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लंका काण्ड दोहा 23


चौपाई :

तुम्हरे कटक माझ सुनु अंगद। मो सन भिरिहि कवन जोधा बद॥
तब प्रभु नारि बिरहँ बलहीना। अनुज तासु दुख दुखी मलीना॥1॥

 

भावार्थ:- अरे अंगद! सुन, तेरी सेना में बता, ऐसा कौन योद्धा है, जो मुझसे भिड़ सकेगा। तेरा मालिक तो स्त्री के वियोग में बलहीन हो रहा है और उसका छोटा भाई उसी के दुःख से दुःखी और उदास है॥1॥

 

तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ। अनुज हमार भीरु अति सोऊ॥
जामवंत मंत्री अति बूढ़ा। सो कि होइ अब समरारूढ़ा॥2॥

 

भावार्थ:- तुम और सुग्रीव, दोनों (नदी) तट के वृक्ष हो (रहा) मेरा छोटा भाई विभीषण, (सो) वह भी बड़ा डरपोक है। मंत्री जाम्बवान्‌ बहुत बूढ़ा है। वह अब लड़ाई में क्या चढ़ (उद्यत हो) सकता है?॥2॥

 

सिल्पि कर्म जानहिं नल नीला। है कपि एक महा बलसीला॥
आवा प्रथम नगरु जेहिं जारा। सुनत बचन कह बालिकुमारा॥3॥

 

भावार्थ:- नल-नील तो शिल्प-कर्म जानते हैं (वे लड़ना क्या जानें?)। हाँ, एक वानर जरूर महान्‌ बलवान्‌ है, जो पहले आया था और जिसने लंका जलाई थी। यह वचन सुनते ही बालि पुत्र अंगद ने कहा-॥3॥

 

सत्य बचन कहु निसिचर नाहा। साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा॥
रावण नगर अल्प कपि दहई। सुनि अस बचन सत्य को कहई॥4॥

 

भावार्थ:- हे राक्षसराज! सच्ची बात कहो! क्या उस वानर ने सचमुच तुम्हारा नगर जला दिया? रावण (जैसे जगद्विजयी योद्धा) का नगर एक छोटे से वानर ने जला दिया। ऐसे वचन सुनकर उन्हें सत्य कौन कहेगा?॥4॥

 

जो अति सुभट सराहेहु रावन। सो सुग्रीव केर लघु धावन॥
चलइ बहुत सो बीर न होई। पठवा खबरि लेन हम सोई॥5॥

 

भावार्थ:- हे रावण! जिसको तुमने बहुत बड़ा योद्धा कहकर सराहा है, वह तो सुग्रीव का एक छोटा सा दौड़कर चलने वाला हरकारा है। वह बहुत चलता है, वीर नहीं है। उसको तो हमने (केवल) खबर लेने के लिए भेजा था॥5॥

 

दोहा :

सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ।
फिरि न गयउ सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ॥23 क॥

 

भावार्थ:- क्या सचमुच ही उस वानर ने प्रभु की आज्ञा पाए बिना ही तुम्हारा नगर जला डाला? मालूम होता है, इसी डर से वह लौटकर सुग्रीव के पास नहीं गया और कहीं छिप रहा!॥23 (क)॥

 

सत्य कहहि दसकंठ सब मोहि न सुनि कछु कोह।
कोउ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह॥23 ख॥

 

भावार्थ:- हे रावण! तुम सब सत्य ही कहते हो, मुझे सुनकर कुछ भी क्रोध नहीं है। सचमुच हमारी सेना में कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे लड़ने में शोभा पाए॥23 (ख)॥

 

प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि।
जौं मृगपति बध मेडुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि॥23 ग॥

 

भावार्थ:- प्रीति और वैर बराबरी वाले से ही करना चाहिए, नीति ऐसी ही है। सिंह यदि मेंढकों को मारे, तो क्या उसे कोई भला कहेगा?॥23 (ग)॥

 

जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधें बड़ दोष।
तदपि कठिन दसकंठ सुनु छत्र जाति कर रोष॥23 घ॥

 

भावार्थ:- यद्यपि तुम्हें मारने में श्री रामजी की लघुता है और बड़ा दोष भी है तथापि हे रावण! सुनो, क्षत्रिय जाति का क्रोध बड़ा कठिन होता है॥23 (घ)॥

 

बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस।
प्रतिउत्तर सड़सिन्ह मनहुँ काढ़त भट दससीस॥23 ङ॥

 

भावार्थ:- वक्रोक्ति रूपी धनुष से वचन रूपी बाण मारकर अंगद ने शत्रु का हृदय जला दिया। वीर रावण उन बाणों को मानो प्रत्युत्तर रूपी सँड़सियों से निकाल रहा है॥ 23 (ङ)॥

 

हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड़ गुन एक।
जो प्रतिपालइ तासु हित करइ उपाय अनेक॥23 च॥

 

भावार्थ:- तब रावण हँसकर बोला- बंदर में यह एक बड़ा गुण है कि जो उसे पालता है, उसका वह अनेकों उपायों से भला करने की चेष्टा करता है॥23 (च)॥

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Comments

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Comments (1)

Shyam Dubey on 25-Jun-23 , 08:51:29
क्या सुंदर जवाब दिया है अंगद जी ने। जय श्री राम।।।।