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बालकांड दोहा 115


चौपाई :

अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकुर मन लागी॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥1॥

भावार्थ:- जो अज्ञानी, मूर्ख, अंधे और भाग्यहीन हैं और जिनके मन रूपी दर्पण पर विषय रूपी काई जमी हुई है, जो व्यभिचारी, छली और बड़े कुटिल हैं और जिन्होंने कभी स्वप्न में भी संत समाज के दर्शन नहीं किए॥1॥

कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥2॥

भावार्थ:- और जिन्हें अपने लाभ-हानि नहीं सूझती, वे ही ऐसी वेदविरुद्ध बातें कहा करते हैं, जिनका हृदय रूपी दर्पण मैला है और जो नेत्रों से हीन हैं, वे बेचारे श्री रामचन्द्रजी का रूप कैसे देखें!॥2॥

जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥3॥

भावार्थ:- जिनको निर्गुण-सगुण का कुछ भी विवेक नहीं है, जो अनेक मनगढ़ंत बातें बका करते हैं, जो श्री हरि की माया के वश में होकर जगत में (जन्म-मृत्यु के चक्र में) भ्रमते फिरते हैं, उनके लिए कुछ भी कह डालना असंभव नहीं है॥3॥

बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना॥4॥

भावार्थ:- जिन्हें वायु का रोग (सन्निपात, उन्माद आदि) हो गया हो, जो भूत के वश हो गए हैं और जो नशे में चूर हैं, ऐसे लोग विचारकर वचन नहीं बोलते। जिन्होंने महामोह रूपी मदिरा पी रखी है, उनके कहने पर कान नहीं देना चाहिए॥4॥

सोरठा :

अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥115॥

भावार्थ:- अपने हृदय में ऐसा विचार कर संदेह छोड़ दो और श्री रामचन्द्रजी के चरणों को भजो। हे पार्वती! भ्रम रूपी अंधकार के नाश करने के लिए सूर्य की किरणों के समान मेरे वचनों को सुनो!॥115॥

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