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लंका काण्ड दोहा 97

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चौपाई :प्रभु छन महुँ माया सब काटी। जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी॥रावनु एकु देखि सुर हरषे। फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे॥1॥ भावार्थ:- प्रभु ने क्षणभर में सब माया काट डाली। जैसे सूर्य के उदय होते ही अंधकार की राशि फट जाती है (नष्ट हो जाती ह

लंका काण्ड दोहा 96

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चौपाई :अंतरधान भयउ छन एका। पुनि प्रगटे खल रूप अनेका॥रघुपति कटक भालु कपि जेते। जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते॥1॥ भावार्थ:- क्षणभर के लिए वह अदृश्य हो गया। फिर उस दुष्ट ने अनेकों रूप प्रकट किए। श्री रघुनाथजी की सेना में जितने रीछ-वानर थ

लंका काण्ड दोहा 95

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चौपाई :देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धायउ हनूमान गिरि धारी॥रथ तुरंग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता॥1॥ भावार्थ:- विभीषण को बहुत ही थका हुआ देखकर हनुमान्‌जी पर्वत धारण किए हुए दौड़े। उन्होंने उस पर्वत से रावण के रथ, घोड़े औ

लंका काण्ड दोहा 94

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चौपाई :आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भंजन पन मोरा॥तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥1॥ भावार्थ:- अत्यंत भयानक शक्ति को आती देख और यह विचार कर कि मेरा प्रण शरणागत के दुःख का नाश करना है, श्री रामजी ने तुरंत ही 

लंका काण्ड दोहा 93

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चौपाई :दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढ़ी। बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी॥गर्जेउ मूढ़ महा अभिमानी। धायउ दसहु सरासन तानी॥1॥ भावार्थ:- सिरों की बाढ़ देखकर रावण को अपना मरण भूल गया और बड़ा गहरा क्रोध हुआ। वह महान्‌ अभिमानी मूर्ख गरजा और दसों धनु

लंका काण्ड दोहा 92

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चौपाई :चले बान सपच्छ जनु उरगा। प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा॥रथ बिभंजि हति केतु पताका। गर्जा अति अंतर बल थाका॥1॥ भावार्थ:- बाण ऐसे चले मानो पंख वाले सर्प उड़ रहे हों। उन्होंने पहले सारथी और घोड़ों को मार डाला। फिर रथ को चूर-चूर करके ध

लंका काण्ड दोहा 91

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चौपाई :कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकंधर। कुलिस समान लाग छाँड़ै सर॥॥नानाकार सिलीमुख धाए। दिसि अरु बिदिसि गगन महि छाए॥1॥ भावार्थ:- दुर्वचन कहकर रावण क्रुद्ध होकर वज्र के समान बाण छोड़ने लगा। अनेकों आकार के बाण दौड़े और दिशा, विदिशा त

लंका काण्ड दोहा 90

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चौपाई :अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पंकज सिरु नावा॥तब लंकेस क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सम्मुख धावा॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने ब्राह्मणों के चरणकमलों में सिर नवाया और फिर रथ चलाया। तब रावण के हृदय में क्रोध छा ग