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लंका काण्ड दोहा 110


चौपाई :

तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई॥
आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी॥1॥

 

भावार्थ:-तब श्री रघुनाथजी की आज्ञा पाकर इंद्र का सारथी मातलि चरणों में सिर नवाकर (रथ लेकर) चला गया। तदनन्तर सदा के स्वार्थी देवता आए। वे ऐसे वचन कह रहे हैं मानो बड़े परमार्थी हों॥1॥

 

दीन बंधु दयाल रघुराया। देव कीन्हि देवन्ह पर दाया॥
बिस्व द्रोह रत यह खल कामी। निज अघ गयउ कुमारगगामी॥2॥

 

भावार्थ:-हे दीनबन्धु! हे दयालु रघुराज! हे परमदेव! आपने देवताओं पर बड़ी दया की। विश्व के द्रोह में तत्पर यह दुष्ट, कामी और कुमार्ग पर चलने वाला रावण अपने ही पाप से नष्ट हो गया॥2॥

 

तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी। सदा एकरस सहज उदासी॥
अकल अगुन अज अनघ अनामय। अजित अमोघसक्ति करुनामय॥3॥

 

भावार्थ:-आप समरूप, ब्रह्म, अविनाशी, नित्य, एकरस, स्वभाव से ही उदासीन (शत्रु-मित्र-भावरहित), अखंड, निर्गुण (मायिक गुणों से रहित), अजन्मे, निष्पाप, निर्विकार, अजेय, अमोघशक्ति (जिनकी शक्ति कभी व्यर्थ नहीं जाती) और दयामय हैं॥3॥

 

मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परसुराम बपु धरी॥
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो। नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो॥4॥

 

भावार्थ:-आपने ही मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन और परशुराम के शरीर धारण किए। हे नाथ! जब-जब देवताओं ने दुःख पाया, तब-तब अनेकों शरीर धारण करके आपने ही उनका दुःख नाश किया॥4॥

 

यह खल मलिन सदा सुरद्रोही। काम लोभ मद रत अति कोही।
अधम सिरोमनि तव पद पावा। यह हमरें मन बिसमय आवा॥5॥

 

भावार्थ:-यह दुष्ट मलिन हृदय, देवताओं का नित्य शत्रु, काम, लोभ और मद के परायण तथा अत्यंत क्रोधी था। ऐसे अधमों के शिरोमणि ने भी आपका परम पद पा लिया। इस बात का हमारे मन में आश्चर्य हुआ।।5।।

 

हम देवता परम अधिकारी। स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी।।
भव प्रबाहँ संतत हम परे। अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे॥6॥

 

भावार्थ:-हम देवता श्रेष्ठ अधिकारी होकर भी स्वार्थपरायण हो आपकी भक्ति को भुलाकर निरंतर भवसागर के प्रवाह (जन्म-मृत्यु के चक्र) में पड़े हैं। अब हे प्रभो! हम आपकी शरण में आ गए हैं, हमारी रक्षा कीजिए॥6॥

 

दोहा-

करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि।
अति सप्रेम तन पु‍लकि बिधि अस्तुति करत बहोरि॥110॥

 

भावार्थ:-विनती करके देवता और सिद्ध सब जहाँ के तहाँ हाथ जोड़े खड़े रहे। तब अत्यंत प्रेम से पुलकित शरीर होकर ब्रह्माजी स्तुति करने लगे– ॥110॥

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