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किष्किंधाकांड शुरुआत श्लोक

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श्लोक :कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौशोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ।मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौ हितौसीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः ॥1॥ भावार्थ:-कुन्दपुष्प और नीलकम  ......

किष्किंधाकांड दोहा 1

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चौपाई :आगें चले बहुरि रघुराया। रिष्यमूक पर्बत निअराया॥तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखि अतुल बल सींवा॥1॥ भावार्थ:- श्री रघुनाथजी फिर आगे चले। ऋष्यमूक पर्वत निकट आ गया। वहाँ (ऋष्यमूक पर्वत पर) मंत्रियों सहित सुग्रीव रहते थे। अ  ......

किष्किंधाकांड दोहा 02

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चौपाई :कोसलेस दसरथ के जाए। हम पितु बचन मानि बन आए॥नाम राम लछिमन दोउ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई॥1॥ भावार्थ:- (श्री रामचंद्रजी ने कहा-) हम कोसलराज दशरथजी के पुत्र हैं और पिता का वचन मानकर वन आए हैं। हमारे राम-लक्ष्मण नाम हैं, हम दोनो  ......

किष्किंधाकांड दोहा 3

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चौपाई :जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा॥1॥ भावार्थ:- एहे नाथ! यद्यपि मुझ में बहुत से अवगुण हैं, तथापि सेवक स्वामी की विस्मृति में न पड़े (आप उसे न भूल जाएँ)। हे   ......

किष्किंधाकांड दोहा 4

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चौपाई :देखि पवनसुत पति अनुकूला। हृदयँ हरष बीती सब सूला॥नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई॥1॥ भावार्थ:- स्वामी को अनुकूल (प्रसन्न) देखकर पवन कुमार हनुमान्‌जी के हृदय में हर्ष छा गया और उनके सब दुःख जाते रहे। (उन्होंने कहा-  ......

किष्किंधाकांड दोहा 5

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चौपाई :कीन्हि प्रीति कछु बीच न राखा। लछिमन राम चरित्‌ सब भाषा॥कह सुग्रीव नयन भरि बारी। मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी॥1॥ भावार्थ:- दोनों ने (हृदय से) प्रीति की, कुछ भी अंतर नहीं रखा। तब लक्ष्मणजी ने श्री रामचंद्रजी का सारा इतिहास कहा।   ......

किष्किंधाकांड दोहा 6

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चौपाई :नाथ बालि अरु मैं द्वौ भाइ। प्रीति रही कछु बरनि न जाई॥मयसुत मायावी तेहि नाऊँ। आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ॥1॥ भावार्थ:- (सुग्रीव ने कहा-) हे नाथ! बालि और मैं दो भाई हैं, हम दोनों में ऐसी प्रीति थी कि वर्णन नहीं की जा सकती। हे प्रभो! मय   ......

किष्किंधाकांड दोहा 7

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चौपाई :जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥1॥ भावार्थ:- जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख क  ......

किष्किंधाकांड दोहा 8

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चौपाई :अस कहि चला महा अभिमानी। तृन समान सुग्रीवहि जानी॥भिरे उभौ बाली अति तर्जा। मुठिका मारि महाधुनि गर्जा॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर वह महान्‌ अभिमानी बालि सुग्रीव को तिनके के समान जानकर चला। दोनों भिड़ गए। बालि ने सुग्रीव को बहुत ध  ......

किष्किंधाकांड दोहा 9

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चौपाई :परा बिकल महि सर के लागें। पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगे॥स्याम गात सिर जटा बनाएँ। अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ॥1॥ भावार्थ:- बाण के लगते ही बालि व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, किंतु प्रभु श्री रामचंद्रजी को आगे देखकर वह फिर उठ बैठा।  ......

किष्किंधाकांड दोहा 10

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चौपाई :सुनत राम अति कोमल बानी। बालि सीस परसेउ निज पानी॥अचल करौं तनु राखहु प्राना। बालि कहा सुनु कृपानिधाना॥1॥ भावार्थ:- बालि की अत्यंत कोमल वाणी सुनकर श्री रामजी ने उसके सिर को अपने हाथ से स्पर्श किया (और कहा-) मैं तुम्हारे शरीर को  ......

किष्किंधाकांड दोहा 11

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चौपाई :राम बालि निज धाम पठावा। नगर लोग सब व्याकुल धावा॥नाना बिधि बिलाप कर तारा। छूटे केस न देह सँभारा॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी ने बालि को अपने परम धाम भेज दिया। नगर के सब लोग व्याकुल होकर दौड़े। बालि की स्त्री तारा अनेकों प्र  ......

किष्किंधाकांड दोहा 12

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चौपाई :उमा राम सम हत जग माहीं। गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं॥सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति॥1॥ भावार्थ:- हे पार्वती! जगत में श्री रामजी के समान हित करने वाला गुरु, पिता, माता, बंधु और स्वामी कोई नहीं है। देव  ......

किष्किंधाकांड दोहा 13

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चौपाई :सुंदर बन कुसुमित अति सोभा। गुंजत मधुप निकर मधु लोभा॥कंद मूल फल पत्र सुहाए। भए बहुत जब ते प्रभु आए॥1॥ भावार्थ:- सुंदर वन फूला हुआ अत्यंत सुशोभित है। मधु के लोभ से भौंरों के समूह गुंजार कर रहे हैं। जब से प्रभु आए, तब से वन में स  ......

किष्किंधाकांड दोहा 14

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चौपाई :घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥दामिनि दमक रह नघन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥1॥ भावार्थ:- आकाश में बादल घुमड़-घुमड़कर घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीताजी) के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली की चमक बादलों म  ......

किष्किंधाकांड दोहा 15

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चौपाई :दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥1॥ भावार्थ:- चारों दिशाओं में मेंढकों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद पढ़ रहे हों। अनेको  ......

किष्किंधाकांड दोहा 16

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चौपाई :बरषा बिगत सरद रितु आई। लछमन देखहु परम सुहाई॥फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥1॥ भावार्थ:- हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने (कास रू  ......

किष्किंधाकांड दोहा 17

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चौपाई :सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकऊ बाधा॥फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा॥1॥ भावार्थ:- जो मछलियाँ अथाह जल में हैं, वे सुखी हैं, जैसे श्री हरि के शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं रहती। कमलों के फूलने   ......

किष्किंधाकांड दोहा 18

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चौपाई :बरषा गत निर्मल रितु आई। सुधि न तात सीता कै पाई॥एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं। कालुह जीति निमिष महुँ आनौं॥1॥ भावार्थ:- वर्षा बीत गई, निर्मल शरद्ऋतु आ गई, परंतु हे तात! सीता की कोई खबर नहीं मिली। एक बार कैसे भी पता पाऊँ तो काल को भी ज  ......

किष्किंधाकांड दोहा 19

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चौपाई :इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा। राम काजु सुग्रीवँ बिसारा॥निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा॥1॥ भावार्थ:- यहाँ (किष्किन्धा नगरी में) पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी ने विचार किया कि सुग्रीव ने श्री रामजी के कार  ......

किष्किंधाकांड दोहा 20

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चौपाई :चर नाइ सिरु बिनती कीन्ही। लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही॥क्रोधवंत लछिमन सुनि काना। कह कपीस अति भयँ अकुलाना॥1॥ भावार्थ:- अंगद ने उनके चरणों में सिर नवाकर विनती की (क्षमा-याचना की) तब लक्ष्मणजी ने उनको अभय बाँह दी (भुजा उठाकर कहा   ......

किष्किंधाकांड दोहा 21

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चौपाई :नाइ चरन सिरु कह कर जोरी॥ नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी॥अतिसय प्रबल देव तव माया॥ छूटइ राम करहु जौं दाया॥1॥ भावार्थ:- श्री रघुनाथजी के चरणों में सिर नवाकर हाथ जोड़कर सुग्रीव ने कहा- हे नाथ! मुझे कुछ भी दोष नहीं है। हे देव! आपकी माया अ  ......

किष्किंधाकांड दोहा 22

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चौपाई :बानर कटक उमा मैं देखा। सो मूरुख जो करन चह लेखा॥आइ राम पद नावहिं माथा। निरखि बदनु सब होहिं सनाथा॥1॥ भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! वानरों की वह सेना मैंने देखी थी। उसकी जो गिनती करना चाहे वह महान्‌ मूर्ख है। सब वानर आ-आकर श्  ......

किष्किंधाकांड दोहा 23

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चौपाई :सुनहु नील अंगद हनुमाना। जामवंत मतिधीर सुजाना॥सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू। सीता सुधि पूँछेहु सब काहू॥1॥ भावार्थ:- हे धीरबुद्धि और चतुर नील, अंगद, जाम्बवान्‌ और हनुमान! तुम सब श्रेष्ठ योद्धा मिलकर दक्षिण दिशा को जाओ और सब किस  ......

किष्किंधाकांड दोहा 24

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चौपाई :कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा। प्रान लेहिं एक एक चपेटा॥बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं। कोउ मुनि मिलइ ताहि सब घेरहिं॥1॥ भावार्थ:- कहीं किसी राक्षस से भेंट हो जाती है, तो एक-एक चपत में ही उसके प्राण ले लेते हैं। पर्वतों और वनों को बह  ......

किष्किंधाकांड दोहा 25

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चौपाई :दूरि ते ताहि सबन्हि सिरु नावा। पूछें निज बृत्तांत सुनावा॥तेहिं तब कहा करहु जल पाना। खाहु सुरस सुंदर फल नाना॥1॥ भावार्थ:- दूर से ही सबने उसे सिर नवाया और पूछने पर अपना सब वृत्तांत कह सुनाया। तब उसने कहा- जलपान करो और भाँति-भा  ......

किष्किंधाकांड दोहा 26

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चौपाई :इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीं॥सब मिलि कहहिं परस्पर बाता। बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता॥1॥ भावार्थ:- यहाँ वानरगण मन में विचार कर रहे हैं कि अवधि तो बीत गई, पर काम कुछ न हुआ। सब मिलकर आपस में बात करने लगे कि   ......

किष्किंधाकांड दोहा 27

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चौपाई :एहि बिधि कथा कहहिं बहु भाँती। गिरि कंदराँ सुनी संपाती॥बाहेर होइ देखि बहु कीसा। मोहि अहार दीन्ह जगदीसा॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार जाम्बवान्‌ बहुत प्रकार से कथाएँ कह रहे हैं। इनकी बातें पर्वत की कन्दरा में सम्पाती ने सुनीं। बा  ......

किष्किंधाकांड दोहा 28

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चौपाई :अनुज क्रिया करि सागर तीरा। कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा॥हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई। गगन गए रबि निकट उड़ाई॥1॥ भावार्थ:- समुद्र के तीर पर छोटे भाई जटायु की क्रिया (श्राद्ध आदि) करके सम्पाती अपनी कथा कहने लगा- हे वीर वानरों! सुनो, ह  ......

किष्किंधाकांड दोहा 29

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चौपाई :जो नाघइ सत जोजन सागर। करइ सो राम काज मति आगर॥मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा। राम कृपाँ कस भयउ सरीरा॥1॥ भावार्थ:- जो सौ योजन (चार सौ कोस) समुद्र लाँघ सकेगा और बुद्धिनिधान होगा, वही श्री रामजी का कार्य कर सकेगा। (निराश होकर घबराओ मत) म  ......

किष्किंधाकांड दोहा 30

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चौपाई :अंगद कहइ जाउँ मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा॥जामवंत कह तुम्ह सब लायक। पठइअ किमि सबही कर नायक॥1॥ भावार्थ:- अंगद ने कहा- मैं पार तो चला जाऊँगा, परंतु लौटते समय के लिए हृदय में कुछ संदेह है। जाम्बवान्‌ ने कहा- तुम सब प्रकार स  ......