लंका काण्ड दोहा 77
चौपाई :
बिनु प्रयास हनुमान उठायो। लंका द्वार राखि पुनि आयो॥
तासु मरन सुनि सुर गंधर्बा। चढ़ि बिमान आए नभ सर्बा॥1॥
भावार्थ:- हनुमान्जी ने उसको बिना ही परिश्रम के उठा लिया और लंका के दरवाजे पर रखकर वे लौट आए। उसका मरना सुनकर देवता और गंधर्व आदि सब विमानों पर चढ़कर आकाश में आए॥1॥
बरषि सुमन दुंदुभीं बजावहिं। श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं॥
जय अनंत जय जगदाधारा। तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा॥2॥
भावार्थ:- वे फूल बरसाकर नगाड़े बजाते हैं और श्री रघुनाथजी का निर्मल यश गाते हैं। हे अनन्त! आपकी जय हो, हे जगदाधार! आपकी जय हो। हे प्रभो! आपने सब देवताओं का (महान् विपत्ति से) उद्धार किया॥2॥
अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए। लछिमन कृपासिंधु पहिं आए॥
सुत बध सुना दसानन जबहीं। मुरुछित भयउ परेउ महि तबहीं॥3॥
भावार्थ:- देवता और सिद्ध स्तुति करके चले गए, तब लक्ष्मणजी कृपा के समुद्र श्री रामजी के पास आए। रावण ने ज्यों ही पुत्रवध का समाचार सुना, त्यों ही वह मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा॥3॥
मंदोदरी रुदन कर भारी। उर ताड़न बहु भाँति पुकारी॥
रनगर लोग सब ब्याकुल सोचा। सकल कहहिं दसकंधर पोचा॥4॥
भावार्थ:- मंदोदरी छाती पीट-पीटकर और बहुत प्रकार से पुकार-पुकारकर बड़ा भारी विलाप करने लगी। नगर के सब लोग शोक से व्याकुल हो गए। सभी रावण को नीच कहने लगे॥4॥
दोहा :
तब दसकंठ बिबिधि बिधि समुझाईं सब नारि।
नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि॥77॥
भावार्थ:- तब रावण ने सब स्त्रियों को अनेकों प्रकार से समझाया कि समस्त जगत् का यह (दृश्य)रूप नाशवान् है, हृदय में विचारकर देखो॥77॥
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