Home / Articles / Page / 1

लंका काण्ड दोहा 110

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई॥आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी॥1॥ भावार्थ:-तब श्री रघुनाथजी की आज्ञा पाकर इंद्र का सारथी मातलि चरणों में सिर नवाकर (रथ लेकर) चला गया। तदनन्तर सदा के स्वार्थी देवता 

लंका काण्ड दोहा 109

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता॥लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी॥1॥ भावार्थ:- प्रभु के वचनों को सिर चढ़ाकर मन, वचन और कर्म से पवित्र श्री सीताजी बोलीं- हे लक्ष्मण! तुम मेरे धर्म के नेगी (धर

लंका काण्ड दोहा 108

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई॥1॥ भावार्थ:- हे तात! अब तुम वही उपाय करो, जिससे मैं इन नेत्रों से प्रभु के कोमल श्याम शरीर के दर्शन करूँ। तब श्री रामचंद्रजी

लंका काण्ड दोहा 107

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। लंका जाहु कहेउ भगवाना॥समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु॥1॥ भावार्थ:- फिर प्रभु ने हनुमान्‌जी को बुला लिया। भगवान्‌ ने कहा- तुम लंका जाओ। जानकी को सब समाचार सुनाओ और उसका कु

लंका काण्ड दोहा 106

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो। कृपासिंधु तब अनुज बोलायो॥तुम्ह कपीस अंगद नल नीला। जामवंत मारुति नयसीला॥1॥सब मिलि जाहु बिभीषन साथा। सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा॥पिता बचन मैं नगर न आवउँ। आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ॥2॥ भावार्थ:- सब क्र

लंका काण्ड दोहा 105

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :मंदोदरी बचन सुनि काना। सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना॥अज महेस नारद सनकादी। जे मुनिबर परमारथबादी॥1॥ भावार्थ:- मंदोदरी के वचन कानों में सुनकर देवता, मुनि और सिद्ध सभी ने सुख माना। ब्रह्मा, महादेव, नारद और सनकादि तथा और भी जो 

लंका काण्ड दोहा 104

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :पति सिर देखत मंदोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी॥जुबति बृंद रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आईं॥1॥ भावार्थ:- पति के सिर देखते ही मंदोदरी व्याकुल और मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। स्त्रियाँ रोती हुई दौड़ीं और उस (मंद

लंका काण्ड दोहा 103

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा॥लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा॥1॥ भावार्थ:- एक बाण ने नाभि के अमृत कुंड को सोख लिया। दूसरे तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओं में लगे। बाण सिरों और भुजाओं