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अयोध्या काण्ड शुरुआत - श्लोक

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श्रीगणेशायनमःश्रीजानकीवल्लभो विजयतेश्रीरामचरितमानसद्वितीय सोपानश्री अयोध्या काण्ड श्लोक :यस्यांके च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तकेभाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्व  ......

अयोध्याकांड दोहा 01

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चौपाई :जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥1॥ भावार्थ:- जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आए, तब से (अयोध्या में) नित्य नए मंगल हो रहे हैं और आनंद के बधावे बज रहे हैं। चौ  ......

अयोध्याकांड दोहा 02

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चौपाई :एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥1॥ भावार्थ:- एक समय रघुकुल के राजा दशरथजी अपने सारे समाज सहित राजसभा में विराजमान थे। महाराज समस्त पुण्यों की मूर्ति हैं, उन  ......

अयोध्याकांड दोहा 03

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चौपाई :कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक॥सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमार अरि मित्र उदासी॥1॥ भावार्थ:- राजा ने कहा- हे मुनिराज! (कृपया यह निवेदन) सुनिए। श्री रामचन्द्रजी अब सब प्रकार से सब योग्य हो गए हैं। सेवक, मंत्री,   ......

अयोध्याकांड दोहा 04

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चौपाई :सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी॥नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू॥1॥ भावार्थ:- अपने जी में गुरुजी को सब प्रकार से प्रसन्न जानकर, हर्षित होकर राजा कोमल वाणी से बोले- हे नाथ! श्री रा  ......

अयोध्याकांड दोहा 05

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चौपाई :मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए॥कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए॥1॥ भावार्थ:- राजा आनंदित होकर महल में आए और उन्होंने सेवकों को तथा मंत्री सुमंत्र को बुलवाया। उन लोगों ने ‘जय-जीव’ कहकर सिर नव  ......

अयोध्याकांड दोहा 06

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चौपाई :हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी॥औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना॥1॥ भावार्थ:- मुनिराज ने हर्षित होकर कोमल वाणी से कहा कि सम्पूर्ण श्रेष्ठ तीर्थों का जल ले आओ। फिर उन्होंने औषधि, मूल, फूल, फल और पत्र   ......

अयोध्याकांड दोहा 07

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चौपाई :जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा॥बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा॥1॥ भावार्थ:- मुनीश्वर ने जिसको जिस काम के लिए आज्ञा दी, उसने वह काम (इतनी शीघ्रता से कर डाला कि) मानो पहले से ही कर रखा   ......

अयोध्याकांड दोहा 08

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चौपाई :प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए॥प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं॥1॥ भावार्थ:- सबसे पहले (रनिवास में) जाकर जिन्होंने ये वचन (समाचार) सुनाए, उन्होंने बहुत से आभूषण और वस्त्र पाए। रानियों का   ......

अयोध्याकांड दोहा 09

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चौपाई :तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए॥गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा॥1॥ भावार्थ:- तब राजा ने वशिष्ठजी को बुलाया और शिक्षा (समयोचित उपदेश) देने के लिए श्री रामचन्द्रजी के महल में भेजा। गुरु का आगमन सुन  ......

अयोध्याकांड दोहा 10

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चौपाई :बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥1॥ भावार्थ:-  श्री रामचन्द्रजी के गुण, शील और स्वभाव का बखान कर, मुनिराज प्रेम से पुलकित होकर बोले- (हे रामचन्द्रजी!) राजा (  ......

अयोध्याकांड दोहा 11

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चौपाई :बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना॥भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं॥1॥ भावार्थ:- बहुत प्रकार के बाजे बज रहे हैं। नगर के अतिशय आनंद का वर्णन नहीं हो सकता। सब लोग भरतजी का आगमन मना रहे हैं   ......

अयोध्याकांड दोहा 12

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चौपाई :सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती॥देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी॥1॥ भावार्थ:- देवताओं की विनती सुनकर सरस्वतीजी खड़ी-खड़ी पछता रही हैं कि (हाय!) मैं कमलवन के लिए हेमंत ऋतु की रात हुई। उ  ......

अयोध्याकांड दोहा 13

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चौपाई :दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा॥पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू॥1॥ भावार्थ:- मंथरा ने देखा कि नगर सजाया हुआ है। सुंदर मंगलमय बधावे बज रहे हैं। उसने लोगों से पूछा कि कैसा उत्सव है? (उनसे) श्री रा  ......

अयोध्याकांड दोहा 14

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चौपाई :कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई॥रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू॥1॥ भावार्थ:- (वह कहने लगी-) हे माई! हमें कोई क्यों सीख देगा और मैं किसका बल पाकर गाल करूँगी (बढ़-बढ़कर बोलूँगी)। रामचन्द्र को छोड़क  ......

अयोध्याकांड दोहा 15

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चौपाई :प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही॥सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई॥1॥ भावार्थ:- (और फिर बोलीं-) हे प्रिय वचन कहने वाली मंथरा! मैंने तुझको यह सीख दी है (शिक्षा के लिए इतनी बात कही है)। मु  ......

अयोध्याकांड दोहा 16

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चौपाई :एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी॥फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा॥1॥ भावार्थ:- (मंथरा ने कहा-) सारी आशाएँ तो एक ही बार कहने में पूरी हो गईं। अब तो दूसरी जीभ लगाकर कुछ कहूँगी। मेरा अभागा कपाल तो फोड़न  ......

अयोध्याकांड दोहा 17

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चौपाई :सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही॥तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी॥1॥ भावार्थ:- बार-बार रानी उससे आदर के साथ पूछ रही है, मानो भीलनी के गान से हिरनी मोहित हो गई हो। जैसी भावी (होनहार) है, वैसी ही   ......

अयोध्याकांड दोहा 18

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चौपाई :चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी॥पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानब रउरें॥1॥ भावार्थ:- राम की माता (कौसल्या) बड़ी चतुर और गंभीर है (उसकी थाह कोई नहीं पाता)। उसने मौका पाकर अपनी बात बना ली। राजा ने जो भरत को न  ......

अयोध्याकांड दोहा 19

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चौपाई :भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई॥का पूँछहु तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना॥1॥ भावार्थ:- होनहार वश कैकेयी के मन में विश्वास हो गया। रानी फिर सौगंध दिलाकर पूछने लगी। (मंथरा बोली-) क्या पूछती हो? अर  ......

अयोध्याकांड दोहा 20

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चौपाई :कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी॥तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी॥1॥ भावार्थ:- कैकेयी मन्थरा की कड़वी वाणी सुनते ही डरकर सूख गई, कुछ बोल नहीं सकती। शरीर में पसीना हो आया और वह केले की तरह काँप  ......

अयोध्याकांड दोहा 21

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चौपाई :नैहर जनमु भरब बरु जाई। जिअत न करबि सवति सेवकाई॥अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही॥1॥ भावार्थ:- मैं भले ही नैहर जाकर वहीं जीवन बिता दूँगी, पर जीते जी सौत की चाकरी नहीं करूँगी। दैव जिसको शत्रु के वश में रखकर जिलाता   ......

अयोध्याकांड दोहा 22

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चौपाई :कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई॥लखइ ना रानि निकट दुखु कैसें। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें॥1॥ भावार्थ:- कुबरी ने कैकेयी को (सब तरह से) कबूल करवाकर (अर्थात बलि पशु बनाकर) कपट रूप छुरी को अपने (कठोर) हृदय रूपी पत्थर पर ट  ......

अयोध्याकांड दोहा 23

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चौपाई :कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बुद्धि बखानी॥तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कई भइसि अधारा॥1॥ भावार्थ:- कुबरी को रानी ने प्राणों के समान प्रिय समझकर बार-बार उसकी बड़ी बुद्धि का बखान किया और बोली- संसार में मेरा तेरे   ......

अयोध्याकांड दोहा 24

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चौपाई :बाल सखा सुनि हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं॥प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी के बाल सखा राजतिलक का समाचार सुनकर हृदय में हर्षित होते हैं। वे दस-पाँच मिलकर श  ......

अयोध्याकांड दोहा 25

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चौपाई :कोपभवन सुनि सकुचेउ राऊ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ॥सुरपति बसइ बाहँबल जाकें। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥1॥ भावार्थ:- कोप भवन का नाम सुनकर राजा सहम गए। डर के मारे उनका पाँव आगे को नहीं पड़ता। स्वयं देवराज इन्द्र जिनकी भुजाओं के बल प  ......

अयोध्याकांड दोहा 26

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चौपाई :अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा॥कहु केहि रंकहि करौं नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥1॥ भावार्थ:- हे प्रिये! किसने तेरा अनिष्ट किया? किसके दो सिर हैं? यमराज किसको लेना (अपने लोक को ले जाना) चा  ......

अयोध्याकांड दोहा 27

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चौपाई :पुनि कह राउ सुहृद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥1॥ भावार्थ:- अपने जी में कैकेयी को सुहृद् जानकर राजा दशरथजी प्रेम से पुलकित होकर कोमल और सुंदर वाणी से फिर बोले- हे भामिन  ......

अयोध्याकांड दोहा 28

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चौपाई :जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥थाती राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥1॥ भावार्थ:- राजा ने हँसकर कहा कि अब मैं तुम्हारा मर्म (मतलब) समझा। मान करना तुम्हें परम प्रिय है। तुमने उन वरों को थाती   ......

अयोध्याकांड दोहा 29

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चौपाई :सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥1॥ भावार्थ:- (वह बोली-) हे प्राण प्यारे! सुनिए, मेरे मन को भाने वाला एक वर तो दीजिए, भरत को राजतिलक और हे नाथ! दूसरा वर भी मैं हाथ जो  ......

अयोध्याकांड दोहा 30

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चौपाई :एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥भरतु कि राउर पूत न होंही। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार राजा मन ही मन झींख रहे हैं। राजा का ऐसा बुरा हाल देखकर दुर्बुद्धि कैकेयी मन में बुरी तरह से क्  ......

अयोध्याकांड दोहा 31

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चौपाई :आगें दीखि जरत सिर भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई॥1॥ भावार्थ:- प्रचंड क्रोध से जलती हुई कैकेयी सामने इस प्रकार दिखाई पड़ी, मानो क्रोध रूपी तलवार नंगी (म्यान से बाहर) खड़ी हो। कुब  ......

अयोध्याकांड दोहा 32

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चौपाई :राम सपथ सत कहउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥1॥ भावार्थ:- राम की सौ बार सौगंध खाकर मैं स्वभाव से ही कहता हूँ कि राम की माता (कौसल्या) ने (इस विषय में) मुझसे कभी कुछ नह  ......

अयोध्याकांड दोहा 33

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चौपाई :जिऐ मीन बरु बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥1॥ भावार्थ:- मछली चाहे बिना पानी के जीती रहे और साँप भी चाहे बिना मणि के दीन-दुःखी होकर जीता रहे, परन्तु मैं स्वभाव से ह  ......

अयोध्याकांड दोहा 34

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चौपाई :अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी॥पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर कुटिल कैकेयी उठ खड़ी हुई, मानो क्रोध की नदी उमड़ी हो। वह नदी पाप रूपी पहाड़ से प्रकट हुई है और क्रोध रूपी   ......

अयोध्याकांड दोहा 35

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चौपाई :ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥1॥ भावार्थ:- राजा व्याकुल हो गए, उनका सारा शरीर शिथिल पड़ गया, मानो हथिनी ने कल्पवृक्ष को उखाड़ फेंका हो। कंठ सूख गया, मुख  ......

अयोध्याकांड दोहा 36

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चौपाई :चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें॥सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥ भावार्थ:- भरत तो भूलकर भी राजपद नहीं चाहते। होनहारवश तेरे ही जी में कुमति आ बसी। यह सब मेरे पापों का परिणाम है, जिससे कु  ......

अयोध्याकांड दोहा 37

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चौपाई :राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू॥हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई॥1॥ भावार्थ:- राजा ‘राम-राम’ रट रहे हैं और ऐसे व्याकुल हैं, जैसे कोई पक्षी पंख के बिना बेहाल हो। वे अपने हृदय में मनाते हैं कि सबे  ......

अयोध्याकांड दोहा 38

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चौपाई :पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा॥जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥1॥ भावार्थ:- राजा नित्य ही रात के पिछले पहर जाग जाया करते हैं, किन्तु आज हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा है। हे सुमंत्र! जाओ, जाकर राजा  ......

अयोध्याकांड दोहा 39

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चौपाई :आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥चलेउ सुमंत्रु राय रुख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥1॥ भावार्थ:- तुम जल्दी राम को बुला लाओ। तब आकर समाचार पूछना। राजा का रुख जानकर सुमंत्रजी चले, समझ गए कि रानी ने कुछ कुचाल क  ......

अयोध्याकांड दोहा 40

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चौपाई :सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू॥सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरीं गनि लेई॥1॥ भावार्थ:- राजा के होठ सूख रहे हैं और सारा शरीर जल रहा है, मानो मणि के बिना साँप दुःखी हो रहा हो। पास ही क्रोध से भरी कैकेयी को   ......

अयोध्याकांड दोहा 41

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चौपाई :निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी॥जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥1॥ भावार्थ:- कैकेयी बेधड़क बैठी ऐसी कड़वी वाणी कह रही है, जिसे सुनकर स्वयं कठोरता भी अत्यन्त व्याकुल हो उठी। जीभ धनुष है, वचन ब  ......

अयोध्याकांड दोहा 42

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चौपाई :भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू॥जौं न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥1॥ भावार्थ:- और प्राण प्रिय भरत राज्य पावेंगे। (इन सभी बातों को देखकर यह प्रतीत होता है कि) आज विधाता सब प्रकार से   ......

अयोध्याकांड दोहा 43

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चौपाई :रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मैं कछु जाना॥1॥ भावार्थ:- रानी कैकेयी श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर हर्षित हो गई और कपटपूर्ण स्नेह दिखाकर बोली- तुम्हारी शपथ और भरत की सौगंध है, म  ......

अयोध्याकांड दोहा 44

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चौपाई :अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे॥सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे॥1॥ भावार्थ:- जब राजा ने सुना कि श्री रामचन्द्र पधारे हैं तो उन्होंने धीरज धरके नेत्र खोले। मंत्री ने संभालकर राजा को बैठाय  ......

अयोध्याकांड दोहा 45

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चौपाई :अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौं बरु सुरपुरु जाऊ॥सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही॥1॥ भावार्थ:- जगत में चाहे अपयश हो और सुयश नष्ट हो जाए। चाहे (नया पाप होने से) मैं नरक में गिरूँ, अथवा स्वर्ग चला जाए (पूर्व पुण्य  ......

अयोध्याकांड दोहा 46

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चौपाई :धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥1॥ भावार्थ:- (उन्होंने फिर कहा-) इस पृथ्वीतल पर उसका जन्म धन्य है, जिसके चरित्र सुनकर पिता को परम आनंद हो, जिसको माता-  ......

अयोध्याकांड दोहा 47

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चौपाई :मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकइहि गारी॥एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥1॥ भावार्थ:- सब मेल मिल गए थे (सब संयोग ठीक हो गए थे), इतने में ही विधाता ने बात बिगाड़ दी! जहाँ-तहाँ लोग कैकेयी को गाली दे रह  ......

अयोध्याकांड दोहा 48

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चौपाई :का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा॥एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा॥1॥ भावार्थ:- विधाता ने क्या सुनाकर क्या सुना दिया और क्या दिखाकर अब वह क्या दिखाना चाहता है! एक कहते हैं कि राजा ने अच  ......

अयोध्याकांड दोहा 49

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चौपाई :एक बिधातहि दूषनु देहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं॥खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू॥1॥ भावार्थ:- कोई एक विधाता को दोष देते हैं, जिसने अमृत दिखाकर विष दे दिया। नगर भर में खलबली मच गई, सब किसी को सोच हो गया। हृद  ......

अयोध्याकांड दोहा 50

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चौपाई :अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू॥भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥1॥ भावार्थ:- हृदय में ऐसा विचार कर क्रोध छोड़ दो, शोक और कलंक की कोठी मत बनो। भरत को अवश्य युवराजपद दो, पर श्री रामचंद्रजी का वन में   ......

अयोध्याकांड दोहा 51

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चौपाई :उतरु न देइ दुसह रिस रूखी। मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी॥ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी। चलीं कहत मतिमंद अभागी॥1॥ भावार्थ:- कैकेयी कोई उत्तर नहीं देती, वह दुःसह क्रोध के मारे रूखी (बेमुरव्वत) हो रही है। ऐसे देखती है मानो भूख  ......

अयोध्याकांड दोहा 52

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चौपाई :रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा॥दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे॥1॥ भावार्थ:- रघुकुल तिलक श्री रामचंद्रजी ने दोनों हाथ जोड़कर आनंद के साथ माता के चरणों में सिर नवाया। माता ने आशीर्वाद द  ......

अयोध्याकांड दोहा 53

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चौपाई :तात जाउँ बलि बेगि नाहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू॥पितु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ॥1॥ भावार्थ:- हे तात! मैं बलैया लेती हूँ, तुम जल्दी नहा लो और जो मन भावे, कुछ मिठाई खा लो। भैया! तब पिता के पास जाना। बहुत देर हो गई ह  ......

अयोध्याकांड दोहा 54

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चौपाई :बचन बिनीत मधुर रघुबर के। सर सम लगे मातु उर करके॥सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी। जिमि जवास परें पावस पानी॥1॥ भावार्थ:- रघुकुल में श्रेष्ठ श्री रामजी के ये बहुत ही नम्र और मीठे वचन माता के हृदय में बाण के समान लगे और कसकने लगे। उस श  ......

अयोध्याकांड दोहा 55

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चौपाई :राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू॥लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू॥1॥ भावार्थ:- न रख ही सकती हैं, न यह कह सकती हैं कि वन चले जाओ। दोनों ही प्रकार से हृदय में बड़ा भारी संताप हो रहा है। (मन में सो  ......

अयोध्याकांड दोहा 56

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चौपाई :जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता॥जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना॥1॥ भावार्थ:- हे तात! यदि केवल पिताजी की ही आज्ञा, हो तो माता को (पिता से) बड़ी जानकर वन को मत जाओ, किन्तु यदि पिता-माता दोनों ने वन  ......

अयोध्याकांड दोहा 57

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चौपाई :देव पितर सब तुम्हहि गोसाईं। राखहुँ पलक नयन की नाईं॥अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना॥1॥ भावार्थ:- हे गोसाईं! सब देव और पितर तुम्हारी वैसी ही रक्षा करें, जैसे पलकें आँखों की रक्षा करती हैं। तुम्हारे वनवा  ......

अयोध्याकांड दोहा 58

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चौपाई :दीन्हि असीस सासु मृदु बानी। अति सुकुमारि देखि अकुलानी॥बैठि नमित मुख सोचति सीता। रूप रासि पति प्रेम पुनीता॥1॥ भावार्थ:- सास ने कोमल वाणी से आशीर्वाद दिया। वे सीताजी को अत्यन्त सुकुमारी देखकर व्याकुल हो उठीं। रूप की राशि औ  ......

अयोध्याकांड दोहा 59

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चौपाई:मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई॥नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई॥1॥ भावार्थ:- फिर मैंने रूप की राशि, सुंदर गुण और शीलवाली प्यारी पुत्रवधू पाई है। मैंने इन (जानकी) को आँखों की पुतली बन  ......

अयोध्याकांड दोहा 60

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चौपाई :बन हित कोल किरात किसोरी। रचीं बिरंचि बिषय सुख भोरी॥पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ॥1॥ भावार्थ:- वन के लिए तो ब्रह्माजी ने विषय सुख को न जानने वाली कोल और भीलों की लड़कियों को रचा है, जिनका पत्थर के कीड़े जै  ......

अयोध्याकांड दोहा 61

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चौपाई :मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन माहीं॥राजकुमारि सिखावनु सुनहू। आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू॥1॥ भावार्थ:- माता के सामने सीताजी से कुछ कहने में सकुचाते हैं। पर मन में यह समझकर कि यह समय ऐसा ही है, वे बोले- हे राजकुमार  ......

अयोध्याकांड दोहा 62

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चौपाई :मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी॥दिवस जात नहिं लागिहि बारा। सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा॥1॥ भावार्थ:- हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो, मैं भी पिता के वचन को सत्य करके शीघ्र ही लौटूँगा। दिन जाते देर नहीं लगे  ......

अयोध्याकांड दोहा 63

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चौपाई :नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट बेष बिधि कोटिक करहीं॥लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी॥1॥ भावार्थ:- मनुष्यों को खाने वाले निशाचर (राक्षस) फिरते रहते हैं। वे करोड़ों प्रकार के कपट रूप धारण कर लेते हैं। पहाड़ का पानी   ......

अयोध्याकांड दोहा 64

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चौपाई :सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के। लोचन ललित भरे जल सिय के॥सीतल सिख दाहक भइ कैसें। चकइहि सरद चंद निसि जैसें॥1॥ भावार्थ:- प्रियतम के कोमल तथा मनोहर वचन सुनकर सीताजी के सुंदर नेत्र जल से भर गए। श्री रामजी की यह शीतल सीख उनको कैसी जला  ......

अयोध्याकांड दोहा 65

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चौपाई :मातु पिता भगिनी प्रिय भाई। प्रिय परिवारु सुहृदय समुदाई॥सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर सुसील सुखदाई॥1॥ भावार्थ:- माता, पिता, बहिन, प्यारा भाई, प्यारा परिवार, मित्रों का समुदाय, सास, ससुर, गुरु, स्वजन (बन्धु-बांधव), सहायक और   ......

अयोध्याकांड दोहा 66

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चौपाई :बनदेबीं बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम सारा॥कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई॥1॥ भावार्थ:- उदार हृदय के वनदेवी और वनदेवता ही सास-ससुर के समान मेरी सार-संभार करेंगे और कुशा और पत्तों की सुंदर साथरी (बिछौन  ......

अयोध्याकांड दोहा 67

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चौपाई :मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी॥सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं॥1॥ भावार्थ:- क्षण-क्षण में आपके चरण कमलों को देखते रहने से मुझे मार्ग चलने में थकावट न होगी। हे प्रियतम! मैं सभी प्रक  ......

अयोध्याकांड दोहा 68

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चौपाई :अस कहि सीय बिकल भइ भारी। बचन बियोगु न सकी सँभारी॥देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें नहिं राखिहि प्राना॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर सीताजी बहुत ही व्याकुल हो गईं। वे वचन के वियोग को भी न सम्हाल सकीं। (अर्थात शरीर से वियोग की बात   ......

अयोध्याकांड दोहा 69

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चौपाई :लखि सनेह कातरि महतारी। बचनु न आव बिकल भइ भारी॥राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना। समउ सनेहु न जाइ बखाना॥1॥ भावार्थ:- यह देखकर कि माता स्नेह के मारे अधीर हो गई हैं और इतनी अधिक व्याकुल हैं कि मुँह से वचन नहीं निकलता। श्री रामचन्द्र  ......

अयोध्याकांड दोहा 70

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चौपाई :समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए॥कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा॥1॥ भावार्थ:- जब लक्ष्मणजी ने समाचार पाए, तब वे व्याकुल होकर उदास मुँह उठ दौड़े। शरीर काँप रहा है, रोमांच हो रहा है, नेत्र आँसुओं से भ  ......

अयोध्याकांड दोहा 71

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चौपाई :अस जियँ जानि सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद सेवकाई॥भवन भरतु रिपुसूदनु नाहीं। राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीं॥1॥ भावार्थ:- हे भाई! हृदय में ऐसा जानकर मेरी सीख सुनो और माता-पिता के चरणों की सेवा करो। भरत और शत्रुघ्न घर पर नहीं है  ......

अयोध्याकांड दोहा 72

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चौपाई :दीन्हि मोहि सिख नीकि गोसाईं। लागि अगम अपनी कदराईं॥नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुँ ते अधिकारी॥1॥ भावार्थ:- हे स्वामी! आपने मुझे सीख तो बड़ी अच्छी दी है, पर मुझे अपनी कायरता से वह मेरे लिए अगम (पहुँच के बाहर) लगी। शास्त्र औ  ......

अयोध्याकांड दोहा 73

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चौपाई :मागहु बिदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन भाई॥मुदित भए सुनि रघुबर बानी। भयउ लाभ बड़ गइ बड़ि हानी॥1॥ भावार्थ:- (और कहा-) हे भाई! जाकर माता से विदा माँग आओ और जल्दी वन को चलो! रघुकुल में श्रेष्ठ श्री रामजी की वाणी सुनकर लक्ष्मणजी आन  ......

अयोध्याकांड दोहा 74

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चौपाई :धीरजु धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुहृद बोली मृदु बानी॥तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥1॥ भावार्थ:- परन्तु कुसमय जानकर धैर्य धारण किया और स्वभाव से ही हित चाहने वाली सुमित्राजी कोमल वाणी से बोलीं- हे तात! जान  ......

अयोध्याकांड दोहा 75

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चौपाई :पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी॥1॥ भावार्थ:- संसार में वही युवती स्त्री पुत्रवती है, जिसका पुत्र श्री रघुनाथजी का भक्त हो। नहीं तो जो राम से विमुख पुत्र  ......

अयोध्याकांड दोहा 76

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चौपाई :गए लखनु जहँ जानकिनाथू। भे मन मुदित पाइ प्रिय साथू॥बंदि राम सिय चरन सुहाए। चले संग नृपमंदिर आए॥1॥ भावार्थ:- लक्ष्मणजी वहाँ गए जहाँ श्री जानकीनाथजी थे और प्रिय का साथ पाकर मन में बड़े ही प्रसन्न हुए। श्री रामजी और सीताजी के   ......

अयोध्याकांड दोहा 77

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चौपाई :सकइ न बोलि बिकल नरनाहू। सोक जनित उर दारुन दाहू॥नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा॥1॥ भावार्थ:- राजा व्याकुल हैं, बोल नहीं सकते। हृदय में शोक से उत्पन्न हुआ भयानक सन्ताप है। तब रघुकुल के वीर श्री रामचन्द्रजी न  ......

अयोध्याकांड दोहा 78

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चौपाई :रायँ राम राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छलु त्यागी॥लखी राम रुख रहत न जाने। धरम धुरंधर धीर सयाने॥1॥ भावार्थ:- राजा ने इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी को रखने के लिए छल छोड़कर बहुत से उपाय किए, पर जब उन्होंने धर्मधुरंधर, धीर और बुद्ध  ......

अयोध्याकांड दोहा 79

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चौपाई :सीय सकुच बस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई॥मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु बानी॥1॥ भावार्थ:- सीताजी संकोचवश उत्तर नहीं देतीं। इन बातों को सुनकर कैकेयी तमककर उठी। उसने मुनियों के वस्त्र, आभूषण (माला, मेखला आदि)   ......

अयोध्याकांड दोहा 80

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चौपाई :निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव दाढ़े॥कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए॥1॥ भावार्थ:- राजमहल से निकलकर श्री रामचन्द्रजी वशिष्ठजी के दरवाजे पर जा खड़े हुए और देखा कि सब लोग विरह की अग्नि में जल   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 81

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चौपाई :एहि बिधि राम सबहि समुझावा। गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा॥गनपति गौरि गिरीसु मनाई। चले असीस पाइ रघुराई॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार श्री रामजी ने सबको समझाया और हर्षित होकर गुरुजी के चरणकमलों में सिर नवाया। फिर गणेशजी, पार्वतीजी और   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 82

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चौपाई :जौं नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई॥तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी॥1॥॥ भावार्थ:- यदि धैर्यवान दोनों भाई न लौटें- क्योंकि श्री रघुनाथजी प्रण के सच्चे और दृढ़ता से नियम का पालन करन  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 83

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चौपाई :तब सुमंत्र नृप बचन सुनाए। करि बिनती रथ रामु चढ़ाए॥चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई॥1॥ भावार्थ:- तब (वहाँ पहुँचकर) सुमंत्र ने राजा के वचन श्री रामचन्द्रजी को सुनाए और विनती करके उनको रथ पर चढ़ाया। सीताजी सह  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 84

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चौपाई :राम बियोग बिकल सब ठाढ़े। जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढ़े॥नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर नारी॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी के वियोग में सभी व्याकुल हुए जहाँ-तहाँ (ऐसे चुपचाप स्थिर होकर) खड़े हैं, मानो तसवीरों में लिखकर  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 85

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चौपाई :रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी। सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी॥करुनामय रघुनाथ गोसाँई। बेगि पाइअहिं पीर पराई॥1॥ भावार्थ:- प्रजा को प्रेमवश देखकर श्री रघुनाथजी के दयालु हृदय में बड़ा दुःख हुआ। प्रभु श्री रघुनाथजी करुणामय हैं। परा  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 86

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चौपाई :जागे सकल लोग भएँ भोरू। गे रघुनाथ भयउ अति सोरू॥रथ कर खोज कतहुँ नहिं पावहिं। राम राम कहि चहुँ दिसि धावहिं॥1॥ भावार्थ:- सबेरा होते ही सब लोग जागे, तो बड़ा शोर मचा कि रघुनाथजी चले गए। कहीं रथ का खोज नहीं पाते, सब ‘हा राम! हा राम!’ प  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 87

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चौपाई :सीता सचिव सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुँचे जाई॥उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी॥1॥ भावार्थ:- सीताजी और मंत्री सहित दोनों भाई श्रृंगवेरपुर जा पहुँचे। वहाँ गंगाजी को देखकर श्री रामजी रथ से उतर पड़े और बड़े हर्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 88

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चौपाई :यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई॥लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हियँ हरषु अपारा॥1॥ भावार्थ:- जब निषादराज गुह ने यह खबर पाई, तब आनंदित होकर उसने अपने प्रियजनों और भाई-बंधुओं को बुला लिया और भेंट देने  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 89

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चौपाई :राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी॥ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को देखकर गाँव के स्त्री-पुरुष प्रेम के साथ चर्चा करते हैं। (कोई कहती है  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 90

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चौपाई :उठे लखनु प्रभु सोवत जानी। कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी॥कछुक दूरि सजि बान सरासन। जागन लगे बैठि बीरासन॥1॥ भावार्थ:- फिर प्रभु श्री रामचन्द्रजी को सोते जानकर लक्ष्मणजी उठे और कोमल वाणी से मंत्री सुमंत्रजी को सोने के लिए कहकर व  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 91

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चौपाई :बिबिध बसन उपधान तुराईं। छीर फेन मृदु बिसद सुहाईं॥तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं। निज छबि रति मनोज मदु हरहीं॥1॥ भावार्थ:- जहाँ (ओढ़ने-बिछाने के) अनेकों वस्त्र, तकिए और गद्दे हैं, जो दूध के फेन के समान कोमल, निर्मल (उज्ज्वल) और सुंद  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 92

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चौपाई :भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी। कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी॥भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी॥1॥ भावार्थ:- वह सूर्यकुल रूपी वृक्ष के लिए कुल्हाड़ी हो गई। उस कुबुद्धि ने सम्पूर्ण विश्व को दुःखी कर दिया। श्री राम-सी  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 93

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चौपाई :अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू॥मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥1॥ भावार्थ:- ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिए और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए। सब लोग मोह रूपी रात्रि में सोने वाले ह  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 94

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चौपाई :सखा समुझि अस परिहरि मोहू। सिय रघुबीर चरन रत होहू॥कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मंगल सुखदारा॥1॥ भावार्थ:- हे सखा! ऐसा समझ, मोह को त्यागकर श्री सीतारामजी के चरणों में प्रेम करो। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी के गुण कहते-कहते   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 95

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चौपाई :तात कृपा करि कीजिअ सोई। जातें अवध अनाथ न होई॥मंत्रिहि राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा॥1॥ भावार्थ:- (और कहा -) हे तात ! कृपा करके वही कीजिए जिससे अयोध्या अनाथ न हो श्री रामजी ने मंत्री को उठाकर धैर्य बँधाते हुए समझ  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 96

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चौपाई :तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें। बिनती करउँ तात कर जोरें॥सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारें॥1॥ भावार्थ:- आप भी पिता के समान ही मेरे बड़े हितैषी हैं। हे तात! मैं हाथ जोड़कर आप से विनती करता हूँ कि आपका भी   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 97

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चौपाई :बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती। आरति प्रीति न सो कहि जाती॥पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना॥1॥ भावार्थ:- राजा ने जिस तरह (जिस दीनता और प्रेम से) विनती की है, वह दीनता और प्रेम कहा नहीं जा सकता। कृपानिधान श  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 98

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चौपाई :पितु बैभव बिलास मैं डीठा। नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा॥सुखनिधान अस पितु गृह मोरें। पिय बिहीन मन भाव न भोरें॥1॥ भावार्थ:- मैंने पिताजी के ऐश्वर्य की छटा देखी है, जिनके चरण रखने की चौकी से सर्वशिरोमणि राजाओं के मुकुट मिलते है  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 99

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चौपाई :प्राननाथ प्रिय देवर साथा। बीर धुरीन धरें धनु भाथा॥नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें। मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें॥1॥ भावार्थ:- वीरों में अग्रगण्य तथा धनुष और (बाणों से भरे) तरकश धारण किए मेरे प्राणनाथ और प्यारे देवर साथ हैं  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 100

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चौपाई :जासु बियोग बिकल पसु ऐसें। प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें॥बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥1॥ भावार्थ:- जिनके वियोग में पशु इस प्रकार व्याकुल हैं, उनके वियोग में प्रजा, माता और पिता कैसे जीते रहेंगे? श्री रामचन्द  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 101

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चौपाई :कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥बेगि आनु जलपाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥1॥ भावार्थ:- कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी केवट से मुस्कुराकर बोले भाई! तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाए। जल्दी पानी ला और पैर  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 102

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चौपाई :उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामुगुह लखन समेता॥केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥1॥ भावार्थ:- निषादराज और लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी (नाव से) उतरकर गंगाजी की रेत (बालू) में खड़े हो  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 103

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चौपाई :तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा। पूजि पारथिव नायउ माथा॥सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी॥1॥ भावार्थ:- फिर रघुकुल के स्वामी श्री रामचन्द्रजी ने स्नान करके पार्थिव पूजा की और शिवजी को सिर नवाया। सीताजी ने हाथ जो  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 104

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चौपाई :गंग बचन सुनि मंगल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकूला॥तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू॥1॥ भावार्थ:- मंगल के मूल गंगाजी के वचन सुनकर और देवनदी को अनुकूल देखकर सीताजी आनंदित हुईं। तब प्रभु श्री रामचन्द्रजी न  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 105

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चौपाई :तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू। लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू॥प्रात प्रातकृत करि रघुराई। तीरथराजु दीख प्रभु जाई॥1॥ भावार्थ:- उस दिन पेड़ के नीचे निवास हुआ। लक्ष्मणजी और सखा गुह ने (विश्राम की) सब सुव्यवस्था कर दी। प्रभु श्री रामचन्द्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 106

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चौपाई :को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥1॥ भावार्थ:- पापों के समूह रूपी हाथी के मारने के लिए सिंह रूप प्रयागराज का प्रभाव (महत्व-माहात्म्य) कौन कह सकता है। ऐसे सुहा  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 107

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चौपाई :कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे। पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे॥कंद मूल फल अंकुर नीके। दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के॥1॥ भावार्थ:- कुशल पूछकर मुनिराज ने उनको आसन दिए और प्रेम सहित पूजन करके उन्हें संतुष्ट कर दिया। फिर मानो अमृत के ही बने  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 108

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चौपाई :सुनि मुनि बचन रामु सकुचाने। भाव भगति आनंद अघाने॥तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा। कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा॥1॥ भावार्थ:- मुनि के वचन सुनकर, उनकी भाव-भक्ति के कारण आनंद से तृप्त हुए भगवान श्री रामचन्द्रजी (लीला की दृष्टि से) सकु  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 109

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चौपाई :राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं॥मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं। सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं॥1॥ भावार्थ:- (चलते समय) बड़े प्रेम से श्री रामजी ने मुनि से कहा- हे नाथ! बताइए हम किस मार्ग से जाएँ। मुनि मन में हँसक  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 110

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चौपाई :सुनत तीरबासी नर नारी। धाए निज निज काज बिसारी॥लखन राम सिय सुंदरताई। देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई॥1॥ भावार्थ:- यमुनाजी के किनारे पर रहने वाले स्त्री-पुरुष (यह सुनकर कि निषाद के साथ दो परम सुंदर सुकुमार नवयुवक और एक परम सुंदरी स  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 111

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चौपाई :राम सप्रेम पुलकि उर लावा। परम रंक जनु पारसु पावा॥मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ। मिलत धरें तन कह सबु कोऊ॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी ने प्रेमपूर्वक पुलकित होकर उसको हृदय से लगा लिया। (उसे इतना आनंद हुआ) मानो कोई महादरिद्री मनुष्य पा  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 112

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चौपाई :पुनि सियँ राम लखन कर जोरी। जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी॥चले ससीय मुदित दोउ भाई। रबितनुजा कइ करत बड़ाई॥1॥ भावार्थ:- फिर सीताजी, श्री रामजी और लक्ष्मणजी ने हाथ जोड़कर यमुनाजी को पुनः प्रणाम किया और सूर्यकन्या यमुनाजी की बड़ाई क  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 113

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चौपाई :जे पुर गाँव बसहिं मग माहीं। तिन्हहि नाग सुर नगर सिहाहीं॥केहि सुकृतीं केहि घरीं बसाए। धन्य पुन्यमय परम सुहाए॥1॥ भावार्थ:- जो गाँव और पुरवे रास्ते में बसे हैं, नागों और देवताओं के नगर उनको देखकर प्रशंसा पूर्वक ईर्षा करते और   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 114

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चौपाई :सीता लखन सहित रघुराई। गाँव निकट जब निकसहिं जाई॥सुनि सब बाल बृद्ध नर नारी। चलहिं तुरत गृह काजु बिसारी॥1॥ भावार्थ:- सीताजी और लक्ष्मणजी सहित श्री रघुनाथजी जब किसी गाँव के पास जा निकलते हैं, तब उनका आना सुनते ही बालक-बूढ़े, स्त  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 115

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चौपाई :एक कलस भरि आनहिं पानी। अँचइअ नाथ कहहिं मृदु बानी॥सुनि प्रिय बचन प्रीति अति देखी। राम कृपाल सुसील बिसेषी॥1॥ भावार्थ:- कोई घड़ा भरकर पानी ले आते हैं और कोमल वाणी से कहते हैं- नाथ! आचमन तो कर लीजिए। उनके प्यारे वचन सुनकर और उनका   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 116

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चौपाई :बरनि न जाइ मनोहर जोरी। सोभा बहुत थोरि मति मोरी॥राम लखन सिय सुंदरताई। सब चितवहिं चित मन मति लाई॥1॥ भावार्थ:- उस मनोहर जोड़ी का वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योंकि शोभा बहुत अधिक है और मेरी बुद्धि थोड़ी है। श्री राम, लक्ष्मण और सीत  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 117

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चौपाई :कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे॥सुनि सनेहमय मंजुल बानी। सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी॥1॥ भावार्थ:- हे सुमुखि! कहो तो अपनी सुंदरता से करोड़ों कामदेवों को लजाने वाले ये तुम्हारे कौन हैं? उनकी ऐसी प्रेममयी सु  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 118

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चौपाई :पारबती सम पतिप्रिय होहू। देबि न हम पर छाड़ब छोहू॥पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी। जौं एहि मारग फिरिअ बहोरी॥1॥ भावार्थ:- और पार्वतीजी के समान अपने पति की प्यारी होओ। हे देवी! हम पर कृपा न छोड़ना (बनाए रखना)। हम बार-बार हाथ जोड़कर विनत  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 119

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चौपाई :फिरत नारि नर अति पछिताहीं। दैअहि दोषु देहिं मन माहीं॥सहित बिषाद परसपर कहहीं। बिधि करतब उलटे सब अहहीं॥1॥ भावार्थ:- लौटते हुए वे स्त्री-पुरुष बहुत ही पछताते हैं और मन ही मन दैव को दोष देते हैं। परस्पर (बड़े ही) विषाद के साथ कहत  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 120

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चौपाई :जौं ए कंदमूल फल खाहीं। बादि सुधादि असन जग माहीं॥एक कहहिं ए सहज सुहाए। आपु प्रगट भए बिधि न बनाए॥1॥ भावार्थ:- जो ये कन्द, मूल, फल खाते हैं, तो जगत में अमृत आदि भोजन व्यर्थ ही हैं। कोई एक कहते हैं- ये स्वभाव से ही सुंदर हैं (इनका सौं  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 121

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चौपाई :नारि सनेह बिकल बस होहीं। चकईं साँझ समय जनु सोहीं॥मृदु पद कमल कठिन मगु जानी। गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी॥1॥ भावार्थ:- स्त्रियाँ स्नेहवश विकल हो जाती हैं। मानो संध्या के समय चकवी (भावी वियोग की पीड़ा से) सोह रही हो। (दुःखी हो रही   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 122

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चौपाई :गाँव गाँव अस होइ अनंदू। देखि भानुकुल कैरव चंदू॥जे कछु समाचार सुनि पावहिं। ते नृप रानिहि दोसु लगावहिं॥1॥ भावार्थ:- सूर्यकुल रूपी कुमुदिनी को प्रफुल्लित करने वाले चन्द्रमा स्वरूप श्री रामचन्द्रजी के दर्शन कर गाँव-गाँव मे  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 123

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चौपाई :आगें रामु लखनु बने पाछें। तापस बेष बिराजत काछें॥उभय बीच सिय सोहति कैसें। ब्रह्म जीव बिच माया जैसें॥1॥ भावार्थ:- आगे श्री रामजी हैं, पीछे लक्ष्मणजी सुशोभित हैं। तपस्वियों के वेष बनाए दोनों बड़ी ही शोभा पा रहे हैं। दोनों के ब  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 124

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चौपाई :अजहुँ जासु उर सपनेहुँ काऊ। बसहुँ लखनु सिय रामु बटाऊ॥राम धाम पथ पाइहि सोई। जो पथ पाव कबहु मुनि कोई॥1॥ भावार्थ:- आज भी जिसके हृदय में स्वप्न में भी कभी लक्ष्मण, सीता, राम तीनों बटोही आ बसें, तो वह भी श्री रामजी के परमधाम के उस मा  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 125

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चौपाई :मुनि कहुँ राम दंडवत कीन्हा। आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा॥देखि राम छबि नयन जुड़ाने। करि सनमानु आश्रमहिं आने॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी ने मुनि को दण्डवत किया। विप्र श्रेष्ठ मुनि ने उन्हें आशीर्वाद दिया। श्री रामचन्द्रजी   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 126

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चौपाई :देखि पाय मुनिराय तुम्हारे। भए सुकृत सब सुफल हमारे॥॥अब जहँ राउर आयसु होई। मुनि उदबेगु न पावै कोई॥1॥ भावार्थ:- हे मुनिराज! आपके चरणों का दर्शन करने से आज हमारे सब पुण्य सफल हो गए (हमें सारे पुण्यों का फल मिल गया)। अब जहाँ आपकी आ  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 127

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चौपाई :जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे॥तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥1॥ भावार्थ:- हे राम! जगत दृश्य है, आप उसके देखने वाले हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को भी नचाने वाले हैं। जब वे भी आप  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 128

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चौपाई :सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने। सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने॥बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिअ रस बोरी॥1॥ भावार्थ:- मुनि के प्रेमरस से सने हुए वचन सुनकर श्री रामचन्द्रजी रहस्य खुल जाने के डर से सकुचाकर मन में मुस्कुराए  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 129

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चौपाई :प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा॥तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं॥1॥ भावार्थ:- जिसकी नासिका प्रभु (आप) के पवित्र और सुगंधित (पुष्पादि) सुंदर प्रसाद को नित्य आदर के साथ ग्रहण करती   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 130

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चौपाई :काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥1॥ भावार्थ:- जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह हैं, न लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है और न कपट, दम्भ और माया ही है-  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 131

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चौपाई :अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं॥नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका॥1॥ भावार्थ:- जो अवगुणों को छोड़कर सबके गुणों को ग्रहण करते हैं, ब्राह्मण और गो के लिए संकट सहते हैं, नीति-निपुणता   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 132

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चौपाई :एहि बिधि मुनिबर भवन देखाए। बचन सप्रेम राम मन भाए॥कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहउँ समय सुखदायक॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार मुनि श्रेष्ठ वाल्मीकिजी ने श्री रामचन्द्रजी को घर दिखाए। उनके प्रेमपूर्ण वचन श्री रामजी के मन को   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 133

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चौपाई :रघुबर कहेउ लखन भल घाटू। करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू॥लखन दीख पय उतर करारा। चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी ने कहा- लक्ष्मण! बड़ा अच्छा घाट है। अब यहीं कहीं ठहरने की व्यवस्था करो। तब लक्ष्मणजी ने पयस्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 134

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चौपाई :अमर नाग किंनर दिसिपाला। चित्रकूट आए तेहि काला॥राम प्रनामु कीन्ह सब काहू। मुदित देव लहि लोचन लाहू॥1॥ भावार्थ:- उस समय देवता, नाग, किन्नर और दिक्पाल चित्रकूट में आए और श्री रामचन्द्रजी ने सब किसी को प्रणाम किया। देवता नेत्र  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 135

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चौपाई :यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई॥कंद मूल फल भरि भरि दोना। चले रंक जनु लूटन सोना॥1॥ भावार्थ:- यह (श्री रामजी के आगमन का) समाचार जब कोल-भीलों ने पाया, तो वे ऐसे हर्षित हुए मानो नवों निधियाँ उनके घर ही पर आ गई हों। व  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 136

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चौपाई :धन्य भूमि बन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाउ तुम्ह धारा॥धन्य बिहग मृग काननचारी। सफल जनम भए तुम्हहि निहारी॥1॥ भावार्थ:- हे नाथ! जहाँ-जहाँ आपने अपने चरण रखे हैं, वे पृथ्वी, वन, मार्ग और पहाड़ धन्य हैं, वे वन में विचरने वाले पक्षी और पश  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 137

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चौपाई :रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी को केवल प्रेम प्यारा है, जो जानने वाला हो (जानना चाहता हो), वह जान ले। तब श्री रामचन्द्रजी ने प्र  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 138

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चौपाई :करि केहरि कपि कोल कुरंगा। बिगतबैर बिचरहिं सब संगा॥फिरत अहेर राम छबि देखी। होहिं मुदित मृग बृंद बिसेषी॥1॥ भावार्थ:- हाथी, सिंह, बंदर, सूअर और हिरन, ये सब वैर छोड़कर साथ-साथ विचरते हैं। शिकार के लिए फिरते हुए श्री रामचन्द्रजी क  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 139

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चौपाई :नयनवंत रघुबरहि बिलोकी। पाइ जनम फल होहिं बिसोकी॥परसि चरन रज अचर सुखारी। भए परम पद के अधिकारी॥1॥ भावार्थ:- आँखों वाले जीव श्री रामचन्द्रजी को देखकर जन्म का फल पाकर शोकरहित हो जाते हैं और अचर (पर्वत, वृक्ष, भूमि, नदी आदि) भगवान   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 140

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चौपाई :राम संग सिय रहति सुखारी। पुर परिजन गृह सुरति बिसारी॥छिनु छिनु पिय बिधु बदनु निहारी। प्रमुदित मनहुँ चकोर कुमारी॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी के साथ सीताजी अयोध्यापुरी, कुटुम्ब के लोग और घर की याद भूलकर बहुत ही सुखी रहती   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 141

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चौपाई :सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं। सोइ रघुनाथ करहिं सोइ कहहीं॥कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी॥1॥ भावार्थ:- सीताजी और लक्ष्मणजी को जिस प्रकार सुख मिले, श्री रघुनाथजी वही करते और वही कहते हैं। भगवान प्राची  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 142

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चौपाई :जोगवहिं प्रभुसिय लखनहि कैसें। पलक बिलोचन गोलक जैसें॥सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि॥1॥ भावार्थ:- प्रभु श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी की कैसी सँभाल रखते हैं, जैसे पलकें नेत्रों के गोलकों की।   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 143

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चौपाई :धरि धीरजु तब कहइ निषादू। अब सुमंत्र परिहरहु बिषादू॥तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता॥1॥ भावार्थ:- तब धीरज धरकर निषादराज कहने लगा- हे सुमंत्रजी! अब विषाद को छोड़िए। आप पंडित और परमार्थ के जानने वाले हैं।   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 144

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चौपाई :गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई। बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई॥चले अवध लेइ रथहि निषादा। होहिं छनहिं छन मगन बिषादा॥1॥ भावार्थ:- निषादराज गुह सारथी (सुमंत्रजी) को पहुँचाकर (विदा करके) लौटा। उसके विरह और दुःख का वर्णन नहीं किया जा सकत  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 145

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चौपाई :जिमि कुलीन तिय साधु सयानी। पतिदेवता करम मन बानी॥रहै करम बस परिहरि नाहू। सचिव हृदयँ तिमि दारुन दाहू॥1॥ भावार्थ:- जैसे किसी उत्तम कुलवाली, साधु स्वाभाव की, समझदार और मन, वचन, कर्म से पति को ही देवता मानने वाली पतिव्रता स्त्री   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 146

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चौपाई :पुछिहहिं दीन दुखित सब माता। कहब काह मैं तिन्हहि बिधाता।पूछिहि जबहिं लखन महतारी। कहिहउँ कवन सँदेस सुखारी॥1॥ भावार्थ:- जब दीन-दुःखी सब माताएँ पूछेंगी, तब हे विधाता! मैं उन्हें क्या कहूँगा? जब लक्ष्मणजी की माता मुझसे पूछेंग  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 147

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चौपाई :एहि बिधि करत पंथ पछितावा। तमसा तीर तुरत रथु आवा॥बिदा किए करि बिनय निषादा। फिरे पायँ परि बिकल बिषादा॥1॥ भावार्थ:- सुमंत्र इस प्रकार मार्ग में पछतावा कर रहे थे, इतने में ही रथ तुरंत तमसा नदी के तट पर आ पहुँचा। मंत्री ने विनय क  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 148

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चौपाई :अति आरति सब पूँछहिं रानी। उतरु न आव बिकल भइ बानी॥सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा। कहहु कहाँ नृपु तेहि तेहि बूझा॥1॥ भावार्थ:- अत्यन्त आर्त होकर सब रानियाँ पूछती हैं, पर सुमंत्र को कुछ उत्तर नहीं आता, उनकी वाणी विकल हो गई (रुक गई) है  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 149

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चौपाई :भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई॥सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी॥1॥ भावार्थ:- राजा ने सुमंत्र को हृदय से लगा लिया। मानो डूबते हुए आदमी को कुछ सहारा मिल गया हो। मंत्री को स्नेह के साथ पास बैठाकर   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 150

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चौपाई :पुनि पुनि पूँछत मंत्रिहि राऊ। प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ॥करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ। रामु लखनु सिय नयन देखाऊ॥1॥ भावार्थ:- राजा बार-बार मंत्री से पूछते हैं- मेरे प्रियतम पुत्रों का संदेसा सुनाओ। हे सखा! तुम तुरंत वही उपाय करो जिस  ......

अयोध्याकांड दोहा 151

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चौपाई :केवट कीन्हि बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिंगरौर गवाँई॥होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा॥1॥ भावार्थ:- केवट (निषादराज) ने बहुत सेवा की। वह रात सिंगरौर (श्रृंगवेरपुर) में ही बिताई। दूसरे दिन सबेरा होते ही बड़ का दूध म  ......

अयोध्याकांड दोहा 152

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चौपाई :पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी॥सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी॥1॥ भावार्थ:- हे तात! सब पुरवासियों और कुटुम्बियों से निहोरा (अनुरोध) करके मेरी विनती सुनाना कि वही मनुष्य मेरा सब प्रकार से ह  ......

अयोध्याकांड दोहा 153

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चौपाई :तेहि अवसर रघुबर रुख पाई। केवट पारहि नाव चलाई॥रघुकुलतिलक चले एहि भाँती। देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती॥1॥ भावार्थ:- उसी समय श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर केवट ने पार जाने के लिए नाव चला दी। इस प्रकार रघुवंश तिलक श्री रामचन्द्रजी   ......

अयोध्याकांड दोहा 154

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चौपाई :प्रान कंठगत भयउ भुआलू। मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू॥इंद्रीं सकल बिकल भइँ भारी। जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी॥1॥ भावार्थ:- राजा के प्राण कंठ में आ गए। मानो मणि के बिना साँप व्याकुल (मरणासन्न) हो गया हो। इन्द्रियाँ सब बहुत ही वि  ......

अयोध्याकांड दोहा 155

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चौपाई :धरि धीरजु उठि बैठ भुआलू। कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू॥कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही॥1॥ भावार्थ:- धीरज धरकर राजा उठ बैठे और बोले- सुमंत्र! कहो, कृपालु श्री राम कहाँ हैं? लक्ष्मण कहाँ हैं? स्नेही राम कहाँ ह  ......

अयोध्याकांड दोहा 156

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चौपाई :जिअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा॥जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा॥1॥ भावार्थ:- जीने और मरने का फल तो दशरथजी ने ही पाया, जिनका निर्मल यश अनेकों ब्रह्मांडों में छा गया। जीते जी तो श्री रामचन्द्  ......

अयोध्याकांड दोहा 157

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चौपाई :तेल नावँ भरि नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा॥धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू॥1॥ भावार्थ:- वशिष्ठजी ने नाव में तेल भरवाकर राजा के शरीर को उसमें रखवा दिया। फिर दूतों को बुलवाकर उनसे ऐसा कहा- तुम लो  ......

अयोध्याकांड दोहा 158

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चौपाई :चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित सैल बन बाँके॥हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई॥1॥ भावार्थ:- हवा के समान वेग वाले घोड़ों को हाँकते हुए वे विकट नदी, पहाड़ तथा जंगलों को लाँघते हुए चले। उनके हृदय में बड़ा स  ......

अयोध्याकांड दोहा 159

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श्री भरत-शत्रुघ्न का आगमन और शोक चौपाई:हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी॥आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि॥1॥ भावार्थ:- बाजार और रास्ते देखे नहीं जाते। मानो नगर में दसों दिशाओं में दावाग्नि   ......

अयोध्याकांड दोहा 160

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चौपाई :तात बात मैं सकल सँवारी। भै मंथरा सहाय बिचारी॥कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ॥1॥ भावार्थ:- हे तात! मैंने सारी बात बना ली थी। बेचारी मंथरा सहायक हुई। पर विधाता ने बीच में जरा सा काम बिगाड़ दिया। वह यह कि र  ......

अयोध्याकांड दोहा 161

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चौपाई:बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुँ जरे पर लोनु लगावति॥तात राउ नहिं सोचै जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू॥1॥ भावार्थ:- पुत्र को व्याकुल देखकर कैकेयी समझाने लगी। मानो जले पर नमक लगा रही हो। (वह बोली-) हे तात! राजा सोच करने योग  ......

अयोध्याकांड दोहा 162

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चौपाई :जब मैं कुमति कुमत जियँ ठयऊ। खंड खंड होइ हृदउ न गयऊ॥बर मागत मन भइ नहिं पीरा। गरि न जीह मुँह परेउ न कीरा॥1॥ भावार्थ:- अरी कुमति! जब तूने हृदय में यह बुरा विचार (निश्चय) ठाना, उसी समय तेरे हृदय के टुकड़े-टुकड़े (क्यों) न हो गए? वरदान मा  ......

अयोध्याकांड दोहा 163

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चौपाई :सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई। जरहिं गात रिस कछु न बसाई॥तेहि अवसर कुबरी तहँ आई। बसन बिभूषन बिबिध बनाई॥1॥ भावार्थ:- माता की कुटिलता सुनकर शत्रुघ्नजी के सब अंग क्रोध से जल रहे हैं, पर कुछ वश नहीं चलता। उसी समय भाँति-भाँति के कपड़  ......

अयोध्याकांड दोहा 164

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चौपाई :भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुचित अवनि परी झइँ आई॥देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी॥1॥ भावार्थ:- भरत को देखते ही माता कौसल्याजी उठ दौड़ीं। पर चक्कर आ जाने से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। यह देखते ही भरतजी बड़  ......

अयोध्याकांड दोहा 165

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चौपाई :सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥1॥ भावार्थ:- सरल स्वभाव वाली माता ने बड़े प्रेम से भरतजी को छाती से लगा लिया, मानो श्री रामजी ही लौटकर आ गए हों। फिर लक्ष्मण  ......

अयोध्याकांड दोहा 166

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चौपाई :मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू। सब कर सब बिधि करि परितोषू॥चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनुरागी॥1॥ भावार्थ:- उनका मुख प्रसन्न था, मन में न आसक्ति थी, न रोष (द्वेष)। सबका सब तरह से संतोष कराकर वे वन को चले। यह सुनकर सीता भ  ......

अयोध्याकांड दोहा 167

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चौपाई :बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई। कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई॥भाँति अनेक भरतु समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए॥1॥ भावार्थ:- भरत, शत्रुघ्न दोनों भाई विकल होकर विलाप करने लगे। तब कौसल्याजी ने उनको हृदय से लगा लिया। अनेकों प्रकार से भरतजी  ......

अयोध्याकांड दोहा 168

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चौपाई :बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं। पिसुन पराय पाप कहि देहीं॥कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी॥1॥ भावार्थ:- जो लोग वेदों को बेचते हैं, धर्म को दुह लेते हैं, चुगलखोर हैं, दूसरों के पापों को कह देते हैं, जो कपटी, कु  ......

अयोध्याकांड दोहा 169

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चौपाई :राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे॥बिधु बिष चवै स्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी॥1॥ भावार्थ:- श्री राम तुम्हारे प्राणों से भी बढ़कर प्राण (प्रिय) हैं और तुम भी श्री रघुनाथ को प्राणों स  ......

अयोध्याकांड दोहा 170

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चौपाई :नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमानु बनावा॥गाहि पदभरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी॥1॥ भावार्थ:- वेदों में बताई हुई विधि से राजा की देह को स्नान कराया गया और परम विचित्र विमान बनाया गया। भरतजी ने सब माताओ  ......

अयोध्याकांड दोहा 171

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चौपाई :पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी। सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी॥सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए॥1॥ भावार्थ:- पिताजी के लिए भरतजी ने जैसी करनी की वह लाखों मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती। तब शुभ दिन शोधकर श्रेष्ठ मुनि  ......

अयोध्याकांड दोहा 172

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चौपाई :अस बिचारि केहि देइअ दोसू। ब्यरथ काहि पर कीजिअ रोसू॥तात बिचारु करहु मन माहीं। सोच जोगु दसरथु नृपु नाहीं॥1॥ भावार्थ:- ऐसा विचार कर किसे दोष दिया जाए? और व्यर्थ किस पर क्रोध किया जाए? हे तात! मन में विचार करो। राजा दशरथ सोच करने   ......

अयोध्याकांड दोहा 173

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चौपाई :बैखानस सोइ सोचै जोगू। तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू॥सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बंधु बिरोधी॥1॥ भावार्थ:- वानप्रस्थ वही सोच करने योग्य है, जिसको तपस्या छोड़कर भोग अच्छे लगते हैं। सोच उसका करना चाहिए जो चुगलखोर है, बिन  ......

अयोध्याकांड दोहा 174

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चौपाई :सब प्रकार भूपति बड़भागी। बादि बिषादु करिअ तेहि लागी॥यह सुनि समुझि सोचु परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू॥1॥ भावार्थ:- राजा सब प्रकार से बड़भागी थे। उनके लिए विषाद करना व्यर्थ है। यह सुन और समझकर सोच त्याग दो और राजा की आज्ञा   ......

अयोध्याकांड दोहा 175

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चौपाई :अवसि नरेस बचन फुर करहू। पालहु प्रजा सोकु परिहरहू॥सुरपुर नृपु पाइहि परितोषू। तुम्ह कहुँ सुकृतु सुजसु नहिं दोषू॥1॥ भावार्थ:- राजा का वचन अवश्य सत्य करो। शोक त्याग दो और प्रजा का पालन करो। ऐसा करने से स्वर्ग में राजा संतोष प  ......

अयोध्याकांड दोहा 176

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चौपाई :कौसल्या धरि धीरजु कहई। पूत पथ्य गुर आयसु अहई॥सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी॥1॥ भावार्थ:- कौसल्याजी भी धीरज धरकर कह रही हैं- हे पुत्र! गुरुजी की आज्ञा पथ्य रूप है। उसका आदर करना चाहिए और हित मानकर उसका पालन   ......

अयोध्याकांड दोहा 177

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चौपाई :मोहि उपदेसु दीन्ह गुरु नीका। प्रजा सचिव संमत सबही का॥मातु उचित धरि आयसु दीन्हा। अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा॥1॥ भावार्थ:- गुरुजी ने मुझे सुंदर उपदेश दिया। (फिर) प्रजा, मंत्री आदि सभी को यही सम्मत है। माता ने भी उचित समझकर ही आज  ......

अयोध्याकांड दोहा 178

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चौपाई :हित हमार सियपति सेवकाईं। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाईं॥मैं अनुमानि दीख मन माहीं। आन उपायँ मोर हित नाहीं॥1॥ भावार्थ:- मेरा कल्याण तो सीतापति श्री रामजी की चाकरी में है, सो उसे माता की कुटिलता ने छीन लिया। मैंने अपने मन में अनु  ......

अयोध्याकांड दोहा 179

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चौपाई :कहउँ साँचु सब सुनि पतिआहू। चाहिअ धरमसील नरनाहू॥मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं। रसा रसातल जाइहि तबहीं॥1॥ भावार्थ:- मैं सत्य कहता हूँ, आप सब सुनकर विश्वास करें, धर्मशील को ही राजा होना चाहिए। आप मुझे हठ करके ज्यों ही राज्य देंगे  ......

अयोध्याकांड दोहा 180

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चौपाई :कैकेई भव तनु अनुरागे। पावँर प्रान अघाइ अभागे॥जौं प्रिय बिरहँ प्रान प्रिय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे॥1॥ भावार्थ:- कैकेयी से उत्पन्न देह में प्रेम करने वाले ये पामर प्राण भरपेट (पूरी तरह से) अभागे हैं। जब प्रिय के वियोग में   ......

अयोध्याकांड दोहा 181

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चौपाई :कैकइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई॥दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई॥1॥ भावार्थ:- कैकेयी के लड़के के लिए संसार में जो कुछ योग्य था, चतुर विधाता ने मुझे वही दिया। पर ‘दशरथजी का पुत्र’ और ‘राम का छ  ......

अयोध्याकांड दोहा 182

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चौपाई :गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना॥मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ॥1॥ भावार्थ:- गुरुजी ज्ञान के समुद्र हैं, इस बात को सारा जगत्‌ जानता है, जिसके लिए विश्व हथेली पर रखे हुए बेर के समान है,   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 183

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चौपाई :आन उपाउ मोहि नहिं सूझा। को जिय कै रघुबर बिनु बूझा॥एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं॥1॥ भावार्थ:- मुझे दूसरा कोई उपाय नहीं सूझता। श्री राम के बिना मेरे हृदय की बात कौन जान सकता है? मन में एक ही आँक (निश्चयपू  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 184

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चौपाई :भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे॥लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे॥1॥ भावार्थ:- भरतजी के वचन सबको प्यारे लगे। मानो वे श्री रामजी के प्रेमरूपी अमृत में पगे हुए थे। श्री रामवियोग रूपी भीषण व  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 185

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चौपाई :भा सब कें मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा॥चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के॥1॥ भावार्थ:- सबके मन में कम आनंद नहीं हुआ (अर्थात बहुत ही आनंद हुआ)! मानो मेघों की गर्जना सुनकर चातक और मोर आनंदित हो रह  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 186

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चौपाई :घर घर साजहिं बाहन नाना। हरषु हृदयँ परभात पयाना॥भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू॥1॥ भावार्थ:- घर-घर लोग अनेकों प्रकार की सवारियाँ सजा रहे हैं। हृदय में (बड़ा) हर्ष है कि सबेरे चलना है। भरतजी ने घर जाकर विचार कि  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 187

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चौपाई :चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी। चहत प्रात उर आरत भारी॥जागत सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना॥1॥ भावार्थ:- नगर के नर-नारी चकवे-चकवी की भाँति हृदय में अत्यन्त आर्त होकर प्रातःकाल का होना चाहते हैं। सारी रात जागते-जागते   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 188

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चौपाई :राम दरस बस सब नर नारी। जनु करि करिनि चले तकि बारी॥बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी के दर्शन के वश में हुए (दर्शन की अनन्य लालसा से) सब नर-नारी ऐसे चले मानो प्यासे हाथी-हथिनी ज  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 189

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चौपाई :सई तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब निअराने॥समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा॥1॥ भावार्थ:- रात भर सई नदी के तीर पर निवास करके सबेरे वहाँ से चल दिए और सब श्रृंगवेरपुर के समीप जा पहुँचे। निषादराज ने सब समाचार स  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 190

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चौपाई :होहु सँजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा॥सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ॥1॥ भावार्थ:- सुसज्जित होकर घाटों को रोक लो और सब लोग मरने के साज सजा लो (अर्थात भरत से युद्ध में लड़कर मरने के लिए तैयार हो जाओ)। मैं   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 191

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चौपाई :बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ। सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ॥भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढ़ावइ करषा॥1॥ भावार्थ:- (उसने कहा-) हे भाइयों! जल्दी करो और सब सामान सजाओ। मेरी आज्ञा सुनकर कोई मन में कायरता न लावे। सब हर्ष के साथ बोल उठे- हे   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 192

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चौपाई :राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे॥जीवन पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं॥1॥ भावार्थ:- हे नाथ! श्री रामचन्द्रजी के प्रताप से और आपके बल से हम लोग भरत की सेना को बिना वीर और बिना घोड़े की कर देंगे (एक  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 193

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चौपाई :लखब सनेहु सुभायँ सुहाएँ। बैरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ॥अस कहि भेंट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे॥1॥ भावार्थ:- उनके सुंदर स्वभाव से मैं उनके स्नेह को पहचान लूँगा। वैर और प्रेम छिपाने से नहीं छिपते। ऐसा कहकर वह भेंट का  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 194

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चौपाई :भेंटत भरतु ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती॥धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला॥1॥ भावार्थ:- भरतजी गुह को अत्यन्त प्रेम से गले लगा रहे हैं। प्रेम की रीति को सब लोग सिहा रहे हैं (ईर्षापूर्वक प्रश  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 195

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चौपाई :नहिं अचिरिजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई॥राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवध लोग सुखु लहहीं॥1॥ भावार्थ:- इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, युग-युगान्तर से यही रीति चली आ रही है। श्री रघुनाथजी ने किसको बड़ाई नहीं दी?  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 196

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चौपाई :कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती॥राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें॥1॥ भावार्थ:- मैं कपटी, कायर, कुबुद्धि और कुजाति हूँ और लोक-वेद दोनों से सब प्रकार से बाहर हूँ। पर जब से श्री रामचन्द्रजी ने मुझे   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 197

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चौपाई :सृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अंग सिथिल तब॥सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू॥1॥ भावार्थ:- भरतजी ने जब श्रृंगवेरपुर को देखा, तब उनके सब अंग प्रेम के कारण शिथिल हो गए। वे निषाद को लाग दिए (अर्थात उसके कंधे  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 198

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चौपाई :जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा। भरत सोधु सबही कर लीन्हा॥सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गे दोउ भाई॥1॥ भावार्थ:- लोगों ने जहाँ-तहाँ डेरा डाल दिया। भरतजी ने सभी का पता लगाया (कि सब लोग आकर आराम से टिक गए हैं या नहीं)। फिर देव पू  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 199

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चौपाई :कुस साँथरी निहारि सुहाई। कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई॥चरन देख रज आँखिन्ह लाई। बनइ न कहत प्रीति अधिकाई॥1॥ भावार्थ:- कुशों की सुंदर साथरी देखकर उसकी प्रदक्षिणा करके प्रणाम किया। श्री रामचन्द्रजी के चरण चिह्नों की रज आँखों  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 200

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चौपाई :लालन जोगु लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहहिं न होने॥पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुबीरहि प्रानपिआरे॥1॥ भावार्थ:- मेरे छोटे भाई लक्ष्मण बहुत ही सुंदर और प्यार करने योग्य हैं। ऐसे भाई न तो किसी के हुए, न हैं, न होने के ही हैं  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 201

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चौपाई :राम सुना दुखु कान न काऊ। जीवनतरु जिमि जोगवइ राउ॥पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी ने कानों से भी कभी दुःख का नाम नहीं सुना। महाराज स्वयं जीवन वृक्ष की तरह उनकी सार-सँभाल किय  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 202

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चौपाई :सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा॥यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी॥1॥ भावार्थ:- सखा के वचन सुनकर, हृदय में धीरज धरकर श्री रामचंद्रजी का स्मरण करते हुए भरतजी डेरे को चले। नगर के सारे स्त्री-पुरुष यह  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 203

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चौपाई :कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं॥साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा॥1॥ भावार्थ:- निषादराज को आगे करके पीछे सब माताओं की पालकियाँ चलाईं। छोटे भाई शत्रुघ्नजी को बुलाकर उनके साथ कर दिया। फ  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 204

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चौपाई :झलका झलकत पायन्ह कैसें। पंकज कोस ओस कन जैसें॥भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू॥1॥ भावार्थ:- उनके चरणों में छाले कैसे चमकते हैं, जैसे कमल की कली पर ओस की बूँदें चमकती हों। भरतजी आज पैदल ही चलकर आए हैं, यह समाचार सु  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 205

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चौपाई :जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही॥सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें॥1॥ भावार्थ:- स्वयं श्री रामचंद्रजी भी भले ही मुझे कुटिल समझें और लोग मुझे गुरुद्रोही तथा स्वामी द्रोही भले ही कहें, पर   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 206

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चौपाई :प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी॥कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेहु सीलु सुचि साँचा॥1॥ भावार्थ:- तीर्थराज प्रयाग में रहने वाले वनप्रस्थ, ब्रह्मचारी, गृहस्थ और उदासीन (संन्यासी) सब बहुत ही आनंदित हैं और दस  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 207

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चौपाई :यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ। लोकु बेदु बुध संमत दोऊ॥तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई॥1॥ भावार्थ:- यह कहते भी कोई भला न कहेगा, क्योंकि लोक और वेद दोनों ही विद्वानों को मान्य है, किन्तु हे तात! तुम्हारा निर्मल यश गाकर त  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 208

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चौपाई :सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना। भूरिभाग को तुम्हहि समाना॥यह तुम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता॥1॥ भावार्थ:- सो वह (श्री रामचन्द्रजी के चरणों का प्रेम) तो तुम्हारा धन, जीवन और प्राण ही है, तुम्हारे समान बड़भागी कौ  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 209

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चौपाई :नव बिधु बिमल तात जसु तोरा। रघुबर किंकर कुमुद चकोरा॥उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना॥1॥ भावार्थ:- हे तात! तुम्हारा यश निर्मल नवीन चन्द्रमा है और श्री रामचन्द्रजी के दास कुमुद और चकोर हैं (वह चन्द्रमा तो प्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 210

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चौपाई :कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहँ बस राम पेम मृगरूपा॥तात गलानि करहु जियँ जाएँ। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ॥1॥ भावार्थ:- (परन्तु उनसे भी बढ़कर) तुमने कीर्ति रूपी अनुपम चंद्रमा को उत्पन्न किया, जिसमें श्री राम प्रेम ही हिरन के (  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 211

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चौपाई :मुनि समाजु अरु तीरथराजू। साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू॥एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई॥1॥ भावार्थ:- मुनियों का समाज है और फिर तीर्थराज है। यहाँ सच्ची सौगंध खाने से भी भरपूर हानि होती है। इस स्थान में यदि कुछ बन  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 212

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चौपाई :एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती। भूख न बासर नीद न राती॥एहि कुरोग कर औषधु नाहीं। सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं॥1॥ भावार्थ:- इसी दुःख की जलन से निरंतर मेरी छाती जलती रहती है। मुझे न दिन में भूख लगती है, न रात को नींद आती है। मैंने मन ही मन   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 213

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चौपाई :सुनि मुनि बचन भरत हियँ सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू॥जानि गुरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी॥1॥ भावार्थ:- मुनि के वचन सुनकर भरत के हृदय में सोच हुआ कि यह बेमौके बड़ा बेढब संकोच आ पड़ा! फिर गुरुजनों की वाणी को महत्वपूर्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 214

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चौपाई :रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी। बड़भागिनि आपुहि अनुमानी॥कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई॥1॥ भावार्थ:- ऋद्धि-सिद्धि ने मुनिराज की आज्ञा को सिर चढ़ाकर अपने को बड़भागिनी समझा। सब सिद्धियाँ आपस में कहने लगीं- श्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 215

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चौपाई :मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका॥सुख समाजु नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहिं ग्यानी॥1॥ भावार्थ:- जब भरतजी ने मुनि के प्रभाव को देखा, तो उसके सामने उन्हें (इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर आदि) सभी लोकपालों के लोक तु  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 216

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चौपाई :कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाई मुनिहि सिरु सहित समाजा।रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दंडवत बिनय बहु भाषी॥1॥ भावार्थ:- (प्रातःकाल) भरतजी ने तीर्थराज में स्नान किया और समाज सहित मुनि को सिर नवाकर और ऋषि की आज्ञा तथा आशीर्वाद को   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 217

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चौपाई :जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे॥ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू॥1॥ भावार्थ:- रास्ते में असंख्य जड़-चेतन जीव थे। उनमें से जिनको प्रभु श्री रामचंद्रजी ने देखा, अथवा जिन्होंने प्रभु श्री रामचंद्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 218

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चौपाई :बचन सुनत सुरगुरु मुसुकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने॥मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया॥1॥ भावार्थ:- इंद्र के वचन सुनते ही देवगुरु बृहस्पतिजी मुस्कुराए। उन्होंने हजार नेत्रों वाले इंद्र को (ज्ञान रूपी) नेत्रोंरहि  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 219

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चौपाई :सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा॥मानत सुखु सेवक सेवकाईं। सेवक बैर बैरु अधिकाईं॥1॥ भावार्थ:- हे देवराज! हमारा उपदेश सुनो। श्री रामजी को अपना सेवक परम प्रिय है। वे अपने सेवक की सेवा से सुख मानते हैं और सेवक के   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 220

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चौपाई :सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी॥स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू॥1॥ भावार्थ:- प्रभु श्री रामचंद्रजी सत्यप्रतिज्ञ और देवताओं का हित करने वाले हैं और भरतजी श्री रामजी की आज्ञा के अनुसार   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 221

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चौपाई :जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहि सुपासू॥रातिहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी॥1॥ भावार्थ:- उस दिन यमुनाजी के किनारे निवास किया। समयानुसार सबके लिए (खान-पान आदि की) सुंदर व्यवस्था हुई (निषादराज का संकेत प  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 222

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चौपाई :कहहिं सप्रेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं॥बय बपु बरन रूपु सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली॥1॥ भावार्थ:- गाँवों की स्त्रियाँ एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक कहती हैं- सखी! ये राम-लक्ष्मण हैं कि नहीं? हे सखी! इनकी अवस्था, श  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 223

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चौपाई :भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥जो किछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई॥1॥ भावार्थ:- भरतजी का भाईपना, भक्ति और इनके आचरण कहने और सुनने से दुःख और दोषों के हरने वाले हैं। हे सखी! उनके संबंध में जो कुछ भी कहा ज  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 224

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चौपाई :निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा॥तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा॥1॥ भावार्थ:- (इस प्रकार) अपने गुणों सहित श्री रामचंद्रजी के गुणों की कथा सुनते और श्री रघुनाथजी को स्मरण करते हु  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 225

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चौपाई :मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू॥भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटिहि दुख दाहू॥1॥ भावार्थ: -सबको मंगलसूचक शकुन हो रहे हैं। सुख देने वाले (पुरुषों के दाहिने और स्त्रियों के बाएँ) नेत्र और भुजाएँ फड़क   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 226

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चौपाई :सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें॥जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥1॥ भावार्थ:- सब लोग श्री रामचंद्रजी के प्रेम के मारे शिथिल होने के कारण सूर्यास्त होने तक (दिनभर में) दो ही कोस चल पाए और  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 227

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चौपाई :बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू॥एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी॥1॥ भावार्थ:- सीतापति श्री रामचंद्रजी पुनः सोच के वश हो गए कि भरत के आने का क्या कारण है? फिर एक ने आकर ऐसा कहा कि उनके साथ में बड़ी भारी चतुरं  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 228

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चौपाई :बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मूढ़ मोह बस होहिं जनाई॥भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेमु सकल जगु जाना॥1॥ भावार्थ:- परंतु मूढ़ विषयी जीव प्रभुता पाकर मोहवश अपने असली स्वरूप को प्रकट कर देते हैं। भरत नीतिपरायण, साधु और चतुर हैं  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 229

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चौपाई :सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू॥भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काउ॥1॥ भावार्थ:- सहस्रबाहु, देवराज इंद्र और त्रिशंकु आदि किसको राजमद ने कलंक नहीं दिया? भरत ने यह उपाय उचित ही किया है, क्योंकि   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 230

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चौपाई :उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा॥बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा॥1॥ भावार्थ:- यों कहकर लक्ष्मणजी ने उठकर, हाथ जोड़कर आज्ञा माँगी। मानो वीर रस सोते से जाग उठा हो। सिर पर जटा बाँधकर कमर में तरक  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 231

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चौपाई :जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी॥तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा॥1॥ भावार्थ:- सारा जगत्‌ भय में डूब गया। तब लक्ष्मणजी के अपार बाहुबल की प्रशंसा करती हुई आकाशवाणी हुई- हे तात! तुम्हारे प्र  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 232

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चौपाई :तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई॥गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी॥1॥ भावार्थ:- अन्धकार चाहे तरुण (मध्याह्न के) सूर्य को निगल जाए। आकाश चाहे बादलों में समाकर मिल जाए। गो के खुर इतने जल में अग  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 233

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चौपाई :जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को॥कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा॥1॥ भावार्थ:- यदि जगत्‌ में भरत का जन्म न होता, तो पृथ्वी पर संपूर्ण धर्मों की धुरी को कौन धारण करता? हे रघुनाथजी! कविकुल के लि  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 234

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चौपाई :जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी। जौं सनमानहिं सेवकु मानी॥मोरें सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही॥1॥ भावार्थ:- चाहे मलिन मन जानकर मुझे त्याग दें, चाहे अपना सेवक मानकर मेरा सम्मान करें, (कुछ भी करें), मेरे तो श्री रामचंद  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 235

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चौपाई :सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने॥भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू॥1॥ भावार्थ:- भरतजी ने सेवक (गुह) के सब वचन सत्य जाने और वे आश्रम के समीप जा पहुँचे। वहाँ के वन और पर्वतों के समूह को देखा तो भरतजी   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 236

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चौपाई :बन प्रदेस मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे॥बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना॥1॥ भावार्थ:- वन रूपी प्रांतों में जो मुनियों के बहुत से निवास स्थान हैं, वही मानो शहरों, नगरों, गाँवों और खेड़ों का समूह है  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 237

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चौपाई :तब केवट ऊँचे चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई॥नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला॥1॥ भावार्थ:- तब केवट दौड़कर ऊँचे चढ़ गया और भुजा उठाकर भरजी से कहने लगा- हे नाथ! ये जो पाकर, जामुन, आम और तमाल के विशाल वृक्ष दिखाई देते   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 238

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चौपाई :सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगे भरत बिलोचन बारी॥करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई॥1॥ भावार्थ:- सखा के वचन सुनकर और वृक्षों को देखकर भरतजी के नेत्रों में जल उमड़ आया। दोनों भाई प्रणाम करते हुए चले। उनके प्रेम का   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 239

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चौपाई :सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा॥भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन॥1॥ भावार्थ:- सखा निषादराज सहित इस मनोहर जोड़ी को सघन वन की आड़ के कारण लक्ष्मणजी नहीं देख पाए। भरतजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के स  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 240

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चौपाई :सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन॥पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं। भूतल परे लकुट की नाईं॥1॥ भावार्थ:- छोटे भाई शत्रुघ्न और सखा निषादराज समेत भरतजी का मन (प्रेम में) मग्न हो रहा है। हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि सब भूल गए। हे ना  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 241

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चौपाई :मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी॥परम प्रेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥1॥ भावार्थ:- मिलन की प्रीति कैसे बखानी जाए? वह तो कविकुल के लिए कर्म, मन, वाणी तीनों से अगम है। दोनों भाई (भरतजी और श्री राम  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 242

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चौपाई :भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई॥पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे। अभिमत आसिष पाइ अनंदे॥1॥ भावार्थ:- तब लक्ष्मणजी ललककर (बड़ी उमंग के साथ) छोटे भाई शत्रुघ्न से मिले। फिर उन्होंने निषादराज को हृदय से लगा लिया  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 243

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चौपाई :सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू। सिय समीप राखे रिपुदवनू॥चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला॥1॥ भावार्थ:- गुरु का आगमन सुनकर शील के समुद्र श्री रामचन्द्रजी ने सीताजी के पास शत्रुघ्नजी को रख दिया और वे परम धीर, धर्मधुरंध  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 244

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चौपाई :आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना॥जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी॥1॥ भावार्थ:- दया की खान, सुजान भगवान श्री रामजी ने सब लोगों को दुःखी (मिलने के लिए व्याकुल) जाना। तब जो जिस भाव से मिलने का अभि  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 245

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चौपाई :गुरतिय पद बंदे दुहु भाईं। सहित बिप्रतिय जे सँग आईं॥गंग गौरिसम सब सनमानीं। देहिं असीस मुदित मृदु बानीं॥1॥ भावार्थ:- फिर दोनों भाइयों ने ब्राह्मणों की स्त्रियों सहित- जो भरतजी के साथ आई थीं, गुरुजी की पत्नी अरुंधतीजी के चरण  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 246

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चौपाई :सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस लही मन मागी॥गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता॥1॥ भावार्थ:- सीताजी आकर मुनि श्रेष्ठ वशिष्ठजी के चरणों लगीं और उन्होंने मन माँगी उचित आशीष पाई। फिर मुनियों की स्त्रियों   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 247

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चौपाई :बिकल सनेहँ सीय सब रानीं। बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं॥कहि जग गति मायिक मुनिनाथा॥ कहे कछुक परमारथ गाथा॥1॥ भावार्थ:- सीताजी और सब रानियाँ स्नेह के मारे व्याकुल हैं। तब ज्ञानी गुरु ने सबको बैठ जाने के लिए कहा। फिर मुनिनाथ वशिष  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 248

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चौपाई :करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी॥जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला॥1॥ भावार्थ:- वेदों में जैसा कहा गया है, उसी के अनुसार पिता की क्रिया करके, पाप रूपी अंधकार के नष्ट करने वाले सूर्यरूप श्री राम  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 249

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चौपाई :राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू॥सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकूला॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी के वचन सुनकर सारा समाज भयभीत हो गया। मानो बीच समुद्र में जहाज डगमगा गया हो, परन्तु जब उन्होंने ग  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 250

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चौपाई :कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी॥भरि भरि परन पुटीं रचि रूरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी॥1॥ भावार्थ:- कोल, किरात और भील आदि वन के रहने वाले लोग पवित्र, सुंदर एवं अमृत के समान स्वादिष्ट मधु (शहद) को सुंदर दोने बन  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 251

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चौपाई :तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे॥देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईंधनु पात किरात मिताई॥1॥ भावार्थ:- आप प्रिय पाहुने वन में पधारे हैं। आपकी सेवा करने के योग्य हमारे भाग्य नहीं हैं। हे स्वामी! हम आपको क्या दे  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 252

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चौपाई :पुर जन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं पलक सम बीती॥सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करइ सरिस सेवकाई॥1॥ भावार्थ:- अयोध्यापुरी के पुरुष और स्त्री सभी प्रेम में अत्यन्त मग्न हो रहे हैं। उनके दिन पल के समान बीत जाते हैं। जितनी सा  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 253

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चौपाई :कीन्हि मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली॥केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू॥1॥ भावार्थ:- (भरतजी सोचते हैं कि) माता के मिस से काल ने कुचाल की है। जैसे धान के पकते समय ईति का भय आ उपस्थित हो। अब श्री रामचन  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 254

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चौपाई :बोले मुनिबरु समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना॥धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू॥1॥ भावार्थ:- श्रेष्ठ मुनि वशिष्ठजी समयोचित वचन बोले- हे सभासदों! हे सुजान भरत! सुनो। सूर्यकुल के सूर्य महाराज श्री रामचन्द्र   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 255

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चौपाई :सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू॥केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी का राज्याभिषेक सबके लिए सुखदायक है। मंगल और आनंद का मूल यही एक मार्ग है। (अब) श्री रघुनाथजी अयोध्या   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 256

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चौपाई :तात बात फुरि राम कृपाहीं। राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं॥सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता॥1। भावार्थ:- (वे बोले-) हे तात! बात सत्य है, पर है रामजी की कृपा से ही। राम विमुख को तो स्वप्न में भी सिद्धि नहीं मिलती। हे त  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 257

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चौपाई :भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि भए बिदेहू॥भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी॥1॥ भावार्थ:- भरतजी के वचन सुनकर और उनका प्रेम देखकर सारी सभा सहित मुनि वशिष्ठजी विदेह हो गए (किसी को अपने देह की सुधि न रही)। भर  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 258

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चौपाई :आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जुआरिहि आपन दाऊ॥सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ॥ नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ॥1॥ भावार्थ:- आर्त (दुःखी) लोग कभी विचारकर नहीं कहते। जुआरी को अपना ही दाँव सूझता है। मुनि के वचन सुनकर श्री रघुनाथजी कहने लगे- हे   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 259

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चौपाई :गुर अनुरागु भरत पर देखी। राम हृदयँ आनंदु बिसेषी॥भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी॥1॥ भावार्थ:- भरतजी पर गुरुजी का स्नेह देखकर श्री रामचन्द्रजी के हृदय में विशेष आनंद हुआ। भरतजी को धर्मधुरंधर और तन, मन, वचन से अप  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 260

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चौपाई :सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई॥लखि अपनें सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू॥1॥ भावार्थ:- मुनि के वचन सुनकर और श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर गुरु तथा स्वामी को भरपेट अपने अनुकूल जानकर सारा बोझ   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 261

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चौपाई :बिधि न सकेऊ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा॥यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनीं समुझि साधु सुचि को भा॥1॥ भावार्थ:- परन्तु विधाता मेरा दुलार न सह सका। उसने नीच माता के बहाने (मेरे और स्वामी के बीच) अंतर डाल दिया। यह भी कहना आ  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 262

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चौपाई :भूपति मरन प्रेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी॥देखि न जाहिं बिकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारीं॥1॥ भावार्थ:- प्रेम के प्रण को निबाहकर महाराज (पिताजी) का मरना और माता की कुबुद्धि, दोनों का सारा संसार साक्षी है। माता  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 263

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चौपाई :सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरति प्रीति बिनय नय सानी॥सोक मगन सब सभाँ खभारू। मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू॥1॥ भावार्थ:- अत्यन्त व्याकुल तथा दुःख, प्रेम, विनय और नीति में सनी हुई भरतजी की श्रेष्ठ वाणी सुनकर सब लोग शोक में मग्न हो गए,   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 264

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चौपाई :कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी॥तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहिं दुरइ दुराएँ॥1॥ भावार्थ:- हे भरत! मैं स्वभाव से ही सत्य कहता हूँ, शिवजी साक्षी हैं, यह पृथ्वी तुम्हारी ही रखी रह रही है। हे तात! तुम व्यर्थ   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 265

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चौपाई :सुर गन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू॥बनत उपाउ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं॥1॥ भावार्थ:- देवगणों सहित देवराज इन्द्र भयभीत होकर सोचने लगे कि अब बना-बनाया काम बिगड़ना ही चाहता है। कुछ उपाय करते नहीं बनता। तब   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 266

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चौपाई :सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु सय सरिस सुहाई॥भरत भगति तुम्हरें मन आई। तजहु सोचु बिधि बात बनाई॥1॥ भावार्थ:- सीतानाथ श्री रामजी के सेवक की सेवा सैकड़ों कामधेनुओं के समान सुंदर है। तुम्हारे मन में भरतजी की भक्ति आई है, तो अब सोच  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 267

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चौपाई :कहौं कहावौं का अब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी॥गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला॥1॥ भावार्थ:- हे स्वामी! हे कृपा के समुद्र! हे अन्तर्यामी! अब मैं (अधिक) क्या कहूँ और क्या कहाऊँ? गुरु महाराज को प्रसन्न और स  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 268

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चौपाई :लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभु नहिं मन संदेहू॥अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई॥1॥ भावार्थ:- गुरु और स्वामी का सब प्रकार से स्नेह देखकर मेरा क्षोभ मिट गया, मन में कुछ भी संदेह नहीं रहा। हे दया की खान!  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 269

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चौपाई :नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिअ सीय सहित रघुराई॥जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई॥1॥ भावार्थ:- अथवा हम तीनों भाई वन चले जाएँ और हे श्री रघुनाथजी! आप श्री सीताजी सहित (अयोध्या को) लौट जाइए। हे दयासागर! जिस   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 270

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चौपाई :भरत बचन सुचि सुनि सुर हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥असमंजस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनबासी॥1॥ भावार्थ:- भरतजी के पवित्र वचन सुनकर देवता हर्षित हुए और ‘साधु-साधु’ कहकर सराहना करते हुए देवताओं ने फूल बरसाए। अयोध्या  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 271

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चौपाई :कोसलपति गति सुनि जनकौरा। भे सब लोक सोकबस बौरा॥जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू। नामु सत्य अस लाग न केहू॥1॥ भावार्थ:- अयोध्यानाथ की गति (दशरथजी का मरण) सुनकर जनकपुर वासी सभी लोग शोकवश बावले हो गए (सुध-बुध भूल गए)। उस समय जिन्होंने व  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 272

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चौपाई :दूतन्ह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामति बरनी॥सुनि गुर परिजन सचिव महीपति। भे सब सोच सनेहँ बिकल अति॥1॥ भावार्थ:- (गुप्त) दूतों ने आकर राजा जनकजी की सभा में भरतजी की करनी का अपनी बुद्धि के अनुसार वर्णन किया। उसे सुनकर गुरु, कुटु  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 273

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चौपाई :गरइ गलानि कुटिल कैकेई। काहि कहै केहि दूषनु देई॥अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी॥1॥ भावार्थ:- कुटिल कैकेयी मन ही मन ग्लानि (पश्चाताप) से गली जाती है। किससे कहे और किसको दोष दे? और सब नर-नारी मन में ऐसा विचार कर प्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 274

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चौपाई :सुनि सनेहमय पुरजन बानी। निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी॥एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन। रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन॥1॥ भावार्थ:- अयोध्या वासियों की प्रेममयी वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि भी अपने योग और वैराग्य की निंदा करते हैं। अ  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 275

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चौपाई :भाइ सचिव गुर पुरजन साथा। आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा॥गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनामु रथ त्यागेउ तबहीं॥1॥ भावार्थ:- भाई, मंत्री, गुरु और पुरवासियों को साथ लेकर श्री रघुनाथजी आगे (जनकजी की अगवानी में) चले। जनकजी ने ज्यों ह  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 276

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चौपाई :बोरति ग्यान बिराग करारे। बचन ससोक मिलत नद नारे॥सोच उसास समीर तरंगा। धीरज तट तरुबर कर भंगा॥1॥ भावार्थ:- यह करुणा की नदी (इतनी बढ़ी हुई है कि) ज्ञान-वैराग्य रूपी किनारों को डुबाती जाती है। शोक भरे वचन नद और नाले हैं, जो इस नदी मे  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 277

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चौपाई :जासु ग्यान रबि भव निसि नासा। बचन किरन मुनि कमल बिकासा॥तेहि कि मोह ममता निअराई। यह सिय राम सनेह बड़ाई॥1॥ भावार्थ:- जिन राजा जनक का ज्ञान रूपी सूर्य भव (आवागमन) रूपी रात्रि का नाश कर देता है और जिनकी वचन रूपी किरणें मुनि रूपी कम  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 278

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चौपाई :जे महिसुर दसरथ पुर बासी। जे मिथिलापति नगर निवासी॥हंस बंस गुर जनक पुरोधा। जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा॥1॥ भावार्थ:- जो दशरथजी की नगरी अयोध्या के रहने वाले और जो मिथिलापति जनकजी के नगर जनकपुर के रहने वाले ब्राह्मण थे तथा सूर्य  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 279

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चौपाई :कामद भे गिरि राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत बिषादा॥सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनँद अनुरागा॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी की कृपा से सब पर्वत मनचाही वस्तु देने वाले हो गए। वे देखने मात्र से ही दुःखों को सर्वथा हर लेते थे  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 280

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चौपाई :एहि बिधि बासर बीते चारी। रामु निरखि नर नारि सुखारी॥दुहु समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार चार दिन बीत गए। श्री रामचन्द्रजी को देखकर सभी नर-नारी सुखी हैं। दोनों समाजों के मन में ऐसी इच  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 281

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चौपाई :एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं॥सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईं॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार सब मनोरथ कर रहे हैं। उनके प्रेमयुक्त वचन सुनते ही (सुनने वालों के) मनों को हर लेते हैं। उसी समय सीताज  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 282

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चौपाई :सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा॥जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बालकेलि सम बिधि मति भोरी॥1॥ भावार्थ:- यह सुनकर देवी सुमित्राजी शोक के साथ कहने लगीं- विधाता की चाल बड़ी ही विपरीत और विचित्र है, जो सृष्टि को उ  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 283

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चौपाई :ईस प्रसाद असीस तुम्हारी। सुत सुतबधू देवसरि बारी॥राम सपथ मैं कीन्हि न काऊ। सो करि कहउँ सखी सति भाऊ॥1॥ भावार्थ:- ईश्वर के अनुग्रह और आपके आशीर्वाद से मेरे (चारों) पुत्र और (चारों) बहुएँ गंगाजी के जल के समान पवित्र हैं। हे सखी! म  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 284

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चौपाई :रानि राय सन अवसरु पाई। अपनी भाँति कहब समुझाई॥रखिअहिं लखनु भरतु गवनहिं बन। जौं यह मत मानै महीप मन॥1॥ भावार्थ:- हे रानी! मौका पाकर आप राजा को अपनी ओर से जहाँ तक हो सके समझाकर कहिएगा कि लक्ष्मण को घर रख लिया जाए और भरत वन को जाएँ  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 285

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चौपाई :लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनकप्रिया गह पाय पुनीता॥देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दसरथ घरिनि राम महतारी॥1॥ भावार्थ:- कौसल्याजी के प्रेम को देखकर और उनके विनम्र वचनों को सुनकर जनकजी की प्रिय पत्नी ने उनके पवित्र चरण पकड़ लिए   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 286

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चौपाई :प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही॥तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी॥1॥ भावार्थ:- जानकीजी अपने प्यारे कुटुम्बियों से- जो जिस योग्य था, उससे उसी प्रकार मिलीं। जानकीजी को तपस्विनी के वेष मे  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 287

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चौपाई :तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ पेमु परितोषु बिसेषी॥पुत्रि पबित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ॥1॥ भावार्थ:- सीताजी को तपस्विनी वेष में देखकर जनकजी को विशेष प्रेम और संतोष हुआ। (उन्होंने कहा-) बेटी! तूने दोनों कुल पवित्र क  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 288

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चौपाई :सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू। सोन सुगंध सुधा ससि सारू॥मूदे सजन नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन॥1॥ भावार्थ:- सोने में सुगंध और (समुद्र से निकली हुई) सुधा में चन्द्रमा के सार अमृत के समान भरतजी का व्यवहार सुनकर राजा ने (प्रे  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 289

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चौपाई :अगम सबहि बरनत बरबरनी। जिमि जलहीन मीन गमु धरनी॥भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी॥1॥ भावार्थ:- हे श्रेष्ठ वर्णवाली! भरतजी की महिमा का वर्णन करना सभी के लिए वैसे ही अगम है जैसे जलरहित पृथ्वी पर मछली का चलना।   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 290

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चौपाई :राम भरत गुन गनत सप्रीती। निसि दंपतिहि पलक सम बीती॥राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी और भरतजी के गुणों की प्रेमपूर्वक गणना करते (कहते-सुनते) पति-पत्नी को रात पलक के समान बीत गई। प्रात  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 291

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चौपाई :सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ॥जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू। जहँ नहिं राम प्रेम परधानू॥1॥ भावार्थ:- जहाँ श्री राम के चरण कमलों में प्रेम नहीं है, वह सुख, कर्म और धर्म जल जाए, जिसमें श्री राम प्रेम की प्रधानता न  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 292

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चौपाई :सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे। लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे॥सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं। आए इहाँ कीन्ह भल नाहीं॥1॥ भावार्थ:- मुनि वशिष्ठजी के वचन सुनकर जनकजी प्रेम में मग्न हो गए। उनकी दशा देखकर ज्ञान और वैराग्य को भी वैराग्य ह  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 293

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चौपाई :सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरतु धीर धरि भारी॥प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू॥1॥ भावार्थ:- भरतजी यह सुनकर पुलकित शरीर हो नेत्रों में जल भरकर बड़ा भारी धीरज धरकर बोले- हे प्रभो! आप हमारे पिता के सम  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 294

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चौपाई :भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ। सहित समाज सराहत राऊ॥सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे॥1॥ भावार्थ:- भरतजी के वचन सुनकर और उनका स्वभाव देखकर समाज सहित राजा जनक उनकी सराहना करने लगे। भरतजी के वचन सुगम और अगम, सुंदर, कोम  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 295

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चौपाई :सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही। देबि देव सरनागत पाही॥फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया॥1॥ भावार्थ:- देवताओं ने सरस्वती का स्मरण कर उनकी सराहना (स्तुति) की और कहा- हे देवी! देवता आपके शरणागत हैं, उनकी रक्षा कीज  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 296

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चौपाई :करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू॥गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा॥1॥ भावार्थ:- कुचाल करके देवराज इन्द्र सोचने लगे कि काम का बनना-बिगड़ना सब भरतजी के हाथ है। इधर राजा जनकजी (मुनि वशिष्ठ आदि के साथ) श  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 298

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चौपाई :प्रभु पितु मातु सुहृद गुर स्वामी। पूज्य परम हित अंतरजामी॥सरल सुसाहिबु सील निधानू। प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू॥1॥ भावार्थ:- हे प्रभु! आप पिता, माता, सुहृद् (मित्र), गुरु, स्वामी, पूज्य, परम हितैषी और अन्तर्यामी हैं। सरल हृदय, श्र  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 299

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चौपाई :राउरि रीति सुबानि बड़ाई। जगत बिदित निगमागम गाई॥कूर कुटिल खल कुमति कलंकी। नीच निसील निरीस निसंकी॥1॥ भावार्थ:- हे नाथ! आपकी रीति और सुंदर स्वभाव की बड़ाई जगत में प्रसिद्ध है और वेद-शास्त्रों ने गाई है। जो क्रूर, कुटिल, दुष्ट, कु  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 300

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चौपाई :सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ॥तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा॥1॥ भावार्थ:- मैं शोक से या स्नेह से या बालक स्वभाव से आज्ञा को बाएँ लाकर (न मानकर) चला आया, तो भी कृपालु स्वामी (आप) ने अपनी ओर देख  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 301

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चौपाई :प्रभु पद पदुम पराग दोहाई। सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई॥सो करि कहउँ हिए अपने की। रुचि जागत सोवत सपने की॥1॥ भावार्थ:- प्रभु (आप) के चरणकमलों की रज, जो सत्य, सुकृत (पुण्य) और सुख की सुहावनी सीमा (अवधि) है, उसकी दुहाई करके मैं अपने हृदय   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 302

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चौपाई :कपट कुचालि सीवँ सुरराजू। पर अकाज प्रिय आपन काजू॥काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती॥1॥ भावार्थ:- देवराज इन्द्र कपट और कुचाल की सीमा है। उसे पराई हानि और अपना लाभ ही प्रिय है। इन्द्र की रीति कौए के समान है। वह छल  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 303

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चौपाई :कृपासिंधु लखि लोग दुखारे। निज सनेहँ सुरपति छल भारे॥सभा राउ गुर महिसुर मंत्री। भरत भगति सब कै मति जंत्री॥1॥ भावार्थ:- कृपासिंधु श्री रामचन्द्रजी ने लोगों को अपने स्नेह और देवराज इन्द्र के भारी छल से दुःखी देखा। सभा, राजा ज  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 304

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चौपाई :भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ। लघु मति चापलता कबि छमहूँ॥कहत सुनत सति भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को॥1॥ भावार्थ:- भरतजी के स्वभाव का वर्णन वेदों के लिए भी सुगम नहीं है। (अतः) मेरी तुच्छ बुद्धि की चंचलता को कवि लोग क्षमा करें! भरत  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 305

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चौपाई :जानहु तात तरनि कुल रीती। सत्यसंध पितु कीरति प्रीती॥समउ समाजु लाज गुरजन की। उदासीन हित अनहित मन की॥1॥ भावार्थ:- हे तात! तुम सूर्यकुल की रीति को, सत्यप्रतिज्ञ पिताजी की कीर्ति और प्रीति को, समय, समाज और गुरुजनों की लज्जा (मर्य  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 306

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चौपाई :सहित समाज तुम्हार हमारा। घर बन गुर प्रसाद रखवारा॥मातु पिता गुर स्वामि निदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू॥1॥ भावार्थ:- गुरुजी का प्रसाद (अनुग्रह) ही घर में और वन में समाज सहित तुम्हारा और हमारा रक्षक है। माता, पिता, गुरु और स्वामी क  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 307

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चौपाई :सभा सकल सुनि रघुबर बानी। प्रेम पयोधि अमिअँ जनु सानी॥सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी॥1॥ भावार्थ:- श्री रघुनाथजी की वाणी सुनकर, जो मानो प्रेम रूपी समुद्र के (मंथन से निकले हुए) अमृत में सनी हुई थी, सारा समाज शिथि  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 308

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चौपाई :एकु मनोरथु बड़ मन माहीं। सभयँ सकोच जात कहि नाहीं॥कहहु तात प्रभु आयसु पाई। बोले बानि सनेह सुहाई॥1॥ भावार्थ:- मेरे मन में एक और बड़ा मनोरथ है, जो भय और संकोच के कारण कहा नहीं जाता। (श्री रामचन्द्रजी ने कहा-) हे भाई! कहो। तब प्रभु की  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 309

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चौपाई :धन्य भरत जय राम गोसाईं। कहत देव हरषत बरिआईं॥मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू। भरत बचन सुनि भयउ उछाहू॥1॥ भावार्थ:- ‘भरतजी धन्य हैं, स्वामी श्री रामजी की जय हो!’ ऐसा कहते हुए देवता बलपूर्वक (अत्यधिक) हर्षित होने लगे। भरतजी के वचन सुन  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 310

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चौपाई :भरत अत्रि अनुसासन पाई। जल भाजन सब दिए चलाई॥सानुज आपु अत्रि मुनि साधू। सहित गए जहँ कूप अगाधू॥1॥ भावार्थ:- भरतजी ने अत्रिमुनि की आज्ञा पाकर जल के सब पात्र रवाना कर दिए और छोटे भाई शत्रुघ्न, अत्रि मुनि तथा अन्य साधु-संतों सहित   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 311

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चौपाई :कहत धरम इतिहास सप्रीती। भयउ भोरु निसि सो सुख बीती॥नित्य निबाहि भरत दोउ भाई। राम अत्रि गुर आयसु पाई॥1॥ भावार्थ:- प्रेमपूर्वक धर्म के इतिहास कहते वह रात सुख से बीत गई और सबेरा हो गया। भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई नित्यक्रिया पूरी   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 312

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चौपाई :एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं। नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं॥पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा। खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार भरतजी वन में फिर रहे हैं। उनके नियम और प्रेम को देखकर मुनि भी सकुचा जाते हैं। पवित्र   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 313

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चौपाई :भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू। भरत भूमिसुर तेरहुति राजू॥भल दिन आजु जानि मन माहीं। रामु कृपाल कहत सकुचाहीं॥1॥ भावार्थ:- (अगले छठे दिन) सबेरे स्नान करके भरतजी, ब्राह्मण, राजा जनक और सारा समाज आ जुटा। आज सबको विदा करने के लिए अच्छा   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 314

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चौपाई :पुरजन परिजन प्रजा गोसाईं। सब सुचि सरस सनेहँ सगाईं॥राउर बदि भल भव दुख दाहू। प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू॥1॥ भावार्थ:- हे गोसाईं! आपके प्रेम और संबंध में अवधपुर वासी, कुटुम्बी और प्रजा सभी पवित्र और रस (आनंद) से युक्त हैं। आपके   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 315

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चौपाई :तात तुम्हारि मोरि परिजन की। चिंता गुरहि नृपहि घर बन की॥माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू। हमहि तुम्हहि सपनेहूँ न कलेसू॥1॥ भावार्थ:- हे तात! तुम्हारी, मेरी, परिवार की, घर की और वन की सारी चिंता गुरु वशिष्ठजी और महाराज जनकजी को है। हम  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 316

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चौपाई :राजधरम सरबसु एतनोई। जिमि मन माहँ मनोरथ गोई॥बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती। बिनु अधार मन तोषु न साँती॥1॥ भावार्थ:- राजधर्म का सर्वस्व (सार) भी इतना ही है। जैसे मन के भीतर मनोरथ छिपा रहता है। श्री रघुनाथजी ने भाई भरत को बहुत प्र  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 317

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चौपाई :सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी। अवधि आस सम जीवनि जी की॥नतरु लखन सिय राम बियोगा। हहरि मरत सब लोग कुरोगा॥1॥ भावार्थ:- वह कुचाल भी सबके लिए हितकर हो गई। अवधि की आशा के समान ही वह जीवन के लिए संजीवनी हो गई। नहीं तो (उच्चाटन न होता तो) लक्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 318

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चौपाई :जहाँ जनक गुरु गति मति भोरी। प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी॥बरनत रघुबर भरत बियोगू। सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू॥1॥ भावार्थ:- जहाँ जनकजी और गुरु वशिष्ठजी की बुद्धि की गति कुण्ठित हो, उस दिव्य प्रेम को प्राकृत (लौकिक) कहने में बड़ा द  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 319

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चौपाई :सानुज राम नृपहि सिर नाई। कीन्हि बहुत बिधि बिनय बड़ाई॥देव दया बस बड़ दुखु पायउ। सहित समाज काननहिं आयउ॥1॥ भावार्थ:- छोटे भाई लक्ष्मणजी समेत श्री रामजी ने राजा जनकजी को सिर नवाकर उनकी बहुत प्रकार से विनती और बड़ाई की (और कहा-) हे द  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 320

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चौपाई :परिजन मातु पितहि मिलि सीता। फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता॥करि प्रनामु भेंटीं सब सासू। प्रीति कहत कबि हियँ न हुलासू॥1॥ भावार्थ:- प्राणप्रिय पति श्री रामचंद्रजी के साथ पवित्र प्रेम करने वाली सीताजी नैहर के कुटुम्बियों से   ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 321

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चौपाई :बिदा कीन्ह सनमानि निषादू। चलेउ हृदयँ बड़ बिरह बिषादू॥कोल किरात भिल्ल बनचारी। फेरे फिरे जोहारि जोहारी॥1॥ भावार्थ:- फिर सम्मान करके निषादराज को विदा किया। वह चला तो सही, किन्तु उसके हृदय में विरह का भारी विषाद था। फिर श्री र  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 322

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चौपाई :मुनि महिसुर गुर भरत भुआलू। राम बिरहँ सबु साजु बिहालू।प्रभु गुन ग्राम गनत मन माहीं। सब चुपचाप चले मग जाहीं॥1॥ भावार्थ:- मुनि, ब्राह्मण, गुरु वशिष्ठजी, भरतजी और राजा जनकजी सारा समाज श्री रामचन्द्रजी के विरह में विह्वल है। प्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 323

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चौपाई :सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे। निज निज काज पाइ सिख ओधे॥पुनि सिख दीन्हि बोलि लघु भाई। सौंपी सकल मातु सेवकाई॥1॥ भावार्थ:- भरतजी ने मंत्रियों और विश्वासी सेवकों को समझाकर उद्यत किया। वे सब सीख पाकर अपने-अपने काम में लग गए। फिर छोटे  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 324

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चौपाई :राम मातु गुर पद सिरु नाई। प्रभु पद पीठ रजायसु पाई॥नंदिगाँव करि परन कुटीरा। कीन्ह निवासु धरम धुर धीरा॥1॥ भावार्थ:- फिर श्री रामजी की माता कौसल्याजी और गुरुजी के चरणों में सिर नवाकर और प्रभु की चरणपादुकाओं की आज्ञा पाकर धर्  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 325

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चौपाई :देह दिनहुँ दिन दूबरि होई। घटइ तेजु बलु मुखछबि सोई॥नित नव राम प्रेम पनु पीना। बढ़त धरम दलु मनु न मलीना॥1॥ भावार्थ:- भरतजी का शरीर दिनों-दिन दुबला होता जाता है। तेज (अन्न, घृत आदि से उत्पन्न होने वाला मेद*) घट रहा है। बल और मुख छबि  ......

अयोध्याकाण्ड दोहा 326

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चौपाई :पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू। जीह नामु जप लोचन नीरू॥लखन राम सिय कानन बसहीं। भरतु भवन बसि तप तनु कसहीं॥1॥ भावार्थ:- शरीर पुलकित है, हृदय में श्री सीता-रामजी हैं। जीभ राम नाम जप रही है, नेत्रों में प्रेम का जल भरा है। लक्ष्मणजी, श्  ......