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Showing 47 Search Results for : Aranyakand

अरण्यकाण्ड शूरूआत श्लोक

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श्लोक : मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददंवैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्‌।मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शंकरंवंदे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्री रामभूपप्रियम्‌॥1॥ भावार्थ:- धर्म रूपी वृक्ष   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 01

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चौपाई :पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई॥अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन॥1॥ भावार्थ:- पुरवासियों के और भरतजी के अनुपम और सुंदर प्रेम का मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार गान किया। अब देवता, मनुष्य   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 02

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चौपाई :प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा॥धरि निज रूप गयउ पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीं॥1॥ भावार्थ:- मंत्र से प्रेरित होकर वह ब्रह्मबाण दौड़ा। कौआ भयभीत होकर भाग चला। वह अपना असली रूप धरकर पिता इन्द्र के   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 3

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चौपाई :रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना॥बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना॥1॥ भावार्थ : अमृत के समान (प्रिय) हैं। फिर (कुछ समय पश्चात) श्री रामजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि मुझे सब लोग जान गए है  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 4

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छन्द :नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं॥1॥ भावार्थ:- हे भक्त वत्सल! हे कृपालु! हे कोमल स्वभाव वाले! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निष्काम पुरुषों को अपना परमधाम देने वाले आपके चरण कमलों को मै  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 05

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चौपाई :अनुसुइया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील बिनीता॥रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई॥1॥ भावार्थ:- फिर परम शीलवती और विनम्र श्री सीताजी अनसूयाजी (आत्रिजी की पत्नी) के चरण पकड़कर उनसे मिलीं। ऋषि पत्नी के मन में बड़  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 06

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चौपाई :सुनि जानकीं परम सुखु पावा। सादर तासु चरन सिरु नावा॥तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना॥1॥ भावार्थ:- जानकीजी ने सुनकर परम सुख पाया और आदरपूर्वक उनके चरणों में सिर नवाया। तब कृपा की खान श्री रामजी ने मुनि से कहा- आज्  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 07

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चौपाई :मुनि पद कमल नाइ करि सीसा। चले बनहि सुर नर मुनि ईसा॥आगें राम अनुज पुनि पाछें। मुनि बर बेष बने अति काछें॥1॥ भावार्थ:- मुनि के चरण कमलों में सिर नवाकर देवता, मनुष्य और मुनियों के स्वामी श्री रामजी वन को चले। आगे श्री रामजी हैं औ  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 08

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चौपाई :कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। संकर मानस राजमराला॥जात रहेउँ बिरंचि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा॥1॥ भावार्थ:- मुनि ने कहा- हे कृपालु रघुवीर! हे शंकरजी मन रूपी मानसरोवर के राजहंस! सुनिए, मैं ब्रह्मलोक को जा रहा था। (इतने म  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 09

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चौपाई :अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा॥ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर शरभंगजी ने योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और श्री रामजी की कृपा से वे वैकुंठ को चले गए। मुनि भगवान  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 10

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चौपाई :मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना॥मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक॥1॥ भावार्थ:- मुनि अगस्त्यजी के एक सुतीक्ष्ण नामक सुजान (ज्ञानी) शिष्य थे, उनकी भगवान में प्रीति थी। वे मन, वचन और कर्म से श्र  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 11

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चौपाई :कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी॥महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी॥1॥ भावार्थ:- मुनि कहने लगे- हे प्रभो! मेरी विनती सुनिए। मैं किस प्रकार से आपकी स्तुति करूँ? आपकी महिमा अपार है और   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 12

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चौपाई :एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुंभज रिषि पासा॥बहुत दिवस गुर दरसनु पाएँ। भए मोहि एहिं आश्रम आएँ॥1॥ भावार्थ:- ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) ऐसा उच्चारण कर लक्ष्मी निवास श्री रामचंद्रजी हर्षित होकर अगस्त्य ऋषि के पास चले। (तब सुती  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 13

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चौपाई :तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाहीं॥तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ। ताते तात न कहि समुझायउँ॥1॥ भावार्थ:- तब श्री रामजी ने मुनि से कहा- हे प्रभो! आप से तो कुछ छिपाव है नहीं। मैं जिस कारण से आया हूँ, वह आप जानते   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 14

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चौपाई :जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भए मुनि बीती त्रासा॥गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति होहिं सुहाए॥1॥ भावार्थ:- जब से श्री रामजी ने वहाँ निवास किया, तब से मुनि सुखी हो गए, उनका डर जाता रहा। पर्वत, वन, नदी और तालाब शोभा स  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 15

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चौपाई :थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई॥मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥1॥ भावार्थ:-(श्री रामजी ने कहा-) हे तात! मैं थोड़े ही में सब समझाकर कहे देता हूँ। तुम मन, चित्त और बुद्धि लगाकर सुनो! मैं और  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 16

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चौपाईधर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई॥1॥ भावार्थ:- धर्म (के आचरण) से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है तथा ज्ञान मोक्ष का देने वाला है- ऐसा वेदों ने वर्णन किया   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 17

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चौपाई :भगति जोग सुनि अति सुख पावा। लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा॥एहि बिधि कछुक दिन बीती। कहत बिराग ग्यान गुन नीती॥1॥ भावार्थ:- इस भक्ति योग को सुनकर लक्ष्मणजी ने अत्यंत सुख पाया और उन्होंने प्रभु श्री रामचंद्रजी के चरणों में सि  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 18

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चौपाई :नाक कान बिनु भइ बिकरारा। जनु स्रव सैल गेरु कै धारा॥खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता॥1॥ भावार्थ:- बिना नाक-कान के वह विकराल हो गई। (उसके शरीर से रक्त इस प्रकार बहने लगा) मानो (काले) पर्वत से गेरू की धारा बह रही  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 19

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चौपाई :प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी। थकित भई रजनीचर धारी॥सचिव बोलि बोले खर दूषन। यह कोउ नृपबालक नर भूषन॥1॥ भावार्थ:- (सौंदर्य-माधुर्यनिधि) प्रभु श्री रामजी को देखकर राक्षसों की सेना थकित रह गई। वे उन पर बाण नहीं छोड़ सके। मंत्री क  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 20

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छन्द :तब चले बान कराल। फुंकरत जनु बहु ब्याल॥कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम॥1॥ भावार्थ:- तब भयानक बाण ऐसे चले, मानो फुफकारते हुए बहुत से सर्प जा रहे हैं। श्री रामचन्द्रजी संग्राम में क्रुद्ध हुए और अत्यन्त तीक्ष्ण बाण च  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 21

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चौपाई :जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते॥तब लछिमन सीतहि लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए॥1॥ भावार्थ:- जब श्री रघुनाथजी ने युद्ध में शत्रुओं को जीत लिया तथा देवता, मनुष्य और मुनि सबके भय नष्ट हो गए, तब लक्ष्मणजी सीताजी  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 22

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चौपाई :सुनत सभासद उठे अकुलाई। समुझाई गहि बाँह उठाई॥कह लंकेस कहसि निज बाता। केइँ तव नासा कान निपाता॥1॥ भावार्थ:- शूर्पणखा के वचन सुनते ही सभासद् अकुला उठे। उन्होंने शूर्पणखा की बाँह पकड़कर उसे उठाया और समझाया। लंकापति रावण ने कह  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 23

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चौपाई :सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं॥खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता॥1॥ भावार्थ:- (वह मन ही मन विचार करने लगा-) देवता, मनुष्य, असुर, नाग और पक्षियों में कोई ऐसा नहीं, जो मेरे सेवक को भी पा सके। ख  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 24

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चौपाई :सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥1॥ भावार्थ:- हे प्रिये! हे सुंदर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले! सुनो! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँग  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 25

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चौपाई :दसमुख सकल कथा तेहि आगें। कही सहित अभिमान अभागें॥होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौं नृपनारी॥1॥ भावार्थ:- भाग्यहीन रावण ने सारी कथा अभिमान सहित उसके सामने कही (और फिर कहा-) तुम छल करने वाले कपटमृग बनो, जिस उपाय से म  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 26

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चौपाई :जाहु भवन कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी॥गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा॥1॥ भावार्थ:- अतः अपने कुल की कुशल विचारकर आप घर लौट जाइए। यह सुनकर रावण जल उठा और उसने बहुत सी गालियाँ दीं (दुर्वचन क  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 27

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चौपाई :तेहि बननिकट दसानन गयऊ। तब मारीच कपटमृग भयऊ॥अति बिचित्र कछु बरनि न जाई। कनक देह मनि रचित बनाई॥1॥ भावार्थ:- जब रावण उस वन के (जिस वन में श्री रघुनाथजी रहते थे) निकट पहुँचा, तब मारीच कपटमृग बन गया! वह अत्यन्त ही विचित्र था, कुछ वर  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 28

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चौपाई :खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा॥आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता॥1॥ भावार्थ:- दुष्ट मारीच को मारकर श्री रघुवीर तुरंत लौट पड़े। हाथ में धनुष और कमर में तरकस शोभा दे रहा है। इधर जब सीताजी ने दुःखभरी  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 29

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चौपाई :हा जग एक बीर रघुराया। केहिं अपराध बिसारेहु दाया॥आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक॥1॥ भावार्थ:- (सीताजी विलाप कर रही थीं-) हा जगत के अद्वितीय वीर श्री रघुनाथजी! आपने किस अपराध से मुझ पर दया भुला दी। हे दुःखों के हर  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 30

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चौपाई :रघुपति अनुजहि आवत देखी। बाहिज चिंता कीन्हि बिसेषी॥जनकसुता परिहरिहु अकेली। आयहु तात बचन मम पेली॥1॥ भावार्थ:- (इधर) श्री रघुनाथजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को आते देखकर ब्राह्य रूप में बहुत चिंता की (और कहा-) हे भाई! तुमने जानकी क  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 31

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चौपाई :तब कह गीध बचन धरि धीरा। सुनहु राम भंजन भव भीरा॥नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही॥1॥ भावार्थ:- तब धीरज धरकर गीध ने यह वचन कहा- हे भव (जन्म-मृत्यु) के भय का नाश करने वाले श्री रामजी! सुनिए। हे नाथ! रावण ने मेरी य  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 32

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चौपाई :गीध देह तजि धरि हरि रूपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा॥स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी॥1॥ भावार्थ:- जटायु ने गीध की देह त्यागकर हरि का रूप धारण किया और बहुत से अनुपम (दिव्य) आभूषण और (दिव्य) पीताम्बर पहन लिए। श्याम  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 33

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चौपाई :कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला॥गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥1॥ भावार्थ:- श्री रघुनाथजी अत्यंत कोमल चित्त वाले, दीनदयालु और बिना ही करण कृपालु हैं। गीध (पक्षियों में भी) अधम पक्षी और मांसाहा  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 34

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चौपाई :सापत ताड़त परुष कहंता। बिप्र पूज्य अस गावहिं संता॥पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना॥1॥ भावार्थ:- शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर वचन कहता हुआ भी ब्राह्मण पूजनीय है, ऐसा संत कहते हैं। शील और गुण से हीन भी   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 35

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चौपाई :पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी॥केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी॥1॥ भावार्थ:- फिर वे हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गईं। प्रभु को देखकर उनका प्रेम अत्यंत बढ़ गया। (उन्होंने कहा-) म  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 36

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चौपाई :मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥ भावार्थ:- मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इं  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 37

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चौपाई :चले राम त्यागा बन सोऊ। अतुलित बल नर केहरि दोऊ॥बिरही इव प्रभु करत बिषादा। कहत कथा अनेक संबादा॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी ने उस वन को भी छोड़ दिया और वे आगे चले। दोनों भाई अतुलनीय बलवान्‌ और मनुष्यों में सिंह के समान हैं। प  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 38

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चौपाई :बिटप बिसाल लता अरुझानी। बिबिध बितान दिए जनु तानी॥कदलि ताल बर धुजा पताका। देखि न मोह धीर मन जाका॥1॥ भावार्थ:- विशाल वृक्षों में लताएँ उलझी हुई ऐसी मालूम होती हैं मानो नाना प्रकार के तंबू तान दिए गए हैं। केला और ताड़ सुंदर ध्  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 39

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चौपाई :गुनातीत सचराचर स्वामी। राम उमा सब अंतरजामी॥कामिन्ह कै दीनता देखाई। धीरन्ह कें मन बिरति दृढ़ाई॥1॥ भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! श्री रामचंद्रजी गुणातीत (तीनों गुणों से परे), चराचर जगत्‌ के स्वामी और सबके अंतर की जा  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 40

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चौपाई :बिकसे सरसिज नाना रंगा। मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा॥बोलत जलकुक्कुट कलहंसा। प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा॥1॥ भावार्थ:- उसमें रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं। बहुत से भौंरे मधुर स्वर से गुंजार कर रहे हैं। जल के मुर्गे और राजहंस बो  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 41

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चौपाई :देखि राम अति रुचिर तलावा। मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा॥देखी सुंदर तरुबर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी ने अत्यंत सुंदर तालाब देखकर स्नान किया और परम सुख पाया। एक सुंदर उत्तम वृक्ष की छाया देखकर श्री रघ  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 42

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चौपाई :सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुंदर अगम सुगम बर दायक॥देहु एक बर मागउँ स्वामी। जद्यपि जानत अंतरजामी॥1॥ भावार्थ:- हे स्वभाव से ही उदार श्री रघुनाथजी! सुनिए। आप सुंदर अगम और सुगम वर के देने वाले हैं। हे स्वामी! मैं एक वर माँगता हूँ,   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 43

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चौपाई :अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी। पुनि नारद बोले मृदु बानी॥राम जबहिं प्रेरेउ निज माया मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया॥1॥ भावार्थ:- श्री रघुनाथजी को अत्यंत प्रसन्न जानकर नारदजी फिर कोमल वाणी बोले- हे रामजी! हे रघुनाथजी! सुनिए, जब आपने   ......

अरण्यकाण्ड दोहा 44

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चौपाई :सुनु मुनि कह पुरान श्रुति संता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता॥जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी॥1 भावार्थ:- हे मुनि! सुनो, पुराण, वेद और संत कहते हैं कि मोह रूपी वन (को विकसित करने) के लिए स्त्री वसंत ऋतु के समान है। ज  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 45

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चौपाई :सुनि रघुपति के बचन सुहाए। मुनि तन पुलक नयन भरि आए॥कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती॥1॥ भावार्थ:- श्री रघुनाथजी के सुंदर वचन सुनकर मुनि का शरीर पुलकित हो गया और नेत्र (प्रेमाश्रुओं के जल से) भर आए। (वे मन ही म  ......

अरण्यकाण्ड दोहा 46

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चौपाई :निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥1॥ भावार्थ:- कानों से अपने गुण सुनने में सकुचाते हैं, दूसरों के गुण सुनने से विशेष हर्षित होते हैं। सम और शीतल हैं,   ......