बालकांड दोहा 137
चौपाई :
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥1॥भावार्थ:- तुम परम स्वतंत्र हो, सिर पर तो कोई है नहीं, इससे जब जो मन को भाता है, (स्वच्छन्दता से) वही करते हो। भले को बुरा और बुरे को भला कर देते हो। हृदय में हर्ष-विषाद कुछ भी नहीं लाते॥1॥
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥2॥भावार्थ:- सबको ठग-ठगकर परक गए हो और अत्यन्त निडर हो गए हो, इसी से (ठगने के काम में) मन में सदा उत्साह रहता है। शुभ-अशुभ कर्म तुम्हें बाधा नहीं देते। अब तक तुम को किसी ने ठीक नहीं किया था॥2॥
भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥3॥भावार्थ:- अबकी तुमने अच्छे घर बैना दिया है (मेरे जैसे जबर्दस्त आदमी से छेड़खानी की है।) अतः अपने किए का फल अवश्य पाओगे। जिस शरीर को धारण करके तुमने मुझे ठगा है, तुम भी वही शरीर धारण करो, यह मेरा शाप है॥3॥
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी। नारि बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥4॥भावार्थ:- तुमने हमारा रूप बंदर का सा बना दिया था, इससे बंदर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। (मैं जिस स्त्री को चाहता था, उससे मेरा वियोग कराकर) तुमने मेरा बड़ा अहित किया है, इससे तुम भी स्त्री के वियोग में दुःखी होंगे॥4॥
दोहा :
श्राप सीस धरि हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि॥
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥137॥भावार्थ:- शाप को सिर पर चढ़ाकर, हृदय में हर्षित होते हुए प्रभु ने नारदजी से बहुत विनती की और कृपानिधान भगवान ने अपनी माया की प्रबलता खींच ली॥137॥
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