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बालकांड दोहा 286


चौपाई :

अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे॥
जूथ जूथ मिलि सुमुखि सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनीं॥1॥

 

भावार्थ:- खूब जोर से बाजे बजने लगे। सभी ने मनोहर मंगल साज साजे। सुंदर मुख और सुंदर नेत्रों वाली तथा कोयल के समान मधुर बोलने वाली स्त्रियाँ झुंड की झुंड मिलकर सुंदरगान करने लगीं॥1॥

 

सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई॥
बिगत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी॥2॥

 

भावार्थ:- जनकजी के सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता, मानो जन्म का दरिद्री धन का खजाना पा गया हो! सीताजी का भय जाता रहा, वे ऐसी सुखी हुईं जैसे चन्द्रमा के उदय होने से चकोर की कन्या सुखी होती है॥2॥

 

जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥
मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाईं॥3॥

 

भावार्थ:- जनकजी ने विश्वामित्रजी को प्रणाम किया (और कहा-) प्रभु ही की कृपा से श्री रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ा है। दोनों भाइयों ने मुझे कृतार्थ कर दिया। हे स्वामी! अब जो उचित हो सो कहिए॥3॥

 

कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहू॥4॥

 

भावार्थ:- मुनि ने कहा- हे चतुर नरेश ! सुनो यों तो विवाह धनुष के अधीन था, धनुष के टूटते ही विवाह हो गया। देवता, मनुष्य और नाग सब किसी को यह मालूम है॥4॥

 

दोहा :

तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।
बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥286॥

 

भावार्थ:- तथापि तुम जाकर अपने कुल का जैसा व्यवहार हो, ब्राह्मणों, कुल के बूढ़ों और गुरुओं से पूछकर और वेदों में वर्णित जैसा आचार हो वैसा करो॥286॥

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