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लंका काण्ड दोहा 102

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चौपाई :काटत बढ़हिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा॥1॥ भावार्थ:- काटते ही सिरों का समूह बढ़ जाता है, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है। शत्रु मरता नहीं और परिश्रम बहुत हुआ। 

लंका काण्ड दोहा 101

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छंद :जब कीन्ह तेहिं पाषंड। भए प्रगट जंतु प्रचंड॥बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच॥1॥ भावार्थ:-जब उसने पाखंड (माया) रचा, तब भयंकर जीव प्रकट हो गए। बेताल, भूत और पिशाच हाथों में धनुष-बाण लिए प्रकट हुए!॥1॥ जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ म

लंका काण्ड दोहा 100

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चौपाई :अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई॥राम सुभाउ सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह बिथा अति तेही॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर और सीताजी को बहुत प्रकार से समझाकर फिर त्रिजटा अपने घर चली गई। श्री रामचंद्रजी के स्वभाव का स्मर

लंका काण्ड दोहा 99

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चौपाई :तेही निसि सीता पहिं जाई। त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई॥सिर भुज बाढ़ि सुनत रिपु केरी। सीता उर भइ त्रास घनेरी॥1॥ भावार्थ:- उसी रात त्रिजटा ने सीताजी के पास जाकर उन्हें सब कथा कह सुनाई। शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती का संवाद सुनक

लंका काण्ड दोहा 98

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चौपाई :सिर भुज बाढ़ि देखि रिपु केरी। भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी॥मरत न मूढ़ कटेहुँ भुज सीसा। धाए कोपि भालु भट कीसा॥1॥ भावार्थ:- शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती देखकर रीछ-वानरों को बहुत ही क्रोध हुआ। यह मूर्ख भुजाओं के और सिरों के कटने

लंका काण्ड दोहा 97

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चौपाई :प्रभु छन महुँ माया सब काटी। जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी॥रावनु एकु देखि सुर हरषे। फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे॥1॥ भावार्थ:- प्रभु ने क्षणभर में सब माया काट डाली। जैसे सूर्य के उदय होते ही अंधकार की राशि फट जाती है (नष्ट हो जाती ह

लंका काण्ड दोहा 96

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चौपाई :अंतरधान भयउ छन एका। पुनि प्रगटे खल रूप अनेका॥रघुपति कटक भालु कपि जेते। जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते॥1॥ भावार्थ:- क्षणभर के लिए वह अदृश्य हो गया। फिर उस दुष्ट ने अनेकों रूप प्रकट किए। श्री रघुनाथजी की सेना में जितने रीछ-वानर थ

लंका काण्ड दोहा 95

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चौपाई :देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धायउ हनूमान गिरि धारी॥रथ तुरंग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता॥1॥ भावार्थ:- विभीषण को बहुत ही थका हुआ देखकर हनुमान्‌जी पर्वत धारण किए हुए दौड़े। उन्होंने उस पर्वत से रावण के रथ, घोड़े औ