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अयोध्याकांड दोहा 68

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चौपाई :अस कहि सीय बिकल भइ भारी। बचन बियोगु न सकी सँभारी॥देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें नहिं राखिहि प्राना॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर सीताजी बहुत ही व्याकुल हो गईं। वे वचन के वियोग को भी न सम्हाल सकीं। (अर्थात शरीर से वियोग की बात 

अयोध्याकांड दोहा 67

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चौपाई :मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी॥सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं॥1॥ भावार्थ:- क्षण-क्षण में आपके चरण कमलों को देखते रहने से मुझे मार्ग चलने में थकावट न होगी। हे प्रियतम! मैं सभी प्रक

अयोध्याकांड दोहा 66

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चौपाई :बनदेबीं बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम सारा॥कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई॥1॥ भावार्थ:- उदार हृदय के वनदेवी और वनदेवता ही सास-ससुर के समान मेरी सार-संभार करेंगे और कुशा और पत्तों की सुंदर साथरी (बिछौन

अयोध्याकांड दोहा 65

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चौपाई :मातु पिता भगिनी प्रिय भाई। प्रिय परिवारु सुहृदय समुदाई॥सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर सुसील सुखदाई॥1॥ भावार्थ:- माता, पिता, बहिन, प्यारा भाई, प्यारा परिवार, मित्रों का समुदाय, सास, ससुर, गुरु, स्वजन (बन्धु-बांधव), सहायक और 

अयोध्याकांड दोहा 64

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चौपाई :सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के। लोचन ललित भरे जल सिय के॥सीतल सिख दाहक भइ कैसें। चकइहि सरद चंद निसि जैसें॥1॥ भावार्थ:- प्रियतम के कोमल तथा मनोहर वचन सुनकर सीताजी के सुंदर नेत्र जल से भर गए। श्री रामजी की यह शीतल सीख उनको कैसी जला

अयोध्याकांड दोहा 63

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चौपाई :नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट बेष बिधि कोटिक करहीं॥लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी॥1॥ भावार्थ:- मनुष्यों को खाने वाले निशाचर (राक्षस) फिरते रहते हैं। वे करोड़ों प्रकार के कपट रूप धारण कर लेते हैं। पहाड़ का पानी 

अयोध्याकांड दोहा 62

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चौपाई :मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी॥दिवस जात नहिं लागिहि बारा। सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा॥1॥ भावार्थ:- हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो, मैं भी पिता के वचन को सत्य करके शीघ्र ही लौटूँगा। दिन जाते देर नहीं लगे

अयोध्याकांड दोहा 61

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चौपाई :मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन माहीं॥राजकुमारि सिखावनु सुनहू। आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू॥1॥ भावार्थ:- माता के सामने सीताजी से कुछ कहने में सकुचाते हैं। पर मन में यह समझकर कि यह समय ऐसा ही है, वे बोले- हे राजकुमार