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लंका काण्ड दोहा 113

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छंद –जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम।।धृत त्रोन बर सर चाप। भुजदंड प्रबल प्रताप।।1।।भावार्थ:-शोभा के धाम, शरणागत को विश्राम देने वाले, श्रेष्ठ तरकस, धनुष और बाण धारण किए हुए, प्रबल प्रतापी भुज दंडों वाले श्रीरामचंद्रजी की जय हो

लंका काण्ड दोहा 112

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तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए।।अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा।।1 ।।भावार्थ:-उसी समय दशरथजी वहाँ आए। पुत्र (श्रीरामजी) को देखकर उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल छा गया। छोटे भाई लक्ष्मणजी स

लंका काण्ड दोहा 111

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छंद-जय राम सदा सुख धाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे।।भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो॥1॥भावार्थ:-हे नित्य सुखधाम और (दु:खों को हरने वाले) हरि! हे धनुष-बाण धारण किए हुए रघुनाथजी! आपकी जय हो। हे प्रभो! आप भव (जन्म-मरण) रूपी हाथ

लंका काण्ड दोहा 110

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चौपाई :तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई॥आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी॥1॥ भावार्थ:-तब श्री रघुनाथजी की आज्ञा पाकर इंद्र का सारथी मातलि चरणों में सिर नवाकर (रथ लेकर) चला गया। तदनन्तर सदा के स्वार्थी देवता 

लंका काण्ड दोहा 109

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चौपाई :प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता॥लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी॥1॥ भावार्थ:- प्रभु के वचनों को सिर चढ़ाकर मन, वचन और कर्म से पवित्र श्री सीताजी बोलीं- हे लक्ष्मण! तुम मेरे धर्म के नेगी (धर

लंका काण्ड दोहा 108

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चौपाई :अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई॥1॥ भावार्थ:- हे तात! अब तुम वही उपाय करो, जिससे मैं इन नेत्रों से प्रभु के कोमल श्याम शरीर के दर्शन करूँ। तब श्री रामचंद्रजी

लंका काण्ड दोहा 107

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चौपाई :पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। लंका जाहु कहेउ भगवाना॥समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु॥1॥ भावार्थ:- फिर प्रभु ने हनुमान्‌जी को बुला लिया। भगवान्‌ ने कहा- तुम लंका जाओ। जानकी को सब समाचार सुनाओ और उसका कु

लंका काण्ड दोहा 106

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चौपाई :आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो। कृपासिंधु तब अनुज बोलायो॥तुम्ह कपीस अंगद नल नीला। जामवंत मारुति नयसीला॥1॥सब मिलि जाहु बिभीषन साथा। सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा॥पिता बचन मैं नगर न आवउँ। आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ॥2॥ भावार्थ:- सब क्र