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बालकांड दोहा 218


चौपाई :

लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥1॥

भावार्थ:- लक्ष्मणजी के हृदय में विशेष लालसा है कि जाकर जनकपुर देख आवें, परन्तु प्रभु श्री रामचन्द्रजी का डर है और फिर मुनि से भी सकुचाते हैं, इसलिए प्रकट में कुछ नहीं कहते, मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं॥1॥

राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हियँ हुलसानी॥
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥2॥

भावार्थ:- (अन्तर्यामी) श्री रामचन्द्रजी ने छोटे भाई के मन की दशा जान ली, (तब) उनके हृदय में भक्तवत्सलता उमड़ आई। वे गुरु की आज्ञा पाकर बहुत ही विनय के साथ सकुचाते हुए मुस्कुराकर बोले॥2॥

नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥
जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥3॥

भावार्थ:- हे नाथ! लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं, किन्तु प्रभु (आप) के डर और संकोच के कारण स्पष्ट नहीं कहते। यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं इनको नगर दिखलाकर तुरंत ही (वापस) ले आऊँ॥3॥

सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥4॥

भावार्थ:- यह सुनकर मुनीश्वर विश्वामित्रजी ने प्रेम सहित वचन कहे- हे राम! तुम नीति की रक्षा कैसे न करोगे, हे तात! तुम धर्म की मर्यादा का पालन करने वाले और प्रेम के वशीभूत होकर सेवकों को सुख देने वाले हो॥4॥

दोहा :

जाइ देखि आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥218॥

भावार्थ:-सुख के निधान दोनों भाई जाकर नगर देख आओ। अपने सुंदर मुख दिखलाकर सब (नगर निवासियों) के नेत्रों को सफल करो॥218॥

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