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लंका काण्ड दोहा 105

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चौपाई :मंदोदरी बचन सुनि काना। सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना॥अज महेस नारद सनकादी। जे मुनिबर परमारथबादी॥1॥ भावार्थ:- मंदोदरी के वचन कानों में सुनकर देवता, मुनि और सिद्ध सभी ने सुख माना। ब्रह्मा, महादेव, नारद और सनकादि तथा और भी जो 

लंका काण्ड दोहा 104

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चौपाई :पति सिर देखत मंदोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी॥जुबति बृंद रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आईं॥1॥ भावार्थ:- पति के सिर देखते ही मंदोदरी व्याकुल और मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। स्त्रियाँ रोती हुई दौड़ीं और उस (मंद

लंका काण्ड दोहा 103

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चौपाई :सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा॥लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा॥1॥ भावार्थ:- एक बाण ने नाभि के अमृत कुंड को सोख लिया। दूसरे तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओं में लगे। बाण सिरों और भुजाओं 

लंका काण्ड दोहा 102

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चौपाई :काटत बढ़हिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा॥1॥ भावार्थ:- काटते ही सिरों का समूह बढ़ जाता है, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है। शत्रु मरता नहीं और परिश्रम बहुत हुआ। 

लंका काण्ड दोहा 101

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छंद :जब कीन्ह तेहिं पाषंड। भए प्रगट जंतु प्रचंड॥बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच॥1॥ भावार्थ:-जब उसने पाखंड (माया) रचा, तब भयंकर जीव प्रकट हो गए। बेताल, भूत और पिशाच हाथों में धनुष-बाण लिए प्रकट हुए!॥1॥ जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ म

लंका काण्ड दोहा 100

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चौपाई :अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई॥राम सुभाउ सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह बिथा अति तेही॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर और सीताजी को बहुत प्रकार से समझाकर फिर त्रिजटा अपने घर चली गई। श्री रामचंद्रजी के स्वभाव का स्मर

लंका काण्ड दोहा 99

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चौपाई :तेही निसि सीता पहिं जाई। त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई॥सिर भुज बाढ़ि सुनत रिपु केरी। सीता उर भइ त्रास घनेरी॥1॥ भावार्थ:- उसी रात त्रिजटा ने सीताजी के पास जाकर उन्हें सब कथा कह सुनाई। शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती का संवाद सुनक

लंका काण्ड दोहा 98

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चौपाई :सिर भुज बाढ़ि देखि रिपु केरी। भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी॥मरत न मूढ़ कटेहुँ भुज सीसा। धाए कोपि भालु भट कीसा॥1॥ भावार्थ:- शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती देखकर रीछ-वानरों को बहुत ही क्रोध हुआ। यह मूर्ख भुजाओं के और सिरों के कटने