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लंका काण्ड दोहा 62

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चौपाई :हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी हर्षित होकर हनुमान्‌जी से गले मिले। प्रभु परम सुजान (चतुर) और अत्यंत ही कृतज्ञ हैं। तब वैद्य (सुषेण)

लंका काण्ड दोहा 61

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चौपाई :उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी॥अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ॥1॥ भावार्थ:- वहाँ लक्ष्मणजी को देखकर श्री रामजी साधारण मनुष्यों के अनुसार (समान) वचन बोले- आधी रात बीत चुकी है, हनुमान्‌ नहीं

लंका काण्ड दोहा 60

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चौपाई :तात कुसल कहु सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी॥लकपि सब चरित समास बखाने। भए दुखी मन महुँ पछिताने॥1॥ भावार्थ:- (भरतजी बोले-) हे तात! छोटे भाई लक्ष्मण तथा माता जानकी सहित सुखनिधान श्री रामजी की कुशल कहो। वानर (हनुमान्‌जी) 

लंका काण्ड दोहा 59

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चौपाई :परेउ मुरुछि महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक॥सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए। कपि समीप अति आतुर आए॥1॥ भावार्थ:- बाण लगते ही हनुमान्‌जी ‘राम, राम, रघुपति’ का उच्चारण करते हुए मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। प्रिय वचन (रा

लंका काण्ड दोहा 58

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चौपाई :कपि तव दरस भइउँ निष्पापा। मिटा तात मुनिबर कर सापा॥मुनि न होइ यह निसिचर घोरा। मानहु सत्य बचन कपि मोरा॥1॥ भावार्थ:- (उसने कहा-) हे वानर! मैं तुम्हारे दर्शन से पापरहित हो गई। हे तात! श्रेष्ठ मुनि का शाप मिट गया। हे कपि! यह मुनि न

लंका काण्ड दोहा 57

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चौपाई :अस कहि चला रचिसि मग माया। सर मंदिर बर बाग बनाया॥मारुतसुत देखा सुभ आश्रम। मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम॥1॥ भावार्थ:- वह मन ही मन ऐसा कहकर चला और उसने मार्ग में माया रची। तालाब, मंदिर और सुंदर बाग बनाया। हनुमान्‌जी ने सुंदर 

लंका काण्ड दोहा 56

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चौपाई :राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभंजनसुत बल भाषी॥उहाँ दूत एक मरमु जनावा। रावनु कालनेमि गृह आवा॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी के चरणकमलों को हृदय में रखकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी अपना बल बखानकर (अर्थात्‌ मैं अभी लिए आता हूँ, ऐसा कहकर) च

लंका काण्ड दोहा 55

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चौपाई :सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू। जारइ भुवन चारिदस आसू॥सक संग्राम जीति को ताही। सेवहिं सुर नर अग जग जाही॥1॥ भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) हे गिरिजे! सुनो, (प्रलयकाल में) जिन (शेषनाग) के क्रोध की अग्नि चौदहों भुवनों को तुरंत ही जला डाल