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बालकांड दोहा 220


चौपाई :

देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥
धाए धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रंक निधि लूटन लागी॥1॥

भावार्थ:- जब पुरवासियों ने यह समाचार पाया कि दोनों राजकुमार नगर देखने के लिए आए हैं, तब वे सब घर-बार और सब काम-काज छोड़कर ऐसे दौड़े मानो दरिद्री (धन का) खजाना लूटने दौड़े हों॥1॥

निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥2॥

भावार्थ:- स्वभाव ही से सुंदर दोनों भाइयों को देखकर वे लोग नेत्रों का फल पाकर सुखी हो रहे हैं। युवती स्त्रियाँ घर के झरोखों से लगी हुई प्रेम सहित श्री रामचन्द्रजी के रूप को देख रही हैं॥2॥

कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥3॥

भावार्थ:- वे आपस में बड़े प्रेम से बातें कर रही हैं- हे सखी! इन्होंने करोड़ों कामदेवों की छबि को जीत लिया है। देवता, मनुष्य, असुर, नाग और मुनियों में ऐसी शोभा तो कहीं सुनने में भी नहीं आती॥3॥

बिष्नु चारि भुज बिधि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥
अपर देउ अस कोउ ना आही। यह छबि सखी पटतरिअ जाही॥4॥

भावार्थ:- भगवान विष्णु के चार भुजाएँ हैं, ब्रह्माजी के चार मुख हैं, शिवजी का विकट (भयानक) वेष है और उनके पाँच मुँह हैं। हे सखी! दूसरा देवता भी कोई ऐसा नहीं है, जिसके साथ इस छबि की उपमा दी जाए॥4॥

दोहा :

बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख धाम।
अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥220॥

भावार्थ:- इनकी किशोर अवस्था है, ये सुंदरता के घर, साँवले और गोरे रंग के तथा सुख के धाम हैं। इनके अंग-अंग पर करोड़ों-अरबों कामदेवों को निछावर कर देना चाहिए॥220॥

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