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अयोध्याकांड दोहा 60

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चौपाई :बन हित कोल किरात किसोरी। रचीं बिरंचि बिषय सुख भोरी॥पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ॥1॥ भावार्थ:- वन के लिए तो ब्रह्माजी ने विषय सुख को न जानने वाली कोल और भीलों की लड़कियों को रचा है, जिनका पत्थर के कीड़े जै

अयोध्याकांड दोहा 59

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चौपाई:मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई॥नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई॥1॥ भावार्थ:- फिर मैंने रूप की राशि, सुंदर गुण और शीलवाली प्यारी पुत्रवधू पाई है। मैंने इन (जानकी) को आँखों की पुतली बन

अयोध्याकांड दोहा 58

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चौपाई :दीन्हि असीस सासु मृदु बानी। अति सुकुमारि देखि अकुलानी॥बैठि नमित मुख सोचति सीता। रूप रासि पति प्रेम पुनीता॥1॥ भावार्थ:- सास ने कोमल वाणी से आशीर्वाद दिया। वे सीताजी को अत्यन्त सुकुमारी देखकर व्याकुल हो उठीं। रूप की राशि औ

अयोध्याकांड दोहा 57

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चौपाई :देव पितर सब तुम्हहि गोसाईं। राखहुँ पलक नयन की नाईं॥अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना॥1॥ भावार्थ:- हे गोसाईं! सब देव और पितर तुम्हारी वैसी ही रक्षा करें, जैसे पलकें आँखों की रक्षा करती हैं। तुम्हारे वनवा

अयोध्याकांड दोहा 56

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चौपाई :जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता॥जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना॥1॥ भावार्थ:- हे तात! यदि केवल पिताजी की ही आज्ञा, हो तो माता को (पिता से) बड़ी जानकर वन को मत जाओ, किन्तु यदि पिता-माता दोनों ने वन

अयोध्याकांड दोहा 55

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चौपाई :राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू॥लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू॥1॥ भावार्थ:- न रख ही सकती हैं, न यह कह सकती हैं कि वन चले जाओ। दोनों ही प्रकार से हृदय में बड़ा भारी संताप हो रहा है। (मन में सो

अयोध्याकांड दोहा 54

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चौपाई :बचन बिनीत मधुर रघुबर के। सर सम लगे मातु उर करके॥सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी। जिमि जवास परें पावस पानी॥1॥ भावार्थ:- रघुकुल में श्रेष्ठ श्री रामजी के ये बहुत ही नम्र और मीठे वचन माता के हृदय में बाण के समान लगे और कसकने लगे। उस श

अयोध्याकांड दोहा 53

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चौपाई :तात जाउँ बलि बेगि नाहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू॥पितु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ॥1॥ भावार्थ:- हे तात! मैं बलैया लेती हूँ, तुम जल्दी नहा लो और जो मन भावे, कुछ मिठाई खा लो। भैया! तब पिता के पास जाना। बहुत देर हो गई ह