Home / Articles / Page / 3

अयोध्याकांड दोहा 52

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा॥दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे॥1॥ भावार्थ:- रघुकुल तिलक श्री रामचंद्रजी ने दोनों हाथ जोड़कर आनंद के साथ माता के चरणों में सिर नवाया। माता ने आशीर्वाद द

अयोध्याकांड दोहा 51

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :उतरु न देइ दुसह रिस रूखी। मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी॥ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी। चलीं कहत मतिमंद अभागी॥1॥ भावार्थ:- कैकेयी कोई उत्तर नहीं देती, वह दुःसह क्रोध के मारे रूखी (बेमुरव्वत) हो रही है। ऐसे देखती है मानो भूख

अयोध्याकांड दोहा 50

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू॥भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥1॥ भावार्थ:- हृदय में ऐसा विचार कर क्रोध छोड़ दो, शोक और कलंक की कोठी मत बनो। भरत को अवश्य युवराजपद दो, पर श्री रामचंद्रजी का वन में 

अयोध्याकांड दोहा 49

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :एक बिधातहि दूषनु देहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं॥खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू॥1॥ भावार्थ:- कोई एक विधाता को दोष देते हैं, जिसने अमृत दिखाकर विष दे दिया। नगर भर में खलबली मच गई, सब किसी को सोच हो गया। हृद

अयोध्याकांड दोहा 48

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा॥एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा॥1॥ भावार्थ:- विधाता ने क्या सुनाकर क्या सुना दिया और क्या दिखाकर अब वह क्या दिखाना चाहता है! एक कहते हैं कि राजा ने अच

अयोध्याकांड दोहा 47

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकइहि गारी॥एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥1॥ भावार्थ:- सब मेल मिल गए थे (सब संयोग ठीक हो गए थे), इतने में ही विधाता ने बात बिगाड़ दी! जहाँ-तहाँ लोग कैकेयी को गाली दे रह

अयोध्याकांड दोहा 46

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥1॥ भावार्थ:- (उन्होंने फिर कहा-) इस पृथ्वीतल पर उसका जन्म धन्य है, जिसके चरित्र सुनकर पिता को परम आनंद हो, जिसको माता-

अयोध्याकांड दोहा 45

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौं बरु सुरपुरु जाऊ॥सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही॥1॥ भावार्थ:- जगत में चाहे अपयश हो और सुयश नष्ट हो जाए। चाहे (नया पाप होने से) मैं नरक में गिरूँ, अथवा स्वर्ग चला जाए (पूर्व पुण्य