Home / Articles / Search / Ayodhyakand
Showing 69 Search Results for : Ayodhyakand

अयोध्या काण्ड शुरुआत - श्लोक

Filed under: Ayodhyakand
श्रीगणेशायनमःश्रीजानकीवल्लभो विजयतेश्रीरामचरितमानसद्वितीय सोपानश्री अयोध्या काण्ड श्लोक :यस्यांके च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तकेभाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्व  ......

अयोध्याकांड दोहा 01

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥1॥ भावार्थ:- जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आए, तब से (अयोध्या में) नित्य नए मंगल हो रहे हैं और आनंद के बधावे बज रहे हैं। चौ  ......

अयोध्याकांड दोहा 02

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥1॥ भावार्थ:- एक समय रघुकुल के राजा दशरथजी अपने सारे समाज सहित राजसभा में विराजमान थे। महाराज समस्त पुण्यों की मूर्ति हैं, उन  ......

अयोध्याकांड दोहा 03

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक॥सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमार अरि मित्र उदासी॥1॥ भावार्थ:- राजा ने कहा- हे मुनिराज! (कृपया यह निवेदन) सुनिए। श्री रामचन्द्रजी अब सब प्रकार से सब योग्य हो गए हैं। सेवक, मंत्री,   ......

अयोध्याकांड दोहा 04

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी॥नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू॥1॥ भावार्थ:- अपने जी में गुरुजी को सब प्रकार से प्रसन्न जानकर, हर्षित होकर राजा कोमल वाणी से बोले- हे नाथ! श्री रा  ......

अयोध्याकांड दोहा 05

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए॥कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए॥1॥ भावार्थ:- राजा आनंदित होकर महल में आए और उन्होंने सेवकों को तथा मंत्री सुमंत्र को बुलवाया। उन लोगों ने ‘जय-जीव’ कहकर सिर नव  ......

अयोध्याकांड दोहा 06

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी॥औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना॥1॥ भावार्थ:- मुनिराज ने हर्षित होकर कोमल वाणी से कहा कि सम्पूर्ण श्रेष्ठ तीर्थों का जल ले आओ। फिर उन्होंने औषधि, मूल, फूल, फल और पत्र   ......

अयोध्याकांड दोहा 07

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा॥बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा॥1॥ भावार्थ:- मुनीश्वर ने जिसको जिस काम के लिए आज्ञा दी, उसने वह काम (इतनी शीघ्रता से कर डाला कि) मानो पहले से ही कर रखा   ......

अयोध्याकांड दोहा 08

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए॥प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं॥1॥ भावार्थ:- सबसे पहले (रनिवास में) जाकर जिन्होंने ये वचन (समाचार) सुनाए, उन्होंने बहुत से आभूषण और वस्त्र पाए। रानियों का   ......

अयोध्याकांड दोहा 09

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए॥गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा॥1॥ भावार्थ:- तब राजा ने वशिष्ठजी को बुलाया और शिक्षा (समयोचित उपदेश) देने के लिए श्री रामचन्द्रजी के महल में भेजा। गुरु का आगमन सुन  ......

अयोध्याकांड दोहा 10

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥1॥ भावार्थ:-  श्री रामचन्द्रजी के गुण, शील और स्वभाव का बखान कर, मुनिराज प्रेम से पुलकित होकर बोले- (हे रामचन्द्रजी!) राजा (  ......

अयोध्याकांड दोहा 11

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना॥भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं॥1॥ भावार्थ:- बहुत प्रकार के बाजे बज रहे हैं। नगर के अतिशय आनंद का वर्णन नहीं हो सकता। सब लोग भरतजी का आगमन मना रहे हैं   ......

अयोध्याकांड दोहा 12

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती॥देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी॥1॥ भावार्थ:- देवताओं की विनती सुनकर सरस्वतीजी खड़ी-खड़ी पछता रही हैं कि (हाय!) मैं कमलवन के लिए हेमंत ऋतु की रात हुई। उ  ......

अयोध्याकांड दोहा 13

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा॥पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू॥1॥ भावार्थ:- मंथरा ने देखा कि नगर सजाया हुआ है। सुंदर मंगलमय बधावे बज रहे हैं। उसने लोगों से पूछा कि कैसा उत्सव है? (उनसे) श्री रा  ......

अयोध्याकांड दोहा 14

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई॥रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू॥1॥ भावार्थ:- (वह कहने लगी-) हे माई! हमें कोई क्यों सीख देगा और मैं किसका बल पाकर गाल करूँगी (बढ़-बढ़कर बोलूँगी)। रामचन्द्र को छोड़क  ......

अयोध्याकांड दोहा 15

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही॥सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई॥1॥ भावार्थ:- (और फिर बोलीं-) हे प्रिय वचन कहने वाली मंथरा! मैंने तुझको यह सीख दी है (शिक्षा के लिए इतनी बात कही है)। मु  ......

अयोध्याकांड दोहा 16

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी॥फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा॥1॥ भावार्थ:- (मंथरा ने कहा-) सारी आशाएँ तो एक ही बार कहने में पूरी हो गईं। अब तो दूसरी जीभ लगाकर कुछ कहूँगी। मेरा अभागा कपाल तो फोड़न  ......

अयोध्याकांड दोहा 17

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही॥तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी॥1॥ भावार्थ:- बार-बार रानी उससे आदर के साथ पूछ रही है, मानो भीलनी के गान से हिरनी मोहित हो गई हो। जैसी भावी (होनहार) है, वैसी ही   ......

अयोध्याकांड दोहा 18

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी॥पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानब रउरें॥1॥ भावार्थ:- राम की माता (कौसल्या) बड़ी चतुर और गंभीर है (उसकी थाह कोई नहीं पाता)। उसने मौका पाकर अपनी बात बना ली। राजा ने जो भरत को न  ......

अयोध्याकांड दोहा 19

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई॥का पूँछहु तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना॥1॥ भावार्थ:- होनहार वश कैकेयी के मन में विश्वास हो गया। रानी फिर सौगंध दिलाकर पूछने लगी। (मंथरा बोली-) क्या पूछती हो? अर  ......

अयोध्याकांड दोहा 20

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी॥तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी॥1॥ भावार्थ:- कैकेयी मन्थरा की कड़वी वाणी सुनते ही डरकर सूख गई, कुछ बोल नहीं सकती। शरीर में पसीना हो आया और वह केले की तरह काँप  ......

अयोध्याकांड दोहा 21

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :नैहर जनमु भरब बरु जाई। जिअत न करबि सवति सेवकाई॥अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही॥1॥ भावार्थ:- मैं भले ही नैहर जाकर वहीं जीवन बिता दूँगी, पर जीते जी सौत की चाकरी नहीं करूँगी। दैव जिसको शत्रु के वश में रखकर जिलाता   ......

अयोध्याकांड दोहा 22

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई॥लखइ ना रानि निकट दुखु कैसें। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें॥1॥ भावार्थ:- कुबरी ने कैकेयी को (सब तरह से) कबूल करवाकर (अर्थात बलि पशु बनाकर) कपट रूप छुरी को अपने (कठोर) हृदय रूपी पत्थर पर ट  ......

अयोध्याकांड दोहा 23

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बुद्धि बखानी॥तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कई भइसि अधारा॥1॥ भावार्थ:- कुबरी को रानी ने प्राणों के समान प्रिय समझकर बार-बार उसकी बड़ी बुद्धि का बखान किया और बोली- संसार में मेरा तेरे   ......

अयोध्याकांड दोहा 24

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :बाल सखा सुनि हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं॥प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी के बाल सखा राजतिलक का समाचार सुनकर हृदय में हर्षित होते हैं। वे दस-पाँच मिलकर श  ......

अयोध्याकांड दोहा 25

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :कोपभवन सुनि सकुचेउ राऊ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ॥सुरपति बसइ बाहँबल जाकें। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥1॥ भावार्थ:- कोप भवन का नाम सुनकर राजा सहम गए। डर के मारे उनका पाँव आगे को नहीं पड़ता। स्वयं देवराज इन्द्र जिनकी भुजाओं के बल प  ......

अयोध्याकांड दोहा 26

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा॥कहु केहि रंकहि करौं नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥1॥ भावार्थ:- हे प्रिये! किसने तेरा अनिष्ट किया? किसके दो सिर हैं? यमराज किसको लेना (अपने लोक को ले जाना) चा  ......

अयोध्याकांड दोहा 27

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :पुनि कह राउ सुहृद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥1॥ भावार्थ:- अपने जी में कैकेयी को सुहृद् जानकर राजा दशरथजी प्रेम से पुलकित होकर कोमल और सुंदर वाणी से फिर बोले- हे भामिन  ......

अयोध्याकांड दोहा 28

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥थाती राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥1॥ भावार्थ:- राजा ने हँसकर कहा कि अब मैं तुम्हारा मर्म (मतलब) समझा। मान करना तुम्हें परम प्रिय है। तुमने उन वरों को थाती   ......

अयोध्याकांड दोहा 29

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥1॥ भावार्थ:- (वह बोली-) हे प्राण प्यारे! सुनिए, मेरे मन को भाने वाला एक वर तो दीजिए, भरत को राजतिलक और हे नाथ! दूसरा वर भी मैं हाथ जो  ......

अयोध्याकांड दोहा 30

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥भरतु कि राउर पूत न होंही। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार राजा मन ही मन झींख रहे हैं। राजा का ऐसा बुरा हाल देखकर दुर्बुद्धि कैकेयी मन में बुरी तरह से क्  ......

अयोध्याकांड दोहा 31

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :आगें दीखि जरत सिर भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई॥1॥ भावार्थ:- प्रचंड क्रोध से जलती हुई कैकेयी सामने इस प्रकार दिखाई पड़ी, मानो क्रोध रूपी तलवार नंगी (म्यान से बाहर) खड़ी हो। कुब  ......

अयोध्याकांड दोहा 32

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :राम सपथ सत कहउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥1॥ भावार्थ:- राम की सौ बार सौगंध खाकर मैं स्वभाव से ही कहता हूँ कि राम की माता (कौसल्या) ने (इस विषय में) मुझसे कभी कुछ नह  ......

अयोध्याकांड दोहा 33

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :जिऐ मीन बरु बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥1॥ भावार्थ:- मछली चाहे बिना पानी के जीती रहे और साँप भी चाहे बिना मणि के दीन-दुःखी होकर जीता रहे, परन्तु मैं स्वभाव से ह  ......

अयोध्याकांड दोहा 34

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी॥पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर कुटिल कैकेयी उठ खड़ी हुई, मानो क्रोध की नदी उमड़ी हो। वह नदी पाप रूपी पहाड़ से प्रकट हुई है और क्रोध रूपी   ......

अयोध्याकांड दोहा 35

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥1॥ भावार्थ:- राजा व्याकुल हो गए, उनका सारा शरीर शिथिल पड़ गया, मानो हथिनी ने कल्पवृक्ष को उखाड़ फेंका हो। कंठ सूख गया, मुख  ......

अयोध्याकांड दोहा 36

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें॥सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥ भावार्थ:- भरत तो भूलकर भी राजपद नहीं चाहते। होनहारवश तेरे ही जी में कुमति आ बसी। यह सब मेरे पापों का परिणाम है, जिससे कु  ......

अयोध्याकांड दोहा 37

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू॥हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई॥1॥ भावार्थ:- राजा ‘राम-राम’ रट रहे हैं और ऐसे व्याकुल हैं, जैसे कोई पक्षी पंख के बिना बेहाल हो। वे अपने हृदय में मनाते हैं कि सबे  ......

अयोध्याकांड दोहा 38

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा॥जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥1॥ भावार्थ:- राजा नित्य ही रात के पिछले पहर जाग जाया करते हैं, किन्तु आज हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा है। हे सुमंत्र! जाओ, जाकर राजा  ......

अयोध्याकांड दोहा 39

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥चलेउ सुमंत्रु राय रुख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥1॥ भावार्थ:- तुम जल्दी राम को बुला लाओ। तब आकर समाचार पूछना। राजा का रुख जानकर सुमंत्रजी चले, समझ गए कि रानी ने कुछ कुचाल क  ......

अयोध्याकांड दोहा 40

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू॥सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरीं गनि लेई॥1॥ भावार्थ:- राजा के होठ सूख रहे हैं और सारा शरीर जल रहा है, मानो मणि के बिना साँप दुःखी हो रहा हो। पास ही क्रोध से भरी कैकेयी को   ......

अयोध्याकांड दोहा 41

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी॥जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥1॥ भावार्थ:- कैकेयी बेधड़क बैठी ऐसी कड़वी वाणी कह रही है, जिसे सुनकर स्वयं कठोरता भी अत्यन्त व्याकुल हो उठी। जीभ धनुष है, वचन ब  ......

अयोध्याकांड दोहा 42

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू॥जौं न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥1॥ भावार्थ:- और प्राण प्रिय भरत राज्य पावेंगे। (इन सभी बातों को देखकर यह प्रतीत होता है कि) आज विधाता सब प्रकार से   ......

अयोध्याकांड दोहा 43

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मैं कछु जाना॥1॥ भावार्थ:- रानी कैकेयी श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर हर्षित हो गई और कपटपूर्ण स्नेह दिखाकर बोली- तुम्हारी शपथ और भरत की सौगंध है, म  ......

अयोध्याकांड दोहा 44

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे॥सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे॥1॥ भावार्थ:- जब राजा ने सुना कि श्री रामचन्द्र पधारे हैं तो उन्होंने धीरज धरके नेत्र खोले। मंत्री ने संभालकर राजा को बैठाय  ......

अयोध्याकांड दोहा 45

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौं बरु सुरपुरु जाऊ॥सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही॥1॥ भावार्थ:- जगत में चाहे अपयश हो और सुयश नष्ट हो जाए। चाहे (नया पाप होने से) मैं नरक में गिरूँ, अथवा स्वर्ग चला जाए (पूर्व पुण्य  ......

अयोध्याकांड दोहा 46

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥1॥ भावार्थ:- (उन्होंने फिर कहा-) इस पृथ्वीतल पर उसका जन्म धन्य है, जिसके चरित्र सुनकर पिता को परम आनंद हो, जिसको माता-  ......

अयोध्याकांड दोहा 47

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकइहि गारी॥एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥1॥ भावार्थ:- सब मेल मिल गए थे (सब संयोग ठीक हो गए थे), इतने में ही विधाता ने बात बिगाड़ दी! जहाँ-तहाँ लोग कैकेयी को गाली दे रह  ......

अयोध्याकांड दोहा 48

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा॥एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा॥1॥ भावार्थ:- विधाता ने क्या सुनाकर क्या सुना दिया और क्या दिखाकर अब वह क्या दिखाना चाहता है! एक कहते हैं कि राजा ने अच  ......

अयोध्याकांड दोहा 49

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :एक बिधातहि दूषनु देहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं॥खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू॥1॥ भावार्थ:- कोई एक विधाता को दोष देते हैं, जिसने अमृत दिखाकर विष दे दिया। नगर भर में खलबली मच गई, सब किसी को सोच हो गया। हृद  ......

अयोध्याकांड दोहा 50

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू॥भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥1॥ भावार्थ:- हृदय में ऐसा विचार कर क्रोध छोड़ दो, शोक और कलंक की कोठी मत बनो। भरत को अवश्य युवराजपद दो, पर श्री रामचंद्रजी का वन में   ......

अयोध्याकांड दोहा 51

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :उतरु न देइ दुसह रिस रूखी। मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी॥ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी। चलीं कहत मतिमंद अभागी॥1॥ भावार्थ:- कैकेयी कोई उत्तर नहीं देती, वह दुःसह क्रोध के मारे रूखी (बेमुरव्वत) हो रही है। ऐसे देखती है मानो भूख  ......

अयोध्याकांड दोहा 52

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा॥दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे॥1॥ भावार्थ:- रघुकुल तिलक श्री रामचंद्रजी ने दोनों हाथ जोड़कर आनंद के साथ माता के चरणों में सिर नवाया। माता ने आशीर्वाद द  ......

अयोध्याकांड दोहा 53

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :तात जाउँ बलि बेगि नाहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू॥पितु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ॥1॥ भावार्थ:- हे तात! मैं बलैया लेती हूँ, तुम जल्दी नहा लो और जो मन भावे, कुछ मिठाई खा लो। भैया! तब पिता के पास जाना। बहुत देर हो गई ह  ......

अयोध्याकांड दोहा 54

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :बचन बिनीत मधुर रघुबर के। सर सम लगे मातु उर करके॥सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी। जिमि जवास परें पावस पानी॥1॥ भावार्थ:- रघुकुल में श्रेष्ठ श्री रामजी के ये बहुत ही नम्र और मीठे वचन माता के हृदय में बाण के समान लगे और कसकने लगे। उस श  ......

अयोध्याकांड दोहा 55

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू॥लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू॥1॥ भावार्थ:- न रख ही सकती हैं, न यह कह सकती हैं कि वन चले जाओ। दोनों ही प्रकार से हृदय में बड़ा भारी संताप हो रहा है। (मन में सो  ......

अयोध्याकांड दोहा 56

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता॥जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना॥1॥ भावार्थ:- हे तात! यदि केवल पिताजी की ही आज्ञा, हो तो माता को (पिता से) बड़ी जानकर वन को मत जाओ, किन्तु यदि पिता-माता दोनों ने वन  ......

अयोध्याकांड दोहा 57

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :देव पितर सब तुम्हहि गोसाईं। राखहुँ पलक नयन की नाईं॥अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना॥1॥ भावार्थ:- हे गोसाईं! सब देव और पितर तुम्हारी वैसी ही रक्षा करें, जैसे पलकें आँखों की रक्षा करती हैं। तुम्हारे वनवा  ......

अयोध्याकांड दोहा 58

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :दीन्हि असीस सासु मृदु बानी। अति सुकुमारि देखि अकुलानी॥बैठि नमित मुख सोचति सीता। रूप रासि पति प्रेम पुनीता॥1॥ भावार्थ:- सास ने कोमल वाणी से आशीर्वाद दिया। वे सीताजी को अत्यन्त सुकुमारी देखकर व्याकुल हो उठीं। रूप की राशि औ  ......

अयोध्याकांड दोहा 59

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई:मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई॥नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई॥1॥ भावार्थ:- फिर मैंने रूप की राशि, सुंदर गुण और शीलवाली प्यारी पुत्रवधू पाई है। मैंने इन (जानकी) को आँखों की पुतली बन  ......

अयोध्याकांड दोहा 60

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :बन हित कोल किरात किसोरी। रचीं बिरंचि बिषय सुख भोरी॥पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ॥1॥ भावार्थ:- वन के लिए तो ब्रह्माजी ने विषय सुख को न जानने वाली कोल और भीलों की लड़कियों को रचा है, जिनका पत्थर के कीड़े जै  ......

अयोध्याकांड दोहा 61

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन माहीं॥राजकुमारि सिखावनु सुनहू। आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू॥1॥ भावार्थ:- माता के सामने सीताजी से कुछ कहने में सकुचाते हैं। पर मन में यह समझकर कि यह समय ऐसा ही है, वे बोले- हे राजकुमार  ......

अयोध्याकांड दोहा 62

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी॥दिवस जात नहिं लागिहि बारा। सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा॥1॥ भावार्थ:- हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो, मैं भी पिता के वचन को सत्य करके शीघ्र ही लौटूँगा। दिन जाते देर नहीं लगे  ......

अयोध्याकांड दोहा 63

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट बेष बिधि कोटिक करहीं॥लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी॥1॥ भावार्थ:- मनुष्यों को खाने वाले निशाचर (राक्षस) फिरते रहते हैं। वे करोड़ों प्रकार के कपट रूप धारण कर लेते हैं। पहाड़ का पानी   ......

अयोध्याकांड दोहा 64

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के। लोचन ललित भरे जल सिय के॥सीतल सिख दाहक भइ कैसें। चकइहि सरद चंद निसि जैसें॥1॥ भावार्थ:- प्रियतम के कोमल तथा मनोहर वचन सुनकर सीताजी के सुंदर नेत्र जल से भर गए। श्री रामजी की यह शीतल सीख उनको कैसी जला  ......

अयोध्याकांड दोहा 65

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :मातु पिता भगिनी प्रिय भाई। प्रिय परिवारु सुहृदय समुदाई॥सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर सुसील सुखदाई॥1॥ भावार्थ:- माता, पिता, बहिन, प्यारा भाई, प्यारा परिवार, मित्रों का समुदाय, सास, ससुर, गुरु, स्वजन (बन्धु-बांधव), सहायक और   ......

अयोध्याकांड दोहा 66

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :बनदेबीं बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम सारा॥कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई॥1॥ भावार्थ:- उदार हृदय के वनदेवी और वनदेवता ही सास-ससुर के समान मेरी सार-संभार करेंगे और कुशा और पत्तों की सुंदर साथरी (बिछौन  ......

अयोध्याकांड दोहा 67

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी॥सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं॥1॥ भावार्थ:- क्षण-क्षण में आपके चरण कमलों को देखते रहने से मुझे मार्ग चलने में थकावट न होगी। हे प्रियतम! मैं सभी प्रक  ......

अयोध्याकांड दोहा 68

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :अस कहि सीय बिकल भइ भारी। बचन बियोगु न सकी सँभारी॥देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें नहिं राखिहि प्राना॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर सीताजी बहुत ही व्याकुल हो गईं। वे वचन के वियोग को भी न सम्हाल सकीं। (अर्थात शरीर से वियोग की बात   ......