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सुंदरकांड की शुरुआत - श्लोक

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श्रीगणेशायनमःश्रीजानकीवल्लभो विजयतेश्रीरामचरितमानसपञ्चम सोपानश्री सुन्दर काण्डश्लोक :  शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदंब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।रामाख्यं जगदीश्वरं सुरग  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 01

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चौपाई :जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥1॥भावार्थ:-जाम्बवान्‌ के सुंदर वचन सुनकर हनुमान्‌जी के हृदय को बहुत ही भाए। (वे बोले-) हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द-मूल-फल ख  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 02

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चौपाई :जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥1॥भावार्थ:- देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान्‌जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए (परीक्षार्थ) उन्हों  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 03

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चौपाई : निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥1॥भावार्थ:- समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव-जं  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 04

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चौपाई :मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥1॥भावार्थ:- हनुमान्‌जी मच्छड़ के समान (छोटा सा) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके लंका को   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 05

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चौपाई :प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥1॥भावार्थ:- अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथजी को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जा  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 06

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चौपाई :लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥भावार्थ:- लंका तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान है। यहाँ सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहाँ? हनुमान्‌जी मन में इस प्रकार तर  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 07

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चौपाई :सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥1॥भावार्थ:- (विभीषणजी ने कहा-) हे पवनपुत्र! मेरी रहनी सुनो। मैं यहाँ वैसे ही रहता हूँ जैसे दाँतों के बीच में बेचारी   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 08

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चौपाई :जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥1॥भावार्थ:- जो जानते हुए भी ऐसे स्वामी (श्री रघुनाथजी) को भुलाकर (विषयों के पीछे) भटकते फिरते हैं, वे दुःखी क्यों   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 09

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चौपाई :तरु पल्लव महँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई॥तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा॥1॥भावार्थ:- हनुमान्‌जी वृक्ष के पत्तों में छिप रहे और विचार करने लगे कि हे भाई! क्या करूँ (इनका दुःख कैसे दूर करूँ)? उसी समय बहुत स  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 10

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चौपाई :सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना॥नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी॥1॥भावार्थ:- सीता! तूने मेरा अपनाम किया है। मैं तेरा सिर इस कठोर कृपाण से काट डालूँगा। नहीं तो (अब भी) जल्दी मेरी बात मान ले।   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 11

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चौपाई :त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका॥सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना॥1॥भावार्थ:- उनमें एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी। उसकी श्री रामचंद्रजी के चरणों में प्रीति थी और वह विवेक (ज्ञान) में निपुण थ  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 12

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चौपाई :त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी। मातु बिपति संगिनि तैं मोरी॥तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥1॥भावार्थ:- सीताजी हाथ जोड़कर त्रिजटा से बोलीं- हे माता! तू मेरी विपत्ति की संगिनी है। जल्दी कोई ऐसा उपाय कर जिससे मैं शर  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 13

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चौपाई :तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर॥चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥1॥भावार्थ:- तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर अँगूठी देखी। अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 14

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चौपाई :हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी। सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥बूड़त बिरह जलधि हनुमाना। भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥1॥भावार्थ:- भगवान का जन (सेवक) जानकर अत्यंत गाढ़ी प्रीति हो गई। नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुल  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 15

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चौपाई :कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू॥1॥भावार्थ:- (हनुमान्‌जी बोले-) श्री रामचंद्रजी ने कहा है कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए हैं  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 16

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चौपाई :जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलंबु रघुराई॥राम बान रबि उएँ जानकी। तम बरुथ कहँ जातुधान की॥1॥भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी ने यदि खबर पाई होती तो वे बिलंब न करते। हे जानकीजी! रामबाण रूपी सूर्य के उदय होने पर राक्षसों की सेन  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 17

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चौपाई :मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी॥आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना॥1॥भावार्थ:- भक्ति, प्रताप, तेज और बल से सनी हुई हनुमान्‌जी की वाणी सुनकर सीताजी के मन में संतोष हुआ। उन्होंने श्री रामजी के प्  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 18

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चौपाई :चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥1॥भावार्थ:- वे सीताजी को सिर नवाकर चले और बाग में घुस गए। फल खाए और वृक्षों को तोड़ने लगे। वहाँ बहुत से योद्धा रखवाले थे। उनम  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 19

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चौपाई :सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना॥मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥1॥भावार्थ:- पुत्र का वध सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और उसने (अपने जेठे पुत्र) बलवान्‌ मेघनाद को भेजा। (उससे कहा कि-) हे पुत्र! मार  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 20

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चौपाई :ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा॥तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥1॥भावार्थ:- उसने हनुमान्‌जी को ब्रह्मबाण मारा, (जिसके लगते ही वे वृक्ष से नीचे गिरपड़े), परंतु गिरते समय भी उन्होंने   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 21

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चौपाई :कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असंक सठ तोही॥1॥भावार्थ:- लंकापति रावण ने कहा- रे वानर! तू कौन है? किसके बल पर तूने वन को उजाड़कर नष्ट कर डाला? क्या तूने कभी मुझे (मेरा ना  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 22

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चौपाई :जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई॥समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥1॥भावार्थ:- मैं तुम्हारी प्रभुता को खूब जानता हूँ सहस्रबाहु से तुम्हारी लड़ाई हुई थी और बालि से युद्ध करके तुमने यश प्र  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 23

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चौपाई :राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥1॥भावार्थ:- तुम श्री रामजी के चरण कमलों को हृदय में धारण करो और लंका का अचल राज्य करो। ऋषि पुलस्त्यजी का यश निर्मल चंद्  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 24

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चौपाई :जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥1॥भावार्थ:- यद्यपि हनुमान्‌जी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीति से सनी हुई बहुत ही हित की वाणी कही, तो भी वह महान्‌ अभिमा  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 25

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चौपाई :पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई। देखउ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥1॥भावार्थ:- जब बिना पूँछ का यह बंदर वहाँ (अपने स्वामी के पास) जाएगा, तब यह मूर्ख अपने मालिक को साथ ले आएगा। जिनकी इसने बह  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 26

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चौपाई :देह बिसाल परम हरुआई। मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई॥जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला॥1॥भावार्थ:- देह बड़ी विशाल, परंतु बहुत ही हल्की (फुर्तीली) है। वे दौड़कर एक महल से दूसरे महल पर चढ़ जाते हैं। नगर जल रहा है लोग बेहाल हो   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 27

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चौपाई :मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥1॥भावार्थ:- (हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिए, जैसे श्रीरघुनाथजी ने मुझे दिया था। तब सीताजी ने चूड़ामणि   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 28

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चौपाई :चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥नाघि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥1॥भावार्थ:- चलते समय उन्होंने महाध्वनि से भारी गर्जन किया, जिसे सुनकर राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिरने लगे।  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 29

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चौपाई :जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि काई॥एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा॥1॥भावार्थ:- यदि सीताजी की खबर न पाई होती तो क्या वे मधुवन के फल खा सकते थे? इस प्रकार राजा सुग्रीव मन में विचार कर ही रहे थे कि समा  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 30

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चौपाई :जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥1॥भावार्थ:- जाम्बवान्‌ ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए। हे नाथ! जिस पर आप दया करते हैं, उसे सदा कल्याण और निरंतर कुशल है। देवता,   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 31

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चौपाई :चलत मोहि चूड़ामनि दीन्हीं। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥1॥भावार्थ:- चलते समय उन्होंने मुझे चूड़ामणि (उतारकर) दी। श्री रघुनाथजी ने उसे लेकर हृदय से लगा लिया। (हनुमान्‌जी ने फिर क  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 32

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चौपाई :सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना॥बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥1॥भावार्थ:- सीताजी का दुःख सुनकर सुख के धाम प्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया (और वे बोले-) मन, वचन और शरीर से जिसे मेरी ही ग  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 33

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चौपाई :बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥1॥भावार्थ:- प्रभु उनको बार-बार उठाना चाहते हैं, परंतु प्रेम में डूबे हुए हनुमान्‌जी को चरणों से उठना सुहाता नहीं। प्रभु   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 34

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चौपाई :नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥1॥भावार्थ:- हे नाथ! मुझे अत्यंत सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिए। हनुमान्‌जी की अत्यंत सरल वाणी सुनकर, हे भवानी!  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 35

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चौपाई :प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना॥1॥भावार्थ:- वे प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाते हैं। महान्‌ बलवान्‌ रीछ और वानर गरज रहे हैं। श्री रामजी ने वानरों की सारी से  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 36

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चौपाई :उहाँ निसाचर रहहिं ससंका। जब तें जारि गयउ कपि लंका॥निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा।1॥भावार्थ:- वहाँ (लंका में) जब से हनुमान्‌जी लंका को जलाकर गए, तब से राक्षस भयभीत रहने लगे। अपने-अपने घरों में सब विचार   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 37

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चौपाई :श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥सभय सुभाउ नारि कर साचा। मंगल महुँ भय मन अति काचा॥1॥भावार्थ:- मूर्ख और जगत प्रसिद्ध अभिमानी रावण कानों से उसकी वाणी सुनकर खूब हँसा (और बोला-) स्त्रियों का स्वभाव सचमुच ही बहुत  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 38

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चौपाई :सोइ रावन कहुँ बनी सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥1॥भावार्थ:- रावण के लिए भी वही सहायता (संयोग) आ बनी है। मंत्री उसे सुना-सुनाकर (मुँह पर) स्तुति करते हैं। (इसी समय) अवसर जानकर   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 39

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चौपाई :तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥1॥भावार्थ:- हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं। वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। वे (संपूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्र  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 40

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चौपाई :माल्यवंत अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना॥तात अनुज तव नीति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥1॥भावार्थ:- माल्यवान्‌ नाम का एक बहुत ही बुद्धिमान मंत्री था। उसने उन (विभीषण) के वचन सुनकर बहुत सुख माना (और कहा-) हे तात! आप  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 41

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चौपाई :बुध पुरान श्रुति संमत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी॥सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहिं निकट मृत्यु अब आई॥1॥भावार्थ:- विभीषण ने पंडितों, पुराणों और वेदों द्वारा सम्मत (अनुमोदित) वाणी से नीति बखानकर कही। पर उसे सुनते ही रावण क्रोधि  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 42

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चौपाई :अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयू हीन भए सब तबहीं॥साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥1॥भावार्थ:- ऐसा कहकर विभीषणजी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए। (उनकी मृत्यु निश्चित हो गई)। (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! स  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 43

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चौपाई :ऐहि बिधि करत सप्रेम बिचारा। आयउ सपदि सिंदु एहिं पारा॥कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥1॥भावार्थ:- इस प्रकार प्रेमसहित विचार करते हुए वे शीघ्र ही समुद्र के इस पार (जिधर श्री रामचंद्रजी की सेना थी) आ गए। वानर  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 44

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चौपाई :कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥1॥भावार्थ:- जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहींत्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 45

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चौपाई :सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानंद दान के दाता॥1॥भावार्थ:- विभीषणजी को आदर सहित आगे करके वानर फिर वहाँ चले, जहाँ करुणा की खान श्री रघुनाथजी थे। नेत्रों को आनंद का दान देने व  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 46

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चौपाई :अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥1॥भावार्थ:- प्रभु ने उन्हें ऐसा कहकर दंडवत्‌ करते देखा तो वे अत्यंत हर्षित होकर तुरंत उठे। विभीषणजी के दीन वचन सुनने पर   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 47

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चौपाई :तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना॥जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा॥1॥भावार्थ:- लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद और मान आदि अनेकों दुष्ट तभी तक हृदय में बसते हैं, जब तक कि धनुष-बाण और कमर में तरकस धारण किए हुए श्  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 48

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चौपाई :सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही॥1॥भावार्थ:- (श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूँ, जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती है  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 49

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चौपाई :सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥।राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥1॥भावार्थ:- हे लंकापति! सुनो, तुम्हारे अंदर उपर्युक्त सब गुण हैं। इससे तुम मुझे अत्यंत ही प्रिय हो। श्री रामजी के वचन   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 50

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चौपाई :अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना। ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥1॥भावार्थ:- ऐसे परम कृपालु प्रभु को छोड़कर जो मनुष्य दूसरे को भजते हैं, वे बिना सींग-पूँछ के पशु हैं। अपना सेवक जानक  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 51

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चौपाई :सखा कही तुम्ह नीति उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई।मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा॥1॥भावार्थ:- (श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया। यही किया जाए, यदि दैव सहायक हों। यह सलाह लक्ष्मणजी के मन को अच्छी  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 52

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चौपाई :प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥1॥भावार्थ:- फिर वे प्रकट रूप में भी अत्यंत प्रेम के साथ श्री रामजी के स्वभाव की बड़ाई करने लगे उन्हें दुराव (कपट वेश) भूल   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 53

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चौपाई :तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा॥कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥1॥भावार्थ:- लक्ष्मणजी के चरणों में मस्तक नवाकर, श्री रामजी के गुणों की कथा वर्णन करते हुए दूत तुरंत ही चल दिए। श्री रामजी का यश कहते हु  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 54

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चौपाई :नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥1॥भावार्थ:- (दूत ने कहा-) हे नाथ! आपने जैसे कृपा करके पूछा है, वैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिए (मेरी बात पर विश्वास  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 55

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चौपाई :ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥1॥भावार्थ:- ये सब वानर बल में सुग्रीव के समान हैं और इनके जैसे (एक-दो नहीं) करोड़ों हैं, उन बहुत सो को गिन ही कौन सकता ह  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 56

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चौपाई :राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई॥सक सर एक सोषि सत सागर। तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥1॥भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी के तेज (सामर्थ्य), बल और बुद्धि की अधिकता को लाखों शेष भी नहीं गा सकते। वे एक ही बाण से सैकड़ों समुद्र  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 57

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चौपाई :सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई॥भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा॥1॥भावार्थ:- पत्रिका सुनते ही रावण मन में भयभीत हो गया, परंतु मुख से (ऊपर से) मुस्कुराता हुआ वह सबको सुनाकर कहने लगा- जैसे कोई पृथ्वी पर  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 58

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चौपाई :लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥1॥भावार्थ:- हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंज  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 59

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चौपाई :सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥1॥भावार्थ:- समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 60

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चौपाई :नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं रिषि आसिष पाई॥तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥1॥भावार्थ:-  (समुद्र ने कहा)) हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आशीर्वाद पाया था। उनके स्प  ......