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अरण्यकाण्ड दोहा 28


चौपाई :

खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा॥
आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता॥1॥

 

भावार्थ:- दुष्ट मारीच को मारकर श्री रघुवीर तुरंत लौट पड़े। हाथ में धनुष और कमर में तरकस शोभा दे रहा है। इधर जब सीताजी ने दुःखभरी वाणी (मरते समय मारीच की ‘हा लक्ष्मण’ की आवाज) सुनी तो वे बहुत ही भयभीत होकर लक्ष्मणजी से कहने लगीं॥1॥

 

जाहु बेगि संकट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता॥
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ संकट परइ कि सोई॥2॥

 

भावार्थ:- तुम शीघ्र जाओ, तुम्हारे भाई बड़े संकट में हैं। लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे माता! सुनो, जिनके भ्रृकुटि विलास (भौं के इशारे) मात्र से सारी सृष्टि का लय (प्रलय) हो जाता है, वे श्री रामजी क्या कभी स्वप्न में भी संकट में पड़ सकते हैं?॥2॥

 

मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला॥
बन दिसि देव सौंपि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू॥3॥

 

भावार्थ:- इस पर जब सीताजी कुछ मर्म वचन (हृदय में चुभने वाले वचन) कहने लगीं, तब भगवान की प्रेरणा से लक्ष्मणजी का मन भी चंचल हो उठा। वे श्री सीताजी को वन और दिशाओं के देवताओं को सौंपकर वहाँ चले, जहाँ रावण रूपी चन्द्रमा के लिए राहु रूप श्री रामजी थे॥3॥

 

सून बीच दसकंधर देखा। आवा निकट जती कें बेषा॥
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥4॥

 

भावार्थ:- रावण सूना मौका देखकर यति (संन्यासी) के वेष में श्री सीताजी के समीप आया, जिसके डर से देवता और दैत्य तक इतना डरते हैं कि रात को नींद नहीं आती और दिन में (भरपेट) अन्न नहीं खाते-॥4॥

 

सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥5॥

 

भावार्थ:- वही दस सिर वाला रावण कुत्ते की तरह इधर-उधर ताकता हुआ भड़िहाई * (चोरी) के लिए चला। (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! इस प्रकार कुमार्ग पर पैर रखते ही शरीर में तेज तथा बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता॥5॥
* सूना पाकर कुत्ता चुपके से बर्तन-भाँड़ों में मुँह डालकर कुछ चुरा ले जाता है। उसे ‘भड़िहाई’ कहते हैं।

 

नाना बिधि करि कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं॥6॥

 

भावार्थ:- रावण ने अनेकों प्रकार की सुहावनी कथाएँ रचकर सीताजी को राजनीति, भय और प्रेम दिखलाया। सीताजी ने कहा- हे यति गोसाईं! सुनो, तुमने तो दुष्ट की तरह वचन कहे॥6।

 

तब रावन निज रूप देखावा। भई सभय जब नाम सुनावा॥
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा॥7॥

भावार्थ:- तब रावण ने अपना असली रूप दिखलाया और जब नाम सुनाया तब तो सीताजी भयभीत हो गईं। उन्होंने गहरा धीरज धरकर कहा- ‘अरे दुष्ट! खड़ा तो रह, प्रभु आ गए’॥7॥

 

जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा। भएसि कालबस निसिचर नाहा॥
सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बंदि सुख माना॥8॥

 

भावार्थ:- जैसे सिंह की स्त्री को तुच्छ खरगोश चाहे, वैसे ही अरे राक्षसराज! तू (मेरी चाह करके) काल के वश हुआ है। ये वचन सुनते ही रावण को क्रोध आ गया, परन्तु मन में उसने सीताजी के चरणों की वंदना करके सुख माना॥8॥

 

दोहा :

क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ।
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ॥28॥

 

भावार्थ:- फिर क्रोध में भरकर रावण ने सीताजी को रथ पर बैठा लिया और वह बड़ी उतावली के साथ आकाश मार्ग से चला, किन्तु डर के मारे उससे रथ हाँका नहीं जाता था॥28॥

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