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लंका काण्ड दोहा 86

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चौपाई :चलत होहिं अति असुभ भयंकर। बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर॥भयउ कालबस काहु न माना। कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना॥1॥ भावार्थ:- चलते समय अत्यंत भयंकर अमंगल (अपशकुन) होने लगे। गीध उड़-उड़कर उसके सिरों पर बैठने लगे, किन्तु वह काल के वश 

लंका काण्ड दोहा 85

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चौपाई :इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई॥नाथ करइ रावन एक जागा। सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा॥1॥ भावार्थ:- यहाँ विभीषणजी ने सब खबर पाई और तुरंत जाकर श्री रघुनाथजी को कह सुनाई कि हे नाथ! रावण एक यज्ञ कर रहा है। उसके सिद्ध

लंका काण्ड दोहा 84

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चौपाई:जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा॥मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा॥1॥ भावार्थ:- हनुमान्‌जी घुटने टेककर रह गए, पृथ्वी पर गिरे नहीं और फिर क्रोध से भरे हुए संभलकर उठे। हनुमान्‌जी ने रावण क

लंका काण्ड दोहा 83

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चौपाई :रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुड़ावउँ छाती॥1॥ भावार्थ:- (लक्ष्मणजी ने पास जाकर कहा-) अरे दुष्ट! वानर भालुओं को क्या मार रहा है? मुझे देख, मैं तेरा काल हूँ। (रावण ने कहा

लंका काण्ड दोहा 82

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चौपाई :धायउ परम क्रुद्ध दसकंधर। सन्मुख चले हूह दै बंदर॥गहि कर पादप उपल पहारा। डारेन्हि ता पर एकहिं बारा॥1॥ भावार्थ:- रावण अत्यंत क्रोधित होकर दौड़ा। वानर हुँकार करते हुए (लड़ने के लिए) उसके सामने चले। उन्होंने हाथों में वृक्ष, पत

लंका काण्ड दोहा 81

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चौपाई :सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढ़े बिमाना॥हमहू उमा रहे तेहिं संगा। देखत राम चरित रन रंगा॥1॥ भावार्थ:- ब्रह्मा आदि देवता और अनेकों सिद्ध तथा मुनि विमानों पर चढ़े हुए आकाश से युद्ध देख रहे हैं। (शिवजी कहते हैं-) हे

लंका काण्ड दोहा 80

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चौपाई :रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा॥1॥ भावार्थ:- रावण को रथ पर और श्री रघुवीर को बिना रथ के देखकर विभीषण अधीर हो गए। प्रेम अधिक होने से उनके मन में सन्देह हो गया (क

लंका काण्ड दोहा 79

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चौपाई :चलेउ निसाचर कटकु अपारा। चतुरंगिनी अनी बहु धारा॥बिबिधि भाँति बाहन रथ जाना। बिपुल बरन पताक ध्वज नाना॥1॥ भावार्थ:- राक्षसों की अपार सेना चली। चतुरंगिणी सेना की बहुत सी Uटुकडि़याँ हैं। अनेकों प्रकार के वाहन, रथ और सवारियाँ