत लिया तथा देवता, मनुष्य और मुनि सबके भय नष्ट हो गए, तब लक्ष्मणजी सीताजी को ले आए। चरणों में पड़ते हुए उनको प्रभु ने प्रसन्नतापूर्वक उठाकर हृदय से लगा लिया॥1॥

 

सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता॥
पंचबटीं बसि श्री रघुनायक। करत चरित सुर मुनि सुखदायक॥2॥

 

भावार्थ:- सीताजी श्री रामजी के श्याम और कोमल शरीर को परम प्रेम के साथ देख रही हैं, नेत्र अघाते नहीं हैं। इस प्रकार पंचवटी में बसकर श्री रघुनाथजी देवताओं और मुनियों को सुख देने वाले चरित्र करने लगे॥2॥

 

धुआँ देखि खरदूषन केरा। जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा॥
बोली बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी॥3॥

 

भावार्थ:- खर-दूषण का विध्वंस देखकर शूर्पणखा ने जाकर रावण को भड़काया। वह बड़ा क्रोध करके वचन बोली- तूने देश और खजाने की सुधि ही भुला दी॥3॥

 

करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती॥
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥4॥
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ॥
संग तें जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा॥5॥

 

भावार्थ:- शराब पी लेता है और दिन-रात पड़ा सोता रहता है। तुझे खबर नहीं है कि शत्रु तेरे सिर पर खड़ा है? नीति के बिना राज्य और धर्म के बिना धन प्राप्त करने से, भगवान को समर्पण किए बिना उत्तम कर्म करने से और विवेक उत्पन्न किए बिना विद्या पढ़ने से परिणाम में श्रम ही हाथ लगता है। विषयों के संग से संन्यासी, बुरी सलाह से राजा, मान से ज्ञान, मदिरा पान से लज्जा,॥4-5॥

 

प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहिं बेगि नीति अस सुनी॥6॥

 

भावार्थ:- नम्रता के बिना (नम्रता न होने से) प्रीति और मद (अहंकार) से गुणवान शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, इस प्रकार नीति मैंने सुनी है॥6॥

 

सोरठा :

रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।
अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन॥21 क॥

 

भावार्थ:- शत्रु, रोग, अग्नि, पाप, स्वामी और सर्प को छोटा करके नहीं समझना चाहिए। ऐसा कहकर शूर्पणखा अनेक प्रकार से विलाप करके रोने लगी॥21 (क)॥

 

दोहा :

सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ।
तोहि जिअत दसकंधर मोरि कि असि गति होइ॥21 ख॥

 

भावार्थ:- (रावण की) सभा के बीच वह व्याकुल होकर पड़ी हुई बहुत प्रकार से रो-रोकर कह रही है कि अरे दशग्रीव! तेरे जीते जी मेरी क्या ऐसी दशा होनी चाहिए?॥21 (ख)॥

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