Home / Articles / Ayodhyakand / अयोध्याकांड दोहा 23

अयोध्याकांड दोहा 23


चौपाई :

कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बुद्धि बखानी॥
तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कई भइसि अधारा॥1॥

 

भावार्थ:- कुबरी को रानी ने प्राणों के समान प्रिय समझकर बार-बार उसकी बड़ी बुद्धि का बखान किया और बोली- संसार में मेरा तेरे समान हितकारी और कोई नहीं है। तू मुझे बही जाती हुई के लिए सहारा हुई है॥1॥

 

जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली॥
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनी कैकेई॥2॥

 

भावार्थ:- यदि विधाता कल मेरा मनोरथ पूरा कर दें तो हे सखी! मैं तुझे आँखों की पुतली बना लूँ। इस प्रकार दासी को बहुत तरह से आदर देकर कैकेयी कोपभवन में चली गई॥।2॥

 

बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकई केरी॥
पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा॥3॥

 

भावार्थ:- विपत्ति (कलह) बीज है, दासी वर्षा ऋतु है, कैकेयी की कुबुद्धि (उस बीज के बोने के लिए) जमीन हो गई। उसमें कपट रूपी जल पाकर अंकुर फूट निकला। दोनों वरदान उस अंकुर के दो पत्ते हैं और अंत में इसके दुःख रूपी फल होगा॥3॥

 

कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई॥
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई॥4॥

 

भावार्थ:- कैकेयी कोप का सब साज सजकर (कोपभवन में) जा सोई। राज्य करती हुई वह अपनी दुष्ट बुद्धि से नष्ट हो गई। राजमहल और नगर में धूम-धाम मच रही है। इस कुचाल को कोई कुछ नहीं जानता॥4॥

 

दोहा :

प्रमुदित पुर नर नारि सब सजहिं सुमंगलचार।
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार॥23।

 

भावार्थ:- बड़े ही आनन्दित होकर नगर के सब स्त्री-पुरुष शुभ मंगलाचार के साथ सज रहे हैं। कोई भीतर जाता है, कोई बाहर निकलता है, राजद्वार में बड़ी भीड़ हो रही है॥23॥

This article is filed under: Ayodhyakand


Comments

Login or register to add Comments.